सुप्रभातम्: उपनिषद सीखाते हैं जीवन का सलीका

हिमशिखर धर्म डेस्क

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हम एक चंचल दुनिया का हिस्सा हैं। एक दुनिया, जो हमें सरपट भगाती रहती है। इसमें बैठने की फुर्सत कम है। बैठकर कुछ गुनने का वक्त और मौके उससे भी कम। उपनिषद, जिसके बारे में आगे चर्चा की गई है, उसका अर्थ ही है पास बैठना। पुराने जमाने में गुरु के पास बैठने से ज्ञान मिलता था। उपनिषद ज्ञान की कभी न खत्म होने वाली धारा है।

उपनिषद आध्यात्मिकता तथा दार्शनिकता से परिपूर्ण ग्रंथ हैं। ये चिंतनशील ऋषियों द्वारा वर्णित ज्ञान के भंडार हैं और भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। समस्त भारतीय दार्शनिक चिंतन का मूल उपनिषद ही हैं। उपनिषद चिंतनशील ऋषियों की ज्ञान चर्चाओं का सार हैं। मानव जीवन के उत्थान के समस्त उपाय उपनिषदों में वर्णित हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने प्रामाणिक मानकर इनका ही भाष्य किया था। कारण यह है कि उपनिषद जीवन-मूल्यों की बात प्रमुखता से करते हैं, जो हमें स्वावलंबी बनने के लिए प्रेरित करते हैं।

मानव जीवन के लिए जो कुछ भी इष्ट, कल्याणकारी, शुभ व आदर्श है, उसे जीवन मूल्य माना गया है, जिनसे मानव जीवन का संपूर्ण विकास हो। उपनिषदों के चिंतन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष -चार पुरुषार्थों में समस्त मानव जीवन मूल्य समावेशित है। हमारे ऋषियों का कहना था कि जिन उत्कृष्ट सद्गुणों से मानव जीवन सम्यक प्रकार से अलंकृत होता है, वे आचरणीय सूत्र ही मानवीय मूल्य हैं। पवित्र आचरण, श्रेष्ठ ज्ञान, सत्य, तप, दान, त्याग की भावना, लोभ से निवृत्ति, क्षमा, धैर्य, शम और दम आदि अनेक उत्तम जीवन मूल्य हैं, जो मनुष्य के जीवन को आनंदमय बनाते हैं। इशोपनिषद के प्रथम मंत्र में ऋषि त्याग के महान आदर्श को जीवन मूल्य के रूप में स्थापित करते हुए कहते हैं कि, ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृधा कस्य स्विधनम्’ अर्थात जीवन में प्राप्त समस्त भोग सामग्री को त्याग की भावना के साथ प्रयोग करो, क्योंकि समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी ईश्वर है। उसी का इस पर अधिकार है। भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा में किसी दूसरे के धन पर लोभ की दृष्टि मत रखो।

कर्मशीलता, निरंतर पुरुषार्थ से युक्त गतिमय जीवन के माध्यम से स्वावलंबन का आदर्श प्रस्तुत करते हुए इशोपनिषद में कहा गया है कि, ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:’ इस मंत्र में उत्कृष्ट जीवन मूल्य के साथ-साथ मनुष्य को स्वावलंबी बनाने का भी उपदेश प्रस्तुत किया गया है। अकर्मण्य, प्रमादी, गति रहित मनुष्य स्वावलंबन के पथ पर कदापि अग्रसर नहीं हो सकता। जो व्यक्ति निरंतर जीवन समर में अपने सांसारिक कर्मों का निरंतर संपादन करता है, वही स्वयं तथा राष्ट्र को स्वावलंबन की ओर ले जा सकता है। अपने कर्तव्यों को स्वयं निरंतरता से करने का विवेक ही स्वावलंबन है। सदैव कर्म करते हुए जीवन जीने की इच्छा आध्यात्मिक आनंद का एकमात्र मार्ग है। अपनी शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों के माध्यम से श्रेष्ठ कर्मों में निष्ठा ही आध्यात्मिक स्वावलंबन प्रदान करती है।

