सुप्रभातम् : हिसाब-किताब और जन्म-मृत्यु के चक्र की गाथा

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

अक्सर एक सवाल हम सबके मन में उठता रहता है कि आध्यात्मिक रूप से उच्च स्थिति को प्राप्त महापुरुषों के जीवन में दुःख की अधिकता क्यों होती है और यह भी कि ऐसे तत्व ज्ञानियों की आयु भी कम होती है। ऐसे उदाहरणों से तो लोगों में गलत संदेश जाता है अर्थात् सुखी रहना चाहते हो, दीर्घ आयु चाहते हो, तो सांसारिक बने रहना, वासनामुक्त जीवन ही ज्यादा उपयुक्त है। तर्क की दृष्टि से यह बात सही लगती है कि लेकिन इसका आध्यात्मिक पहलू इसके रहस्य को खोलता है।

कहते हैं रामकृष्ण परमहंस के दुख को देखकर जब उनके शिष्यों ने आग्रह किया कि क्यों नहीं वे ‘मां के चरणों में प्रार्थना करते कि उन्हें वे रोगमुक्त कर दें। अपने शिष्यों का भाव सुनकर वे मुस्कुराते हुए बोले, कि मैं कोई हिसाब-किताब शेष नहीं रखना चाहता। बस बहुत हो गया। इस प्रारब्ध भोग के साथ ही सारी जन्म-मृत्यु के चक्र की गाथा समाप्त ही हो जानी चाहिये। फिर जन्म और मृत्यु की विवेचना करने पर उपरोक्त प्रश्नों का समाधान सहज रूप में प्राप्त हो जाता है। जहां तक ‘दुख की बात है, तो तत्वज्ञानी की परिभाषा सुख के संदर्भ में सांसारिक व्यक्ति से बिल्कुल अलग होती है।

सुख के साधनों को एकत्रित करने और सुखी होने में बहुत अंतर है। संसारी जिसे दुख मानता है, साधक या भक्त उसे अपने जीवन की परीक्षा मानता है। संसारी को दुःख कमजोर करते हैं, तो साधक उससे अपनी यात्रा के लिए सम्बल प्राप्त करता है, पुष्ट होता है। असल बात तो यह है कि हमें लगता है भक्त या साधक दुखी-परेशान है, लेकिन वास्तविकता इससे विपरीत होती है। उसकी आध्यात्मिक स्थिति पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जड़भरत और सुदामा इसके उदाहरण हैं। पालकी उठाते समय जड़भरत अपनी मस्ती में हैं और सुदामा को धन का अभाव छू तक नहीं पाता। तभी तो वह अपने सखा श्रीकृष्ण से कुछ मांगता नहीं। मांगना उसके स्वभाव में नहीं है। मांगे तो वह, जिसे किसी बात का अभाव है।

वह तो अपनी स्थिति में पूर्ण है। तो अपने मन से हमें यह धारणा निकालनी चाहिए कि भक्त और साधक कभी भी दुखी या परेशान होता है। वह तो स्वीकार करता है परमात्मा को उसकी पूर्णता में। राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है यहां यूं भी वाह-वाह है और वूं भी वाहवाह है। अब विचार करते हैं अल्पायु के बारे में। उस संदर्भ में रामकृष्ण परमहंस के जीवन की महत्वपूर्ण घटना का जिक्र करना अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। परमहंस को भूख सहन नहीं होती थी। भूख में उनका व्यवहार एक छोटे बच्चे की तरह हो जाता था। वह रसोई में घुसकर अपनी धर्मपत्नी मां शारदा से जल्दी कुछ खाने को देने का हठ करते। एक दिन शारदा से रहा नहीं गया। उन्होंने श्रीरामकृष्ण को टोक दिया।

श्रीरामकृष्ण मुस्कुराए सब सुनकर। उन्होंने मां शारदा से कहा, कि यही वासना है जिसके सहारे मैंने जिसके शरीर को धारण किया हुआ है। जिस दिन यह खत्म हो गई, उसके तीन दिन में यह शरीर छूट जाएगा। और ऐसा ही हुआ। जिस दिन भूख लगने पर, अपने समय पर रसोई में जाकर भोजन के लिए व्याकुल नहीं हुए, उसके तीन दिनों में उन्होंने अपने प्राणों का त्याग कर दिया।

जिन महापुरुषों की आयु कम होती है अर्थात् जो कम आयु में शरीर छोड़ देते हैं, उनके जीवन के अंतिम दिनों में ये लक्षण आपको स्पष्ट रूप से दिखेंगे। उनमें जीने की इच्छा नहीं रहती। असल में, उनके जन्म के पीछे एक ही वासना होती है, वे चाहते हैं कि जिस परम सुख के अनुभव से वे गुजरे हैं, वे उसे बांटे। लेकिन वो निराश हो जाते हैं, दुनिया के रवैये से। हमारे कहने और करने के बीच की दूरी उन्हें निराश कर देती है। इस तरह उनकी वह वासना समाप्त हो जाती है। जो उनके जन्म का निमित है और वे अपने पार्थिव शरीर का परित्याग कर देते हैं।

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