मौत जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, जिसे आज तक दुनिया की कोई भी शक्ति झुठला नहीं सकी। सत्य काे अंत में स्वीकारना ही पड़ता हैं। सत्य कुछ समय के लिए परेशान हो सकता हैं किंतु सत्य को पराजित नहीं किया जा सकता है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
जो पुरूष सर्वथा मरणासन्न है। जिसकी मृत्यु सन्निकट है उसको अपनी मुक्ति का क्या उपाय करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये आचार्य शुकदेव जी ने कहा – मनुष्य जन्म का इतना लाभ है कि चाहे जैसे हो ज्ञान से, भक्ति से अथवा धर्मनिष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाये कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे। प्रत्येक प्राणी का एक न एक न एक दिन अंतिम समय आना ही है। जो उत्पन्न हुआ है उसकी मृत्यु सुनिश्चि है, इसलिये समय रहते हुये हमें वहां जाने की तैयारी कर लेनी चाहिये। अंतकाल की तैयारी बहुत कम लोग ही करते हैं। इस विषय में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बताये रास्ते पर चलना चाहिये। भगवान ने गीता के (8/5) में कहा है कि जो मनुष्य अंतकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।। गीता
यानी-जो पुरुष अन्तकाल में–मरणकालमें मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर, छोड़कर जाता है वह मेरे भाव को अर्थात् विष्णुके परम तत्त्वको प्राप्त होता है। इस विषय में प्राप्त होता है या नहीं ऐसा कोई संशय नहीं है।
मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराये नहीं, परंतु वह घबरा जाता है। मृत्यु का नाम सुनकर भयभीत हो उठता है। मरना नहीं चाहता। महाभारत में एक प्रसंग है यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा- इस संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर ने कहा प्रतिदिन मनुष्य मृत्यु लोक में जा रहे है किन्तु जो बचे है वह चाहते हैं कि वे सदा जीवित रहें।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥ ( महा० वन० ३१३ । ११६)
मनुष्य को चाहिये कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे सम्बंध रखने वाले के प्रति ममता को छोड़ दे। विषय वासना से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसी विशय का चिंतन नहीं हो। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि घर परिवार तथा नाते रिश्तेदारों को अन्तकाल में याद न करके केवल मुझे ही याद करो। मेरा स्मरण ध्यान चिंतन करो। जिससे तुम मुझे मिल जाओगे। भगवान गीता के (8/7) में कहते हैं कि तू मुझे अर्पण किये हुये मन बुद्धि से युक्त होकर निसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा। भगवान कहते हैं कि सब समय तू मुझको ही याद कर। क्योंकि इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।।
यानी- इस प्रकार अन्तकालकी भावना ही अन्य शरीरकी प्राप्तिका कारण है –, इसलिये तू हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेवमें जिसके मनबुद्धि अर्पित हैं ऐसा तू मुझमें अर्पित किये हुए मनबुद्धिवाला होकर मुझको ही अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरूपको ही प्राप्त हो जायगा इसमें संशय नहीं है।