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उपनिषदों में कर्मकांड की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व दिया गया है। आध्यात्मिक स्वाभिमान एवं गौरव के आदर्श को केनोपनिषद के ऋषि प्रस्तुत करते हुए कहते हैैं कि, ‘प्रतिबोधविदितं मतं अमृतत्वं हि विन्दते’ अर्थात हमारी ज्ञानेंद्रियां का अंतर्मुखी तथा आत्मोमुखी होना ही प्रतिबोध है। इंद्रियों का सांसारिक विषयों की तरफ जाना बोध कहलाता है, जो कि मानव जीवन के आनंद में बाधक है। प्रतिबोध की भावना आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति करवाती है। इसी से मनुष्य का मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। उपनिषद में प्रतिबोध के इस विचार को प्रत्येक मनुष्य के आत्मिक कल्याण हेतु श्रेष्ठ मूल्य के रूप में माना गया है। कठोपनिषद में ऋषि कहते हैं कि आचरणहीन, अशांत, चंचल चित्त वृत्ति, असंयमी मनुष्य जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। सांसारिक उन्नति एवं ईश्वरीय सत्ता के आत्मसात हेतु श्रेष्ठ चरित्र, शांतचित्त, संयम, धैर्य इन स्वर्णिम जीवन मूल्यों को धारण करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इसी उपनिषद में प्रेरणात्मक शैली में उद्घोष किया गया है कि, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात उठो जागो अपनी मानसिक और आत्मिक शक्तियों के संग्रह हेतु श्रेष्ठ विद्वानों का संसर्ग करो और ब्रह्म विद्या के मार्ग का आश्रय लो। कठोपनिषद के इसी अमर वाक्य को अपने जीवन में आत्मसात करके स्वामी विवेकानंद ने संपूर्ण भारत वर्ष की सोई हुई युवा शक्ति में आध्यात्मिक स्वावलंबन एवं स्वाभिमान की भावना को जाग्रत किया था।

प्रश्नोपनिषद में ऋषि पिप्पलाद मानवीय जीवन मूल्यों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि, ‘तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया संपन्नो महिमानम् अनुभवति’ अर्थात तप ब्रह्मचर्य तथा श्रद्धा आदि सद्गुणों से संपन्न श्रेष्ठ मनुष्य ही ब्रह्म की महिमा को अनुभव करने का पात्र बनता है। तैत्तिरीय उपनिषद के ऋषि वरुण का अपने पुत्र भृगु को दिया गया उपदेश वर्तमान के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। वह कहते हैं कि, ‘अन्नं न निन्द्ययात्, अन्नं न परिचक्षीत’ अर्थात खाने के समस्त पदार्थों अन्नादि की निंदा तथा परित्याग मत करो। मनुष्य की शारीरिक पुष्टता का आधार यही भोग्यपदार्थ हैं। बड़े-बड़े समारोहों, शादियों, पार्टियों में आज वर्तमान पीढ़ी द्वारा हो रहे अन्न के निरादर को उपनिषद् के ऋषि की ऐसी पवित्र भावना को जीवन में लागू करके रोका जा सकता है। तैत्तिरीय उपनिषद के शिक्षावल्ली में वर्णित जीवन मूल्य संपूर्ण समाज को उत्कृष्ट बनाने में योगदान देते हैं। ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव’ उपनिषद के इन वाक्यों में माता-पिता, गुरु एवं अतिथि को देव तुल्य माना गया है।

उपनिषद के इन उत्कृष्ट आचरणीय मूल्यों का अनुसरण करके परिवार तथा समाज के वातावरण को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। ‘सत्यं वद, धर्मं चर। स्वाध्यायात मा प्रमद:’ जीवन में सत्य का आचरण धर्म का पालन तथा श्रेष्ठ ग्रंथों के स्वाध्याय के साथ-साथ आत्मनिरीक्षण जीवन में कभी भी नहीं त्यागना चाहिए। यह सद्गुण मनुष्य के जीवन को यशस्वी बनाते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद में प्रजापति द्वारा दमन अर्थात आत्म नियंत्रण, दान की भावना तथा दया एवं करुणा की भावना को चिरंतन मूल्य के रूप में समावेशित किया गया है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आकलन उसके जीवन मूल्यों से किया जाता है। उपनिषदों में वर्णित ये सभी चिरंतन मूल्य मानव जीवन को स्थायित्व प्रदान करके, लोक कल्याण एवं विश्व बंधुत्व की भावना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उपनिषदों के स्वर्णिम चिंतन ने पाश्चात्य जगत के बड़े-बड़े तत्वज्ञ विद्वानों को प्रभावित किया है।

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दार्शनिक ट्रेन के शब्दों में, ‘उपनिषदों का गूढ़ ज्ञान हमें एकात्मता का संदेश देता है।’ महान दार्शनिक शापेन हावर का कहना था कि, ‘मृत्यु के भय से बचने, मृत्यु की पूरी तैयारी करने, ब्रह्म को जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए उपनिषदों के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग मेरी दृष्टि में नहीं है। उपनिषदों में वर्णित स्वर्णिम जीवन मूल्यों का मैं सदैव ऋणी रहूंगा’। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि, ‘मैं जब उपनिषदों को पढ़ता हूं तो आंखों से आंसू बहने लगते हैं। ये शक्ति, पौरुष की खान हैं। इनका चिंतन जीवन में तेजस्विता का संचार करता है। उठो और इनके चिंतन मनन से अपने बंधनों को काट डालो।’ शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता और आत्मिक स्वावलंबन का उपनिषद ही मूल मंत्र है। राष्ट्रीय एवं आत्मिक अस्तित्व की अनुभूति हेतु उपनिषदों में वर्णित मानवीय मूल्यों को आत्मसात करना अतिआवश्यक है। संपूर्ण विश्व के धरातल पर उपनिषदों के स्वर्णिम सूत्रों के माध्यम से ही शाश्वत शांति एवं आनंद का संचार हो सकता है।

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