“ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे।।”
दुर्गा सप्तशती में मार्कण्डेय जी कहते हैं कि विशुद्ध ज्ञान ही जिनका स्वरूप है, तीनों वेद ही जिनके तीन दिव्य नेत्र हैं, जो कल्याण प्राप्ति के हेतु हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचंद्र का मुकुट धारण करते हैं, उन भगवान शिव को नमस्कार है।
इस संसार में विष का रूप भी है, जो छल, झूठ, कपट, हिंसा और व्यभिचार जैसी समस्यारूपी विष की बूंदों से भरा पड़ा है… अधिकांश मानव चाहे-अनचाहे इसका पान करते ही हैं और इनमें उलझ कर वह उत्साह, उमंग व जीवन का अर्थ भूलकर अपने जीवन के लक्ष्य से भटक जाते हैं… ऐसे में संसार में मानव को इन दुःखों से निजात दिला सकता है तो वह केवल दैविक तत्व ही है, जो मनुष्य को अध्यात्म मार्ग की ओर पथ प्रशस्त करता है। अध्यात्म तत्व की प्राप्ति के लिए भी अनेक मार्ग हैं। महादेव की उपासना वह साधन है जिनकी कृपा से मानव का कल्याण हो सकता है।
कहते हैं कण-कण में हैं शिव! कंकर-कंकर में हैं भगवान शंकर। वेदों ने उनको सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार का कहा है। भगवान सदाशिव के स्वरूप को महिमा के शब्दों में व्यक्त करना असंभव ही है। सदाशिव देवों के देव हैं इसलिए वे महादेव कहलाते हैं। वे अपनी इच्छानुसार मानव को जन्म देते हैं और उस जन्म को मृत्यु के रूप में वापस भी ले लेते हैं। इस प्रकार भगवान शिव ही जनक, संहारक और पुनः सर्जक हैं। इस मनुष्य जीवन को आनंद युक्त जीकर परमात्मा में सु विलीन होने की कामना सभी में रहती है। इसीलिए भगवान शिव से प्रार्थना करते हुए कहा गया है-
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
इसका अर्थ यह है कि मैं अपने जीवन में सुगंध युक्त, पुष्टिवर्द्धक होता हुआ जीवन में पूर्ण आयु प्राप्त कर उसी प्रकार अलग हो जाऊं, जिस प्रकार एक पका हुआ फल पेड़ से अलग हो जाता है और भूमि को नए बीजों को प्रदान करता है।
शिव का अर्थ कल्याण है। शं आनंद का बोध है, कर करने वाले के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् जो प्राणी को आनंद देने वाला है अथवा उसका आनंद स्वरूप है, वही शंकर है। शिव भोग और मोक्ष दोनों के ही प्रदाता हैं। कल्णकारी शिव प्रलय एवं संहार के भी देवता माने जाते हैं। सृष्टि और प्रलय, ये दो अवश्यम्भावी तत्व है।
परम पुरुष शिव और उनकी शक्ति के सम्मिलन से जो स्पंदन उत्पन्न हुआ, वही सृष्टि की उत्पति का कारण बना। इसी को शिव का तांडव नृत्य कहते हैं। रसायन-विज्ञान का सिद्धांत है कि इलेक्ट्रॉन जो पुरुष के समान आधेय है, उनका प्रोटॉन, जो प्रकृति के समान आधेय है, के साथ संघर्ष होने से जो स्पंदन उत्पन्न होता है, उसी के द्वारा अणुओं की उत्पत्ति होती है और उन अणुओं से आकार बनते हैं। जब सदाशिव आनंदोन्मत्त होकर अर्थात् मां आनंदमयी से युक्त होकर नृत्य करते हैं तो उस महानृत्य के परिणाम से सृष्टि के पदार्थों की उत्पति होती है।
शिव ओडरदानी हैं, जो क्षण में ही पसीज कर भक्तों को अभय प्रदान करते हैं। भगवान शंकर आशुतोष हैं, जो भवतों की जैसी इच्छा होती है, उसी के अनुसार उनकी इच्छा पूर्ण तुरंत पूरी भी कर देते हैं।
नो शक्यभुग्रतपसापि युगान्तरेण,
प्राप्तुं यदन्यसुरपुंगवतस्तदेव।
भक्त्या सकृत्प्रणमनेन सदा ददाति,
यो नौमि नम्रशिरसा च तमाशुतोषम् ।।
