हिंदू धर्मशास्त्रों में अष्टावक्र का नाम एक दार्शनिक और तत्व चिंतक के रूप में आदर से लिया गया है। वे अष्टावक्र इसीलिए कहे जाते हैं, क्योंकि उनका शरीर आठ जगह से वक्र अर्थात टेढ़ा था। प्रसिद्ध कथा है – अष्टावक्र राजा जनक के दरबार में पहुंचे। दोनों ओर ऊंचे आसनों पर सभासद, ज्ञानी, पंडित, राजकर्मी आदि बैठे थे और सामने राजा जनक का सिंहासन था, जिस पर वे विराजित थे। अष्टावक्र उस समय किशोर वय के थे। अष्टावक्र ने जैसे ही जनक की सभा के मुख्य मंडप में प्रवेश किया, उन पर दृष्टि पड़ते ही सभी ने एक-दूसरे की ओर देखा और एक जोरदार ठहाका सभा में गूंज उठा। इस ठहाके की गूंज देर तक सुनाई दी। सभी अष्टावक्र का अजीबो-गरीब व्यक्तित्व देखकर हंस पड़े थे। इतना कि उनकी हंसी रुक न रही थी। यह देख पहले तो अष्टावक्र कुछ समझ न पाए, फिर उन्हें अपने पर हंसता देख अचानक अष्टावक्र भी बहुत जोर से हंसने लगे। देर तक हंसने पर जब जनक से न रहा गया तो उन्होंने पूछा – सब लोग तो तुम्हें देखकर हंसे, आखिर तुम क्यों हंस पड़े? अष्टावक्र ने जवाब दिया – मुझे लगा मैं चर्मकारों की सभा में आ गया हूं, जहां व्यक्ति की चमड़ी देखकर उसका निर्णय होता है। जनक सहित पूरी सभा अष्टावक्र के इस उत्तर पर लज्जा से पानी-पानी हो गई। अष्टावक्र ने संदेश दिया कि व्यक्ति का महत्व उसके शरीर से नहीं, उसके ज्ञान, व्यक्तित्व और कर्म से है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
अष्टावक्र की उत्पत्ति के संबंध में उपनिषद् एवं महाभारत जैसे ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। प्रसंग ऐसा है कि उद्दालक मुनि अपनी गुरु भक्ति एवं निष्ठा के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उन्होंने गुरु सेवा करके वेद-वेदान्त का पूर्ण पांडित्य प्राप्त कर लिया था। उनके पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। वह भी अपने पिता के समान मंत्र ब्राह्मण भाग का पारगामी पण्डित था। उद्दालक की एक पुत्री हुई, जिसका नाम सुजाता था। उद्दालक के यहां अनेक ब्राह्मण बालक ब्रह्म-विद्या का अध्ययन करने आते थे। उनमें सबसे प्रिय शिष्य का नाम कहोड था। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उद्दालक ने उसे वेद शास्त्र का पूर्ण ज्ञान प्रदान किया, साथ ही, अपनी कन्या का विवाह भी कहोड के साथ कर दिया।
सुजाता गर्भवती हुई। उसके गर्भ में अग्नि के समान तेजस्वी शिशु आया। उस गर्भस्थ शिशु ने एक दिन अपने वेदपाठी पिता से गर्भ में से ही कहा कि पिताजी आप रात-दिन वेद का पाठ करते हैं, किन्तु आपका उच्चारण सम्यक् रूपेण शुद्ध नहीं होता। ऐसा न हो कि आपके शिष्य अशुद्ध वेद मंत्रों का उच्चारण करें और आप संसार में उपहास को प्राप्त हों।
