सुप्रभातम्: समय के साथ बदल रहे हैं संस्कार

प्रो. ओम प्रकाश सिंह

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मनुष्य एवं मानव समाज निरंतर परिवर्तनशील है। यदि मनुष्य और उसके समाज में विकास का तत्व समाप्त हो जाय तो वह पशु से भिन्न नहीं होगा। मनुष्य बदलता है? यह एक सच्चाई है। लेकिन बदलाव इतनी धीमी गति से होता है, जिसके कारण बदलाव की प्रत्येक कड़ी एवं चरण एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं। जैसे हम स्वयं को ही लें तो पता चलेगा कि जन्म से लेकर बचपन की अबोध अवस्था कब बीत गयी? पता ही नहीं इतना ही नहीं घर की सीमा से बाहर प्राथमिक विद्यालय में कुछ दिन बिताये और वह भी बीती बात हुई। फिर माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा को पार करते जीवन के व्यावसायिक अथवा सेवा के क्षेत्र में उतरें।

यह जीवन यात्रा एक ऐसे मनुष्य की है जो निरंतर शिक्षा तथा सेवा से जुड़ा रहा। एक समय ऐसा आया जब वह सेवा और सक्रिय कार्य एवं व्यवसाय से मुक्त होकर वृद्ध अवस्था के दिन काटने लगा। यह सब वैसे घटा जैसे एक सिनेमा में घटना कुछ घंटे में फिल्मी कहानी पूरी हो जाती है। लेकिन उक्त के विपरीत एक ऐसे मनुष्य के जीवन में भी बदलाव आता है भले ही वह शिक्षा न ही ग्रहण किया हो अथवा बीच में ही विद्यालय को अलविदा कह दिया हो। अथवा ऐसे भी व्यक्ति के जीवन में भी बदलाव आता है, जो सेवा अथवा व्यवसाय में नहीं है। पर बदलाव तो सभी में आता है। इसी बदलाव का नाम है जीवन की अवस्था। इसी को बचपन, युवा, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थाओं का नाम देते हैं। यह सिर्फ हमारे देश में ही नहीं दुनिया के मनुष्यों में यह परिवर्तन होता है। दुनिया के मनुष्यों में परिवर्तन की समय- दशा तो समान ही रहती है। क्योंकि दुनिया के प्रत्येक समाज में 05 वर्ष की उम्र के मनुष्य को बालक, 20-22 वर्ष के मनुष्य को युवा तथा 60-70 वर्ष के व्यक्ति को वृद्ध ही कहा जाता है। यही सार्वभौम सत्य है। लेकिन इस सार्वभौम सच के बीच उस आधार पर विचार करना होगा, जिसके कारण परिवार, समाज और राष्ट्र इस बदलाव के साथ-साथ अलग-अलग रूपों में दिखाई पड़ते हैं। इसी आधार का नाम है संस्कार।

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अब इसी संस्कार पर हमें विचार करना होगा। सामान्य रूप में संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति से जोड़ा जाता है। लेकिन संस्कार का सम्बन्ध सिर्फ व्यक्ति से ही नहीं है, वरन् परिवार, समाज और से राष्ट्र सभी से जुड़ा है। क्योंकि व्यक्ति, तो आता जाता है, लेकिन संस्कार की अविरल धारा परिवार, समाज और राष्ट्र में चलती ही रहती है। हां इतना जरूर है कि संस्कार का वाहक मनुष्य ही है। क्योंकि इसी मनुष्य या जो व्यक्ति से मिलकर परिवार, समाज और राष्ट्र बनता है। और संस्कार भी इसी मनुष्य अथवा व्यक्ति के माध्यम से यात्रा करता है। यह सच है। जैसे मनुष्य स्नान के बाद तरोताजा हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संस्कार के बाद मनुष्य तथा मनुष्य के माध्यम से समाज भी तरोताजा होता है। जिस प्रकार मनुष्य को कुछ अवधि के बाद स्नान की जरूरत होती है, लेकिन एक बार स्नान से काम नहीं चलता वरन् बार-बार स्नान जरूरी होता है। ठंडा मौसम है तो एक दिन बाद स्नान की जरूरत पड़ेगी। लेकिन गर्मी में तो स्नान भी आवश्यकता कुछ घंटों के बाद ही होती है। यहीं भूमिका मनुष्य के जीवन में संस्कारों की हैं। हिन्दू सनातन परम्परा में मुख्यतः सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है। इन संस्कारों की परम्परा जन्म से मृत्यु पर्यन्त जीवन में चलती रहती है। 16 संस्कारों की व्यवस्था हिन्दू / सनातन समाज का भाग हैं। इन संस्कारों को हम जीवन का भाग मानते हैं। संस्कारों का प्रभाव कहां पड़ता है? यह मुख्य समस्या अथवा विचार बिन्दु है। संस्कारों का प्रभाव व्यक्ति के शरीर की अपेक्षा मन पर पड़ता है। इसी कारण संस्कार का कार्य मुख्यतः चित्त का परिष्कार अथवा चित्त की शुद्धि से जुड़ा है। उसी रूप में उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता के है। इस प्रकार संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं चित्त से है।

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समाजों में संस्कार : अब एक प्रश्न यह भी उठता है कि जिन समाजों में संस्कार निश्चित नहीं हैं, वहां चित्त का परिष्कार किस प्रकार होता है? इस प्रश्न का उत्तर सहज एवं स्वाभाविक है। जैसे संस्थागत अथवा नियमित श्रेणी का विद्यार्थी और प्रतिदिन कक्षा में अधययन करे परीक्षा में सफल तो होता है। किन्तु उसी कक्षा में प्राइवेट अथवा व्यक्तिगत रूप से परीक्षा देने वाला विद्यार्थी भी ही परीक्षा उत्तीर्ण करता है। दोनों को एक ही उपाधि का मिलती है। अपने परिश्रम के बल पर परीक्षा पास करने वाले को श्रेष्ठ होना चाहिए क्योंकि बिना कक्षा के परीक्षा पास किया, लेकिन ऐसा नहीं होता। क्योंकि कक्षा में पढ़ाई करने वाले ने व्यवस्थित पढ़ाई की, साथ ही अपने परिश्रम के साथ-साथ डे, शिक्षक का बोध एवं संस्कार प्राप्त किया। इसी कारण प्राइवेट विद्यार्थी से संस्थागत विद्यार्थी श्रेष्ठ हो गया। ठीक उसी प्रकार जिस समाज में निश्चित संस्कार नहीं है। यहां समाज की रूढ़ियां एवं परम्पराएं संस्कार के रूप में रहती हैं। दुनिया के प्रत्येक समाज में जन्म, विवाह एवं मृत्यु के समय उत्सव या समारोह की परम्परा है। इन में से सनातन हिन्दू समाज जीवन के प्रमुख पड़ावों अथवा चरणों पर उत्सव के साथ-साथ पूजा-उपासना आदि को अपनाने के कारण संस्कारों की भूमिका विशेष हो जाती है। इस प्रकार संस्कार जीवन का एक भाग है। संस्कारों का प्रभाव मनुष्य के अलावा पशुओं पर भी पड़ता है। अच्छे संस्कार के कारण तोता भी राम-राम बोलता है। हां यह ठीक है कि पशुओं पर संस्कार अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहते। संस्कार और समाज के सम्बन्ध में चित्त की भूमिका महत्वपूर्ण है।

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