सुप्रभातम्: विदुरजी ने धृतराष्ट्र को दिया नीति का उपदेश

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

वैशम्पायनजी कहते हैं– ‘महाभारत में महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र ने द्वारपाल से कहा–‘मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ।’

धृतराष्ट्र का भेजा हुआ वह दूत जाकर विदुर से बोला–‘महामते ! हमारे स्वामी महाराज धृतराष्ट्र आपसे मिलना चाहते हैं।’ उसके ऐसा कहने पर विदुरजी राजमहल के पास जाकर बोले–‘द्वारपाल ! धृतराष्ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो।’

द्वारपाल ने जाकर कहा–‘महाराज ! आपकी आज्ञा से विदुरजी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्हें क्या कार्य बताया जाय ?’ धृतराष्ट्र ने कहा–‘महाबुद्धिमान् दूरदर्शी विदुर को यहाँ ले आओ, मुझे इस विदुर से मिलने में कभी भी अड़चन नहीं है।’

द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला–‘विदुरजी ! आप बुद्धिमान् महाराज धृतराष्ट्र के अन्तःपुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि ‘मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है’॥१–६॥

वैशम्पायनजी कहते हैं–‘तदनन्तर विदुर धृतराष्ट्र के महल के भीतर जाकर विचार में पड़े हुए राजा से हाथ जोड़कर बोले–‘महाप्राज्ञ ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। यदि मेरे करने योग्य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये॥७–८॥

धृतराष्ट्र ने कहा–‘विदुर ! संजय आया था, मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनावेगा। आज मैं उस कुरुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका–यही मेरे अंगों को जला रहा है और इसी ने मुझे अब तक जगा रखा है।

तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभी तक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्याण की बात समझो, वह कहो; क्योंकि तुम धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। संजय जबसे पाण्डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तब से मेरे मन को पूर्ण शान्ति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियाँ विकल हो रही हैं। कल वह क्या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय बड़ी भारी चिन्ता हो रही है’॥९–१२॥

विदुरजी बोले–‘जिसका बलवान् के साथ विरोध हो गया है उस साधनहीन दुर्बल मनुष्य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है उसको, कामी को तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है। नरेन्द्र ! कहीं आपका भी इन महान् दोषों से सम्पर्क तो नहीं हो गया है ? कहीं पराये धन के लोभसे तो आप कष्ट नहीं पा रहे हैं ?’॥१३–१४॥

धृतराष्ट्र ने कहा–‘मैं तुम्हारे धर्मयुक्त तथा कल्याण करने वाले सुन्दर वचन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्हीं विद्वानों के भी माननीय हो’॥१५॥

विदुरजी बोले–‘महाराज धृतराष्ट्र ! श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्हें वन में भेज दिया। आप धर्मात्मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों से अन्धे होने के कारण उन्हें पहचान न सके, इसी से उनके विपरीत हो गये और उन्हें राज्य का भाग देने में आपकी सम्मति नहीं हुई। युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम है; वे आपमें पूज्यबुद्धि रखते हैं। इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत-से क्लेश सह रहे हैं। आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दुःशासन-जैसे अयोग्य व्यक्तियों पर राज्य का भार रखकर कैसे ऐश्वर्यवृद्धि चाहते हैं ? अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, उद्योग, दुःख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता–ये गुण जिस मनुष्य को पुरुषार्थ से च्युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है।
जो अच्छे कर्मों का सेवन करता और बुरे कामों से दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके ये सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं। क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, उद्दण्डता तथा अपने को पूज्य समझना–ये भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है।

दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा होने पर ही जानते हैं, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी गर्मी, भय-अनुराग, सम्पत्ति अथवा दरिद्रता–ये जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है।

जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धिवाले पुरुष शक्ति के अनुसार काम करने की इच्छा रखते हैं और करते भी हैं, तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते।
किसी विषय को देर तक सुनता है किन्तु शीघ्र ही समझ लेना, समझकर कर्तव्य-बुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्त होना–कामना से नहीं, बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात नहीं कहना–यह पण्डित का मुख्य लक्षण है।

पण्डितों की सी बुद्धि रखने वाले मनुष्य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं। जो पहले निश्चय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है।

भरतकुलभूषण ! पण्डितजन श्रेष्ठ कर्मों में रुचि रखते हैं, उन्नति के कार्य करते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गंगाजी के कुण्ड के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वह पण्डित कहलाता है।

जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थों की असलियत का ज्ञान रखने वाला, सब कार्यों के करने का ढंग जानने वाला तथा मनुष्यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्य पण्डित कहलाता है।
जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढंग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, वह पण्डित कहलाता है।

जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का, तथा जो शिष्ट पुरुषों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही ‘पण्डित’ की पदवी पा सकता है। बिना पढ़े ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनसूबे बाँधने वाले और बिना काम किये ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को पण्डित लोग मूर्ख कहते हैं। जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है, तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है।

जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है, तथा जो अपने से बलवान् के साथ वैर बाँधता है, उसे ‘मूढ विचार का मनुष्य’ कहते हैं। जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है, तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे ‘मूढ चित्तवाला’ कहते हैं।

भरतश्रेष्ठ ! जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र सन्देह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ है। जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र नहीं मिलता, उसे ‘मूढ चित्त वाला’ कहते हैं।

मूढ चित्त वाला अधम मनुष्य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है, तथा अविश्वसनीय मनुष्यों पर भी विश्वास करता है। अपना व्यवहार दोषयुक्त होते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्य महामूर्ख है।

जो अपने बल को न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में ‘मूढबुद्धि’ कहलाता है। राजन् ! जो अनधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ चित्तवाला कहते हैं। जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर इठलाता नहीं, वह पण्डित कहलाता है।

जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बाँटे बिना अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा ? मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उससे मौज उड़ाते हैं। मौज उड़ाने वाले तो छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता ही दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है एक को भी मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान् द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा समेत सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है।

एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य-अकर्तव्य) का निश्चय करके चार (साम, दान, भेद, दण्ड )–से तीन (शत्रु, मित्र तथा उदासीन) को वश में कीजिये। पाँच (इन्द्रियों) को जीतकर छः (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्ड की कठोरता और अन्याय से धन का उपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये।

विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है, किन्तु मन्त्र का फूटना राष्ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषय का निश्चय न करे, अकेला रास्ता न चले और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे॥ १६-५१॥

राजन् ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किन्तु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किन्तु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है।

क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है। इस जगत् में क्षमा वशीकरणरूप है। भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता ? जिसके हाथ में शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेंगे ? तृण रहित स्थान में गिरी हुई आग अपने आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है।

एक विद्या ही परम सन्तोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। बिल में रहने वाले मेढक आदि जीवों को जैसे साँप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण–इन दोनों को खा जाती है।

जरा भी कठोर न बोलना और दुष्ट पुरुषों का आदर न करना इन दो कर्मों को करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियाँ तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरुष–ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले होते हैं।
जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है–ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले काँटों के समान हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते–अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपंच में लगा हुआ संन्यासी।

राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं–शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला। न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने चाहिये–अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना।

जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न कर सके–इन दो प्रकार के मनुष्यों को गले में पत्थर बाँधकर पानी में डुबा देना चाहिये। पुरुषश्रेष्ठ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं-योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में लोहा लेते हुए मारा गया योद्धा। भरतश्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्यसिद्धि के लिये उत्तम, मध्यम और अधम–ये तीन प्रकार के उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान् जानते हैं।

राजन् ! उत्तम, मध्यम और अध–ये तीन प्रकार के पुरुष होते हैं; इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिये। राजन् ! तीन ही धन के अधिकारी नहीं माने जाते–स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसी का होता है जिसके अधीन ये रहते हैं।

दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग–ये तीनों ही दोष नाश करने वाले होते हैं। काम, क्रोध और लोभ–ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं; अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिये। भारत! वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और पुत्र का जन्म–ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्ट से छूटना–यह एक तरफ; वे तीन और यह एक बराबर ही हैं।

भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले–इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये। थोड़ी बुद्धि वाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करने वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। ये चारों महाबली राजा के लिये त्यागने-योग्य बताये गये हैं; विद्वान् पुरुष ऐसे लोगों को पहचान लें।

तात ! गृहस्थधर्म में स्थित लक्ष्मीवान् आपके घर में चार प्रकार के मनुष्यों को सदा रहना चाहिये–अपने कुटुम्ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्चकुल का मनुष्य, धनहीन मित्र और बिना सन्तान की बहिन।

महाराज ! इन्द्र के पूछने पर उनसे बृहस्पतिजी ने जिन चारों को तत्काल फल देने वाला बताया था, उन्हें आप मुझसे सुनिये–देवताओं का संकल्प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता और पापियों का विनाश।

चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किन्तु वे ही यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं–आदर के साथ अग्निहोत्र, आदर पूर्वक मौन का पालन, आदर पूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान।

भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता, अग्नि, आत्मा और गुरु–मनुष्य को इन पाँच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिये। देवता, पितर, मनुष्य, संन्यासी और अतिथि–इन पाँचों की पूजा करने वाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है।

राजन्! आप जहाँ-जहाँ जायँगे वहाँ-वहाँ मित्र, शत्रु, उदासीन, आश्रय देने वाले तथा आश्रय पाने वाले–ये पाँच आपके पीछे लगे रहेंगे। पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरुष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष)–युक्त हो जाय तो उससे उसकी बुद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी॥५२–८२॥

उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (ऊँघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर लगाने की आदत )–इन छः दुर्गुणों को त्याग देना चाहिये।उपदेश न देने वाले आचार्य, मन्त्रोच्चारण न करने वाले होता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कटु वचन बोलने वाली स्त्री, ग्राम में रहने की इच्छा वाले ग्वाले तथा वन में रहने की इच्छा वाले नाई–इन छः को उसी भाँति छोड़ दें, जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्य फटी हुई नाव का परित्याग कर देता है।

मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य–इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिये। धन की आय, नित्य नीरोग रहना, स्त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अन्दर रहना तथा धन पैदा करने वाली विद्या का ज्ञान-ये छः बातें इस मनुष्यलोक में सुखदायिनी होती हैं।

मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु–काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता; फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की तो बात ही क्या है। निम्नांकित छः प्रकार के मनुष्य छः प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती। चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, मतवाली स्त्रियाँ कामियों से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़ने वालों से तथा विद्वान् पुरुष मूर्खो से अपनी जीविका चलाते हैं। क्षण भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री, विद्या तथा शूद्रों से मेल–ये छः चीजें नष्ट हो जाती हैं।

ये छ: सदा अपने पूर्व उपकारी का अनादर करते हैं–शिक्षा समाप्त हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, कामवासना की शान्ति हो जाने पर मनुष्य स्त्री का, कृतकार्य पुरुष सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटने के बाद वैद्य का तिरस्कार कर देते हैं।

नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना–राजन् ! ये छः मनुष्यलोक के सुख हैं। ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असन्तोषी, क्रोधी, सदा शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्य पर जीवन निर्वाह करने वाला–ये छ: सदा दुःखी रहते हैं।

स्त्रीविषयक आसक्ति, जूआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धन का दुरुपयोग करना–ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिये। इनसे दृढमूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं॥८३–९७॥

विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्य के आठ पूर्वचिह्न हैं–प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोध का पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निन्दा में आनन्द मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्मरण नहीं करता तथा कुछ माँगने पर उनमें दोष निकालने लगता है। इन सब दोषोंको बुद्धिमान् मनुष्य समझे और समझकर त्याग दे। भारत! मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जनसमाज में सम्मान–ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं।

बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रिय-निग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता–ये आठ गुण पुरुष की ख्याति बढ़ा देते हैं। जो विद्वान् पुरुष (आँख, कान आदि) नौ दरवाजे वाले, तीन (वात, पित्त तथा कफरूपी) खंभों वाले, पाँच (ज्ञानेन्द्रियरूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीररूपी गृह को जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है॥९८–१०५॥

महाराज धृतराष्ट्र! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी–ये दस हैं। अतः इन सब लोगों में विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे। इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लाद ने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था। नीतिज्ञ लोग उस पुराने इतिहास का उदाहरण देते हैं। जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है, और सुपात्र को धन देता है, विशेषज्ञ है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा करने वाला है, उसे सब लोग प्रमाण मानते हैं। जो मनुष्यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है उन्हीं को दण्ड देता है, जो दण्ड देने की न्यूनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजा की सेवा में सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है।

जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रु के साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसन्द नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है। जो धुरन्धर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुःखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है, तथा समय पर दुःख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं।

जो निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछनेपर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पसन्द करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, दुर्बल होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्य सब जगह प्रशंसा पाता है।

जो कभी उद्दण्ड का सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की भी डींग नहीं हाँकता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटु वचन नहीं बोलता, उस मनुष्य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्तिमें पड़ा हूँ’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरुष को आर्यजन सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।

जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दुःख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्य देश के व्यवहार, लोकाचार तथा जातियों के धर्मों को जानने की इच्छा करता है, उसे उत्तम अधम का विवेक हो जाता है। वह जहाँ जाता है, वहीं महान् जनसमूह पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूहसे वैर, मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्ठ है। जो दान, होम, देवपूजन, मांगलिक कर्म, प्रायश्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार–इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं।

जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ नहीं और गुणों में बढ़े-चढ़े पुरुषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान्‌ की नीति श्रेष्ठ है। जो अपने आश्रित जनों को बाँटकर थोड़ा ही भोजन करता है, जो बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा माँगने पर जो मित्र नहीं हैं उन्हें भी धन देता है, उस मनस्वी पुरुष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसके अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभीष्ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोड़ा भी काम बिगड़ने नहीं पाता।

जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्ठ रत्न की भाँति अपनी जाति वालों में अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होने के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन ! शाप से दग्ध राजा पाण्डु के जो पाँच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पाँच इन्द्र के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आप ही ने बचपन से पाला और शिक्षा दी है; वे भी सदा आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्द भोगिये। नरेन्द्र! ऐसा करने पर आप देवता तथा मनुष्यों की टीका-टिप्पणी के विषय नहीं रह जायँगे॥१०६–१२८॥

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