शिष्यों के मध्य बैठे हुए ऋषि ने अपने पुत्र के ऐसे अपमानपूर्ण वचन को सुना। तो वे अत्यन्त क्रोधित हो उठे। उन्होंने गर्भस्थ शिशु को शाप दिया कि ‘तू गर्भ में रहते हुए ही ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातें करता है इसलिए जा आठ अंगों से टेढ़ा हो जा।’ पिता के ऐसे शाप देने पर शिशु आठ स्थानों से टेढ़ा पैदा हुआ। इसलिए इसका नाम अष्टावक्र रख दिया गया। ऐसी भी मान्यता है कि यह सर्वांग पूर्ण बालक था। वेदाध्ययन के संबंध में पिता में दोष दृष्टि रखता था। रुष्ट होकर पिता ने उसे शाप दिया और वह आठ स्थानों से टेड़ा हो गया। इसीलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा। जिस दिन पिता के शाप से शिशु अष्टावक के रूप में पैदा हुआ, उसी दिन उद्दालक ऋषि के यहां भी एक पुत्र हुआ। उसका नाम श्वेतकेतु रखा गया। इस प्रकार मामा-भान्जे का जन्म एक ही दिन हुआ। जब अष्टावक्र का जन्म होने ही वाला था, तो उनकी माता सुजाता ने अपने पति कहोड से कहा कि ‘शिशु का जन्म होगा। इसके संस्कार करने होंगे, इसके लिए कहीं से धन का उपार्जन कीजिए।’
उस समय विदेहराज जनक अपनी दानशीलता और ज्ञान के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। जनक के दरबार में सैकड़ों विद्वान ब्रह्म की चर्चा किया करते थे। उनमें एक बंदी नाम का परम विद्वान ब्राह्मण भी था। अपने पांडित्य के कारण उसकी दरबार में बड़ी धाक थी। कहोड ज्यों ही दरबार में पहुंचे बंदी ने उन्हें शास्त्रार्थ करने को कहा। बंदी की यह शर्त थी कि जो शास्त्रार्थ में परास्त होगा, उसे जल में डुबा दिया जाएगा। इसके पूर्व बंदी अनेक विद्वानों को नदी में डुबा चुके थे। कहोड़ से बंदी का शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। बंदी ने कहोड़ को परास्त कर दिया और शर्त के अनुसार उन्हें नदी में डुबो दिया गया।
सुजाता को यह दुखद समाचार मिला। उसे बड़ा क्लेश हुआ। अब वह अपने पिता उद्दालक ऋषि के पास रहने लगी। उचित समय पर अष्टावक्र का जन्म हुआ। ये जन्म से ही वेद-वेदागों के ज्ञाता थे। उनके मामा श्वेतकेतु भी परम मेधावी थे। दोनों की आयु 12 वर्ष हो चुकी थी।
एक दिन जब अष्टावक्र अपने नाना उद्दालक की गोद में बैठे थे, श्वेतकेतु भी वहां खेलता हुआ आया। उसने अष्टावक्र से कहा, ‘तुम यहां से उठो, अपने पिता की गोद में बैठो।’ अष्यवक्र ने कहा, ‘अपने पिता की गोद में में बैठूंगा। पिता को गोद में बैठने से बड़ा सुख मिलता है।’ श्वेतकेतु ने पूछा, ‘पर तुम्हारे पिता है ही कहां?”
इतना सुनना था कि बालक अष्टावक्र का कोमल मन मुरझा गया। मन पर गहरी ठेस लगी। वह उदास मन से अपनी मां के पास आया। उनसे पूछा कि ‘मेरे पिताजी कहां हैं? और उनका नाम क्या है? ‘इस प्रश्न को सुनकर माता के नेत्रों में पति वियोग के आंसू छलक आये, डबडबायी आंखों से उन्होंने कहा, ‘बेटा तुम्हारे पिताजी को बंदी ने शास्त्रार्थ में परास्त किया और उन्हें जल में डुबो दिया। मैं अभागिन तुम्हें तुम्हारे पिता के दर्शन भी नहीं करा सकी।
इतना सुनना था कि अष्टावक्र के मन में तीव्र रोष उत्पन्न हुआ और प्रतिशोध की भावना जागृत हुई। जनक का पता पूछते हुए वे उनके दरबार की ओर चल पड़े। श्वेतकेतु भी उनके साथ था। दोनों जनकपुरी पहुंच गए। ये दोनों यज्ञशाला की ओर जा रहे थे कि उधर से राजा जनक की सवारी भी हाथी पर निकली। अष्टावक्र और श्वेतकेतु दोनों राजमार्ग के बीचोंबीच चल रहे थे। राज-सेवक बालकों को मार्ग से हटाने लगे, तो अष्टावक्र ने निर्भीकता से कहा कि ‘नहीं, राजा से भी पहले ब्राह्मण को मार्ग मिलना चाहिए। क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही गुरु है।” ‘महाराजा जनक हाथी के हौदे में बैठे हुए यह सारा वार्तालाप सुन रहे थे। बालक के इन वचनों से वे अत्यंत प्रभावित हुए।
