- श्रीकृष्ण और द्रौपदी से जुड़ी यह घटना एक भगवान और भक्त के रिश्ते को कैसे दिखलाती है
- जब दु:शासन ने द्रौपदी की साड़ी को खींचना शुरू किया, तो …
- द्रौपदी की चीरहरण की घटना का मूल मर्म
- द्रौपदी के पुण्य कर्म का परिणाम थी उसकी अनंत रूप से लम्बी साड़ी
हिमशिखर धर्म डेस्क
सत्कर्मों का फल देर से मिलने की वजह से लोग अक्सर दुष्कर्मों को अपना लेते है। किन्तु ऐसा करने वाले हमेशा याद रखे “अपने किये हुए कर्म का फल जीव अवश्य भोगता है।” ऐसा गीता में कहा गया है।” सत्कर्म का फल कभी व्यर्थ नहीं जाता। यह इस छोटी सी कहानी में समझाया गया है ।
महाभारत के समय की बात है। उस समय सभी लोग नदियों के किनारे या घाट पर स्नान करने जाया करते थे। एक दिन प्रातःकाल द्रौपदी भी यमुना स्नान को गई उसी समय एक महात्मा भी उससे थोड़ी ही दूरी पर स्नान करने आये।
महात्मा ने अपना एक वस्त्र यमुना किनारे रख दिया और नदी में उतरकर नहाने लगे। थोड़ी ही देर में जब दौपदी ने स्नान कर लिया तो वह नगर की ओर जाने को हुई, तभी उसने देखा कि महात्मा अभी भी यमुना में ही खड़े थे। (महात्मा का अधोवस्त्र यमुना के तीव्र प्रवाह में बह चूका था।)
उसे आश्चर्य तो हुआ किन्तु फिर भी वह आगे बढ़ दी। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने फिर मुड़कर महात्मा की ओर देखा तो पता चला कि महात्मा नदी में नहीं है। ध्यान से देखने पर ज्ञात हुआ कि महात्मा पास की एक झाड़ी में छुपकर बैठ गये।
द्रौपदी के मन में सहज जिज्ञासा हुई कि महात्मा झाड़ी में क्यों छुपे होंगे। तभी उसे महात्मा का किनारे पर रखा वस्त्र दूर आकाश में उड़ता हुआ दिखाई दिया। द्रौपदी को महात्मा की समस्या समझते देर न लगी।
वह झाड़ी के निकट गई और बोली, बाबा! मैं आपकी समस्या समझ चुकी हूँ। यह कहते हुए द्रौपदी ने अपना आधा वस्त्र फाड़कर महात्मा को दे दिया और आधे से अपना तन ढक लिया।
महात्मा ने वस्त्र लेते हुए द्रौपदी को आशीर्वाद दिया – “बेटी ! तूने आज मेरी लाज बचाई, ईश्वर हमेशा तेरे शील की रक्षा करें ” यह कहकर महात्मा वहाँ से चल दिए और द्रौपदी भी अपने महल की और चल दी।
इस घटना के बहुत दिनों बाद जब पांडव द्रौपदी को द्युत क्रीड़ा में कोरवों के हाथों हार गये तो दुष्ट दुष्शासन ने भरी सभा में द्रौपदी का अपमान किया। विजय के उन्माद में उन्मुख दुष्शासन का इतना दुस्साहस हो गया कि वह द्रौपदी को घसीटते हुए भरी सभा में ले आया।
सभी सभासदों की बुद्धियाँ धृतराष्ट्र की तरह ही अंध तमिस्त्रा से इतनी आच्छादित हो गई कि किसी ने भी राई – रत्ती भर भी विरोध नहीं किया। हद तो तब हो गई जब दुष्शासन ने द्रौपदी के वस्त्रों का हरण करना शुरू कर दिया।
धर्मराज ने भी शर्म के मारे अपनी गर्दन झुका ली । पिता, पितामह और सभी गुरुजन लज्जा से जमीन में गढ़ चुके थे किन्तु विरोध का एक शब्द भी नहीं कह सके। तभी द्रौपदी ने अपने भगवान को याद किया।
सभी देवतागण इस दृश्य को देखकर व्यथित थे । तभी नारद जी भगवान नारायण के पास पहुँच गये और बोले – “प्रभु! अपने भक्त की लाज बचाइए ! ”
प्रभु बोले – “नारद ! मुझे किसी की लाज बचाने की कोई आवश्यता नहीं है सभी अपने ही कर्म का फल भोगते है । यदि द्रौपदी ने कोई सत्कर्म किया है तो उसके शील की रक्षा अवश्य होगी।”
थोड़ी देर सोचने के बाद नारायण बोले – “नारद ! एक बार द्रौपदी ने एक महात्मा की लाज बचाई थी अतः प्रत्युपकार स्वरूप उसके शील की रक्षा होना अवश्यम्भावी है।” यह कहकर भगवान नारायण ने अपनी लीला दिखाई। दुष्ट दुष्शासन वस्त्र हरण करते – करते पसीना – पसीना हो गया किन्तु वस्त्र समाप्त नहीं हुआ । इस तरह प्रभु ने द्रौपदी के शील की रक्षा की।
यह महाभारत का एक छोटा सा दृष्टान्त है जिसके माध्यम से हमें यह शिक्षा मिलती है कि “ सत्कर्म का फल कभी व्यर्थ नहीं जाता ”। इसलिए हमेशा सत्कर्म ही करे तथा सुकर्मों को ही प्रोत्साहन दे।