भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया। पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब सती ने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए देवी सती ने वहीं प्राणांत कर दिए। महादेव को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक विनाशकारी गण उत्पन्न किया। वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया। बाद में भगवान ब्रह्मा के अनुरोध पर भगवान शिव ने दक्ष को उनके शीश के स्थान पर बकरे का शीश लगाकर जीवित किया।
हिमशिखर धर्म डेस्क
महादेवजी ने जब देवर्षि नारद के मुख से सुना कि अपने पिता दक्ष से अपमानित होने के कारण देवी सती ने प्राण त्याग दिये हैं, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ। उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोध के मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली—जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी—और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहास के साथ उसे पृथ्वीपर पटक दिया। उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्ग को स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघ के समान श्यामवर्ण था, सूर्य के समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्रिकी ज्वालाओंके समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र थे । जब उसने हाथ जोडक़र पूछा, ‘भगवन् ! मैं क्या करूँ ?’ तो भगवान् भूतनाथने कहा—‘वीर रुद्र ! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदों का अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट कर दे’।
जब देवाधिदेव भगवान् शङ्कर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करने वाला संसार में कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ। वे भयङ्कर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसार संहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान् रुद्र के और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये।
उस समय वीरभद्र के पैरों के नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे। इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियों ने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे—‘अरे, यह अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है ? यह धूल कहाँसे छा गयी ? इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियों को कठोर दण्ड देने वाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओं के आने का समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँ से आयी ? क्या इसी समय संसार का प्रलय तो नहीं होने वाला है?’ तब दक्ष पत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियों ने व्याकुल होकर कहा—प्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने बेचारी निरपराधा सती का तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पाप का फल है। अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्र के अनादर का ही परिणाम है।
प्रलयकाल उपस्थित होने पर जिस समय वे अपने जटाजूट को बिखेर कर तथा शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित अपनी भुजाओं को ध्वजाओं के समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूल के फलों से दिग्गज बंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयङ्कर अट्टहास से दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं । उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान् शङ्कर को बार-बार कुपित करने वाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो—क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है ? जो लोग महात्मा दक्ष के यज्ञ में बैठे थे, वे भय के कारण एक-दूसरेकी ओर कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरहकी बातें कर रहे थे कि इतने में ही आकाश और पृथ्वी में सब ओर सहस्रों भयङ्कर उत्पात होने लगे। विदुरजी ! इसी समय दौडक़र आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डप को सब ओरसे घेर लिया। वे सब तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंग के, कोई पीले और कोई मगर के समान पेट और मुख वाले थे।
उनमें से किन्ही ने यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिम के खंभों के बीच में आड़े रखे हुए डंडे को तोड़ डाला, किन्हीं ने यज्ञशालाके पश्चिमकी ओर स्थित पत्नीशाला को नष्ट कर दिया, किन्हीं ने यज्ञशाला के सामने का सभामण्डप और मण्डप के आगे उत्तर की ओर स्थित आग्रीध्रशाला को तोड़ दिया, किन्हींने यजमानगृह और पाकशाला को तहस-नहस कर डाला । किन्हीं ने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्हींने अग्रियों को बुझा दिया, किन्हीं ने यज्ञकुण्डों में गंदगी फेंक दी और किन्हींने वेदी की सीमा के सूत्रों को तोड़ डाला। कोई-कोई मुनियों को तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्हीं ने अपने पास होकर भागते हुए देवताओं को पकड़ लिया। मणिमान् ने ऋषि को बाँध लिया, वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को कैद कर लिया तथा चण्डीश ने पूषा को और नन्दीश्वर ने भग देवता को पकड़ लिया ।
भगवान् शङ्कर के पार्षदों की यह भयङ्कर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरों की मार से बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज्, सदस्य और देवता लोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये। जो हाथमें स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियों की सभामें मूँछें ऐंठते हुए महादेवजीका उपहास किया था। उन्होंने क्रोध में भरकर भगदेवता को पृथ्वी पर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभामें श्रीमहादेवजी को बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्ष को सैन देकर उकसाया था। इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धके विवाहके समय बलरामजीने कलिङ्गराजके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषा के दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने महादेवजी को गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे।
फिर वे दक्ष की छातीपर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उस समय उसे धड़से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से दक्ष की त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देर तक विचार करते रहे। तब उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्म की प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे और दक्ष के दलवालों में हाहाकार मच गया। वीरभद्र ने अत्यन्त कुपित होकर दक्ष के सिर को यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशाला में आग लगाकर यज्ञ को विध्वंस करके वे कैलास पर्वतको लौट गये।