अष्टावक्र तथा श्वेतकेतु यज्ञशाला के द्वार पर आए द्वारपाल ने उन्हें बालक समझकर रोक दिया और कहा कि ‘भीतर बालकों का प्रवेश नहीं हो सकता। यहां तो वृद्धों का ही प्रवेश होता है।’
अष्टावक्र ने ओजस्वी वाणी में कहा कि ‘सिर के बाल पक जाने से हो कोई वृद्ध नहीं होता। बालक होने पर भी यदि किसी को परम सत्य का बोध हो, तो वही यथार्थ में वृद्ध है।’ पीछे-पीछे चल रहे राजा जनक यह सब देखते सुनते चले आ रहे थे। अष्टावक्र ने राजा की ओर देखकर कहा – ‘मैंने आपकी बहुत ख्याति सुनी है, आपके दरबार में निरंतर ब्रह्म की चर्चा होती है। यह भी सुना है कि एक बंदी नामक ब्राह्मण विद्वानों में शास्त्रार्थ करता है और शर्त भी है कि उससे जो शास्त्रार्थ में परास्त हो जाए उसे जल में डुबो दिया जाता है। मैं उस ‘बंदी’ विद्वान से शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ। शर्त मुझे मान्य है।’ यह सुनकर पहले जनक ने अष्टावक्र से आत्मा व ब्रह्म के संबंध में कुछ प्रश्न किए। जनक को ऐसा लगा कि यह तत्वदर्शी ब्राह्मण है। सभा आमंत्रित हुई। अष्टावक्र और बंदी का शास्त्रार्थ होने लगा। राजा बड़ी उत्कंठा से सुन रहे थे। अष्टावक्र ने अपने पैने तर्कों से बंदी को परास्त कर दिया। शर्त पूरी करने की बात आयी। अष्टावक्र ने कहा, ‘विप्र देवता’ मैंने सुना है आज तक आपने अनेक ब्राह्मणों को जल में डुबो दिया है। न्याय तो यही है कि शर्त के अनुसार मैं भी आपको जल में डुबो दूं। पर मैं ऐसा नहीं करूँगा। आपने ऐसा क्यों किया, इसका कारण बताइए।’
उसी समय बंदी ने विनम्र भाव से कहा, ‘ब्रह्मज्ञानी बालक ब्राह्मणों को जल में डुबोने का तात्पर्य कुछ दूसरा ही था। कारण यह है कि मैं वरुण का पुत्र हूँ। मेरे पिता वरुण अपनी विभावरी नामक पुरी में एक विशेष यज्ञ कर रहे थे। उस यज्ञ में पृथ्वी के चमकते हुए ब्राह्मणों की आवश्यकता थी। मैंने ब्राह्मणों को जल में डुबोकर मारा नहीं अपितु वे मेरे पिता के यहां यज्ञ संपन्न करा रहे हैं। यज्ञ पूरा होने पर वे पृथ्वी पर प्रकट हो जाएंगे।’ हुआ भी कुछ ऐसा हो। समय आने पर वे सभी ब्राह्मण अपने-अपने घरों को लौटे।
अब तो महाराजा जनक को अष्टावक्र के प्रति विशेष आस्था हो गयी। ये कौन जनक थे, यह कहना कठिन है, क्योंकि जनक की परंपरा में उन्नीस जनक चुके हैं। ये सबके सब विदेहराज अर्थात् देह तथा मन के सुख-दुखादि से परे थे, इसीलिए इन्हें विदेहराज कहा जाता था।