ऐसा देखा गया है कि मनुष्य अन्तकाल में इतना थक जाता है इतना बेसुध हो जाता है कि उसे ध्यान ही नहीं रहता कि मैं कहां हूं और क्या कर रहा हूं ? वात, पित्त, कफ से वह शिथिल हो जाता है। वह अचेत अवस्था में हो जाता है। यहां तक कि कुछ कहना चाहता है पर हाथ भी नहीं उठा पाता। ऐसी गंभीर अचेतनावस्था में वह मन वचन कर्म से भगवान का स्मरण, ध्यान, चिंतन नहीं कर सकता। यदि व्यक्ति ने जीवन भर नाम, जप का अभ्यास बनाया है किन्तु यदि कदाचित वह वात, पित्त, कफ के कारण अन्त में भगवान का नाम नहीं ले सके तो उस भक्त के बदले मैं श्रीकृष्ण स्वंय नाम लूंगा। केवल नाम ही नहीं लूंगा, उसको परम गति भी दे दूंगा। यह भगवान का आश्वासन है।
भगवान भक्त की पालना ऐसे करते है जैसे एक अबोध शिशु की पालना उसकी मां करती है।
यह नियम है कि मनुष्य सदा जिसका चिंतन करता है तो अंतकाल में भी उसी का चिंतन होता है और अंतकाल में जिस वस्तु का चिंतन करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उसको प्राप्त होता है गीता (8/6) । इसलिये सदा जीवन में भगवान का स्मरण करते रहना चाहिये। इससे मृत्यु के समय भी भगवान का स्मरण होता रहेगा और भगवान की ही प्राप्ति होगी। इसमें कोई संशय नही है।
मृत्यु के अवसर पर मरणासन्न व्यक्ति के आत्मीय जनों को चाहिये कि वे मुमूर्शु प्राणी से प्रयत्नपूर्वक ओउम्, राम कृष्ण, शिव नारायण आदि भगवन्नामों का उच्चारण करा दें। यदि मुमूर्शु बोलने की स्थिति में न हो तो परिजनों को उच्च स्वर से भगवन्नाम का संकीर्तन करना चाहिये। जिससे मरणासन्न व्यक्ति के कानों में भगवन्नाम जा सके। मनुश्य द्वारा संचित धन, भूमि, हाथी, घौड़े, उसके प्रियजन इसी लोक तक उसके साथ रहते हैं। केवल धर्म ही उसके साथ जाता है।
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्या गृहद्वारे जनः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः॥
यानी- सारा गुप्त धन भूमि में ही रह जाएगा। पशु धन बाड़ें में ही रह जाएगा। पत्नी घर के दरवाजे तक आएगी। सारे सम्बन्धी श्मशान तक ही आएंगे। शरीर तो चिता पर जलकर भस्म हो जाएगा। जीवात्मा के साथ परलोक के मार्ग पर सीर्फ उस का कर्म ही जाएगा।
अतः प्रियजनों को चाहिये कि वे मुमूर्शु से धार्मिक कृत्य करा कर या उसके लिये करके उसे उनका पुण्य प्रदान करें। महाभारत में वर्णन आता है कि यक्ष ने युधिष्ठि से पूछा – किं स्विन्मित्रं मरिश्यत अर्थात् मृत्यु के समीप पहुंचे प्राणी का मित्र कौन है ? इस पर युधिष्ठि ने उत्तर दिया। दानं मित्र मरिश्यत अर्था दान मुमुर्शु व्यक्ति का मित्र है। इसलिये मरणासन्न व्यक्ति के निमित्त से दान अवश्य करना चाहिये। शास्त्रों में मुमूर्शु के उद्देश से गोदान, भूमिदान, तिलदान, स्वर्णदान, घृतदान, वस्त्र दान, धान्यदान, गुड़दान, रजत दान तथा लवण दान का संकल्प कर देने के लिये कहे गये हैं। यदि इनका प्रत्यक्ष दान देना सम्भव न हो तो निष्क्रिय रूप से यथा सम्भव मूल्य किसी नैष्ठिक ब्राह्मण को मुमूर्शु के हाथ से संकल्प पूर्वक दिला देना चाहिये। इससे मुमूर्शु को मृत्यु सम्बन्धि महाकष्ट से मुक्ति तो मिलती ही है साथ ही उत्तम लोकों की प्राप्ति भी होती है। इसके अतिरिक्त मुमूर्शु के मुख में गंगाजल, भगवान शालिग्राम का चरणामृत डालना चाहिये तथा गंगा जी की मिट्टी उसके मस्तक पर लगाकर तुलसीदल रख देना चाहिये
श्रीमद भगवद गीता का जीवन-मरण का ज्ञान अनूठा है।
नागें आए हो इस जगत में,जाओगे नंग निराश !
यह भी नफ़ा तुम जान लो, जो है तुम्हारे पास !!