अर्थात् हे शम्भो ! जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त तपस्या व साधना करने पर भी जो फल प्राप्ति अन्य सुरपुंगवों से नहीं हो सकती है, उससे भी कहीं ज्यादा फल प्राप्ति आपका नाम स्मरण कर प्रणाम करने मात्र से प्राप्त हो जाती है। मैं आपके सामने नम्र भाव से नमन करता हुआ, आपकी भक्ति की कामना करता हूं, आप मुझ पर प्रसन्न हों, क्योंकि एकमात्र आप ही ‘आशुतोष’ हैं।
भगवान शिव को जानें बिना उनकी भक्ति के कोई मायने नहीं है। शिव को जानने के लिए प्रकृति को समझना भी आवश्यक है। शिव शांत हैं और रुद्र भी। उनकी जटाओं में गंगा पावनता की ओर संकेत करती है। उनके सिर पर स्थित चंद्रमा अमृत का द्योतक है।
गले में लिपटा सर्प काल का प्रतीक है। इस सर्प अर्थात काल को वश में करने से ही शिव “मृत्युञ्जय” कहलाये। त्रिपुण्ड, योग की तीन नाड़ियों-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की द्योतक है तो ललाट मध्य स्थित तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का द्योतक होने के साथ ही भविष्य दर्शन का भी प्रतीक है। उनके हाथों में स्थित त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों-दैहिक, दैविक और भौतिक के विनाश का सूचक है। उनके वाहन नंदी धर्म के प्रतीक हैं, जिस पर आरूढ़ रहने के कारण ही वे धर्मेश्वर कहलाते हैं। हाथों में डमरू उस ब्रह्म निनाद का सूचक है जिससे समस्त वाड्मय निकला है। कमण्डल, संपूर्ण जगत के एकीकृत रूप का द्योतक है। वहीं व्याघ्रचर्म मन की चंचलता के दमन का सूचक है। जीवन की इतिश्री का नाम ही श्मशान है। यहां न जन्म है और न मृत्यु । भस्म का अर्थ जीवन के सत्य को समझ लेना है। इसीलिए शिव अपने शरीर पर भस्मीभूत लगाते हैं।
समुद्रमंथन से निकलने वाले कालकूट विष का भगवान शंकर ने पान किया और अमृत देवताओं को दिया । श्रेष्ठ व्यक्तित्व और समाज एवं कुटुम्ब के स्वामी का यही कर्त्तव्य है। उत्तम वस्तु समाज के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिए और अपने लिए परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरह की कठिनाईयों को ही रखना चाहिए।
अमृतपान के लिए सभी उत्सुक होते हैं, किंतु विष पान के लिए शिव ही हैं। शिव जी का कुटुम्ब भी बड़ा विचित्र है। कुबेर के अधिपति तथा अन्नपूर्णा का भण्डार सदा भरा। कार्तिकेय सदा युद्ध के लिए उद्यत, पर गणपति स्वभाव से शांतिप्रिय। फिर कार्त्तिकेय का वाहन मयूर, गणपति का मूषक, पार्वती का सिंह और स्वयं नंदी और उस पर आभूषण सर्पों के सभी एक-दूसरे के शत्रु, पर गृहपति की छत्रछाया में सभी सुख शांति से रहते हैं।
मनुष्य भी अपने जीवन में अनेकानेक बंधनों से जकड़ा हुआ है। सफलता-असफलता, दुःख, रोग और गरीबी के जहर उसे मिलते रहते हैं। लेकिन सामान्य मनुष्य इन स्थितियों से घबरा जाता है और परेशान हो जाता है। जबकि भगवान शिव यह दर्शाते हैं कि अरे! गृहस्थ जीवन में तो यह परेशानियां आती ही रहेंगी, लेकिन जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे इनसे विचलित नहीं होते और जीवन में आगे बढ़ते रहते हैं। अंत में सार तत्त्व यह है कि मनुष्य को अपने हर काम को नैवेद्य की तरह अर्पण करते हुए करना चाहिए। ऐसे में वह बुरे कामों से बचकर अच्छे कर्म कर सकता है।
तव तत्वं न जानामि, कीदृशोऽसि महेश्वरः ।
यादृशोऽसि महादेवः तादृशाय नमो नमः ।।
अर्थात् मैं तुम्हारे तत्व को नहीं जानता, किस प्रकार सोलह उपचार से तुम्हारी पूजा करूं, जिस प्रकार भी सोलह उपचार पूजन हो, वही स्वीकार करो भगवान।