महाराजा जनक का वंश देववंश माना जाता है। मनुष्य कोटि में इनकी गिनती नहीं है। देववंश होने का कारण यह है कि राजा निमि यज्ञ कर रहे थे। इनके गुरु थे वशिष्ठ । वशिष्ठ से निमि ने अपना यज्ञ संपन्न कराने का अनुरोध किया। उस समय वशिष्ठ ने दूसरे यजमान को यज्ञ का वचन दे रखा था। वशिष्ठ ने कारण बताते हुए कहा कि इस समय वे किसी अन्य का यज्ञ कराने जा रहे है। लौटकर यज्ञ संपन्न कराएंगे, प्रस्थान किया। पर शिष्य के मन में तीव्र वैराग्य था। सत्कर्म में देरी नहीं करनी चाहिए। जीवन का कोई भरोसा नहीं होता। इस दृष्टि से उसने दूसरे ब्राह्मण को बुलाया और उससे यज्ञ करा दिया। वशिष्ठ जब वापस लौटे तो उन्हें पता चला कि उनके शिष्य ने उन्हें छोड़कर दूसरे ब्राह्मण का वरण कर लिया है। वे अत्यन्त कुपित हुए। उन्होंने अपने शिष्य को शाप दिया कि ‘तुम्हारी मृत्यु हो जाए।’ शिष्य भी अपने धर्म और सत्य पर स्थिर था। उसने भी उलटकर गुरु को शाप दिया कि ‘आपकी भी मृत्यु हो जाए। क्योंकि आप दक्षिणा के लोभ से दूसरे यजमान के यहां चले गए। मेरा यज्ञ नहीं कराया।’ इस प्रकार गुरु और शिष्य ने एक-दूसरे को शाप दे दिया। किंतु यह शाप अनिष्टकारी न होकर कल्याणकारी था। आगे चलकर मित्रा वरुणी के तेज से वशिष्ठ ने फिर जन्म लिया। इधर निमि राजा जब यज्ञ करा रहे थे तो उस समय गुरु ने जो शाप दिया, उससे वहीं पर उसकी मृत्यु हो गयी। राजा के मरने पर ऋषियों-मुनियों में हाहाकर मच गया। उस यज्ञ में अपना-अपना भाग लेने के लिए देवता भी प्रत्यक्ष होकर आए थे। ऋषि-मुनियों ने कहा, ‘यह तो बड़ा अनर्थ हो गया। देवताओ, आप कुछ कृपा कीजिए।’ देवताओं ने कहा, ‘आप जैसे चाहें, हम वैसा कर सकते हैं। यदि आप चाहें, तो हम निमि को जीवित कर सकते हैं।’ ऋषियों ने कहा, ‘आप निमि को पुनः जीवित कर दीजिए।’ देवताओं ने निमि की आत्मा को बुलाया। कहा, ‘जीवात्मन् आप इस मृत शरीर में प्रवेश करिए। जिससे कि राजा जीवित हो जाए।’ पर आत्मा ने स्पष्ट इनकार कर दिया, ‘जिस शरीर ने मुझे विराट् से संकुचित बना दिया, जो मात्र साढ़े तीन हाथ का है, और जिसमें अनेक विकार भरे हुए हैं, मैं उसके बंधन से मुक्त हुआ हूं। यहां मेरे ऊपर गुरु की कृपा है। गुरु ने मुझे विराट् ब्रह्म बना दिया। अब मैं इस घेरे में आने वाला नहीं,’ इतना कहकर आत्मा अदृश्य हो गयी। निमि का शरीर यज्ञशाला में लुढ़क गया। अब यज्ञ पूर्ण कैसे हो, तो निमि के शरीर का मंथन किया गया। उसमें से एक कुमार का जन्म हुआ। शरीर में से जन्म होने से इसका नाम जनक पड़ा। मथने से प्रकट हुआ इसलिए मिथिल हुआ। इसी कुमार ने मिथिलानगरी को बसाया था। मिथिला राजधानी होने का यही कारण था। इस प्रकार महाराजा जनक का वंश दिव्य वंश है। इसकी गणना इसीलिए मनुष्य कोटि में नहीं है। जगज्जननी जानकी जी की उत्पत्ति इसी वंश में हुई है।
जनक की परंपरा में जितने भी राजा हुए सबके सब ब्रह्मज्ञानी थे। राजा के दरबार में ब्रह्म विषय को लेकर विद्वानों के बड़े-बड़े शास्त्रार्थ होते थे। इनकी सभा में प्रख्यात विद्वान याज्ञवल्क्य का नाम भी सुना जाता है। उस समय महिलाएं भी ज्ञान-विज्ञान में बहुत आगे थीं। गार्गी और याज्ञवल्क्य के शास्त्रार्थ का प्रसंग उपनिषदों में स्थान-स्थान पर मिलता है। गार्गी ने एक शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य को ललकारा और प्रश्न किया, ‘याज्ञवल्क्य बताओ संसार में कृपण कौन है?’ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, “यो वै गार्गी एवं अमृतं’ अविदित्वा अस्मात् लोकात् प्रयाति स वै कृपणः ” अरे गार्गी, जो व्यक्ति संसार में जन्म लेकर न मरने वाले आत्मा, ब्रह्म के संबंध में विचार नहीं करता, वही सबसे बड़ा कृपण है।” सामान्य लोक व्यवहार में जो रुपये-पैसे की कंजूसी करे, उसे कृपण कहते हैं। पर याज्ञवल्क्य ने कृषण की यही परिभाषा की है कि जिसने संसार के अंधेरे कोने में जन्म ले लिया और आंख मूंदकर विदा हो गए कभी आत्म मीमांसा नहीं की, ऐसा व्यक्ति कृपण है।
विदेहराज जनक स्वयं तत्त्वज्ञानी थे। व्यास पुत्र शुकदेव को भी इन्होंने ज्ञान दिया था। प्रत्येक साधक के मन पर एक झीना-सा परा पड़ा रहता है कि मुझे तत्त्वज्ञान होगा कि नहीं, समय आने पर वह परदा स्वयं हट जाता है। शुकदेव जी को भी अपने ज्ञान के विषय में संदेह था। पिता व्यास से अनुरोध “आप हमें आत्मज्ञान दीजिए।” व्यास ने कहा, “पिता अहंकार का प्रतीक है। मां ममता की रस्सी हैं। ये परमार्थ की तरफ बढ़ने के लिए रुकावट पैदा करते हैं इसलिए तुम्हें यदि उचित ज्ञान प्राप्त करना है, तो विदेहराज जनक के यहाँ चले जाओ, वे तुम्हें आत्मा का अपरोक्ष ज्ञान कराएंगे।’ शुकदेव जी हिमालय से मिथिला की ओर जाते हैं। राजा जनक की पुरी में प्रवेश करते हैं। उनकी अग्निपरीक्षा होती है। जनक उन्हें ब्रह्म के विषय में समझाते हैं। तात्पर्य, राजा जनक की अद्वैत ब्रह्म में ऐसी निष्ठा थी कि शुकदेव जैसे तत्वदर्शी को भी उनके पास आत्मज्ञान के लिए जाना पड़ा।
जनक ने देखा अष्टावक्र परम विद्वान है। एक दिन विद्वानों की सभा लगी हुई थी। अष्टावक्र भी विराजमान थे। जनक ने कहा, इस सभा में है कोई ऐसा विद्वान जो मुझे कुछ दिनों में परमतत्त्व का साक्षात्कार करा दे और मुझे माेक्ष की प्राप्ति हो सके। तो अष्टावक्र जी बोल उठे, “राजन, तुम कुछ दिनों की बात करते हो, घोड़े की एड़ में पांव रखकर काठी पर बैठने में जितना समय लगता है, उतने समय में मैं तुम्हें ब्रह्म ज्ञानी बना सकता हूँ। तुम मोक्ष की कामना करते हो।
मुक्ति चेच्छसि चेत्तात् विषयान्विषवत्यज ।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवत् भज॥
इस प्रकार अष्टावक्र ने विदेहराज जनक को जो ज्ञान दिया उसी का नाम अष्टावक्र गीता है। हम किसी बात को लहजे के अनुसार बार-बार दोहराएं तो वह गीत बन जाता है। यह संसार को रिझाने वाला गीत नहीं है। यह आत्मा संबंधी गीत है। ऋषियों ने इसे बार-बार गाया है। इसलिए यह गीत है। और अष्टावक्र ने आत्मा को इसमें गाया है, इसलिए इसका नाम अष्टावक्र गीता है। इसका अपर नाम है महागीता। इसका मूल नाम है अष्टावक्र संहिता। इसे कौशिकेय गीता भी कहते हैं। जब अष्टावक्र शाप से निवृत्त हो गए थे, तो उन्होंने ‘कौशिकेय’ यह नाम रखा था।
उपनिषदों में भी अनेक स्थानों पर उद्दालक ऋषि का नाम आता है। वहां उद्दालक के आश्रम में जाकर कहोड ने अष्टावक्र को समंदा नदी में स्नान कराया। स्नान करते ही उनके सभी अंग ठीक हो गए। तो पिता ने इनका नाम कौशिकेय रखा। अतः अष्टावक्र गीता को ‘कौशिकेय संहिता’ भी कहा जाता है।
ग्यानि अष्टावक्र की कहानी तत्वज्ञानी है और इस कहानीकार को प्रणाम
अष्टावक्र को लेकर ज्ञानवर्धक बातें।