सुप्रभातम् : शंकराचार्य को धर्म-सम्राट क्यों कहा जाता है?

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

नीरजा माधव

बहुधा शंकराचार्यों को राजा की तरह छत्र, चंवर, सिंहासन आदि का उपयोग करते देखकर आम जनमानस में एक कौतूहल होता है कि एक संन्यासी इस तरह राजसी वैभव के साथ क्यों होता है? उसे धर्म सम्राट की पदवी क्यों और कब दी गई? धर्म सम्राट शंकराचार्य के पधारने से पूर्व राजकीय सम्मानपूर्ण उद्बोधन क्यों होता है’

जब भी कोई शंकराचार्य मंचासीन होने के लिए आते हैं, एक संन्यासी उनसे पूर्व ही आकर सभी को सावधान करता है-‘सावधान! धर्म सम्राट शंकराचार्य भगवान् पधार रहे हैं…।’ शंकराचार्य के मंचासीन हो जाने के बाद एक दूसरे संन्यासी द्वारा उनकी विरुदावली प्रस्तुत की जाती है, तब उसके बाद कार्यक्रम प्रारंभ होता है।

यह सब देखकर एक सामान्य आदमी के मन में शंका उठती है कि घर, परिवार, धन, सम्पत्ति, सबसे विरक्त हो चुके संन्यासी के लिए किसी सम्राट जैसे राजचिन्ह धारण करने का क्या प्रयोजन है? उनकी शंका के समाधान के लिए मठाम्नाय महानुशासन में आदि शंकराचार्य ने व्यवस्था दी है। सामान्य संन्यासी की तुलना में शांकरपीठ पर अभिषिक्त आचार्य के लिए विशेष व्यवस्था निर्धारित है।

चारों पीठों के आचार्य धर्म के शासक हैं। राजा किसी राज्य का शासक होता है। राजनीति और धर्म दोनों ही मानव समाज के आवश्यक तत्व हैं जिनके बिना सुशासन और संयमित जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। राजनीति की तरह ही धर्म के शासक का भी प्रभाव जनमानस पर पड़ सके इसके लिए राजा सुधन्वा ने आदि शंकराचार्य से अनुरोध किया था कि कृपया वे राजचिन्ह धारण करें।

धर्म की स्थापना के लिए चारों पीठों पर शंकराचार्यों का अभिषेक किया जाता है। यही कारण है कि आदि शंकराचार्य ने भावी पीठाचार्यों के लिए यह व्यवस्था दी। अपने ग्रंथ ‘मठाम्नाय महानुशासनम्’ के 62 वें श्लोक में वे व्यवस्था देते हैं-

सुधन्वनः समौत्सुक्यनिवृत्त्यै धर्म-हेतुवे।

देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत्।।62।।

अर्थात् सम्राट सुधन्वा की उत्सुकता की निवृत्ति तथा धर्म की प्रतिष्ठा के लिए देवराज इन्द्र की भांति उपचारों (राजचिन्ह यथा-छत्र, चंवर आदि) को यथावत् धारण करें।

Uttarakhand

परन्तु इस निर्देश के तुरंत बाद ही वे धर्म के आचार्यों और आगे आने वाली राजपीढ़ियों के लिए भी व्यवस्था देते हैं। श्लोक संख्या 63 में वे आचार्यों को निर्देश देते हैं कि धर्म से विमुख हुए लोगों को धर्म पथ पर ले आने और परोपकार की भावना से ही ब्रह्मनिष्ठ शंकराचार्यों के लिए ऐसे वैभव-विधान की व्यवस्था है। पीठाधीश्वरों को राजसी वैभव धारण करते हुए भी उनसे उसी प्रकार र्निलिप्त रहना चाहिए जैसे कमल-पत्र पर जल की बूंद होती है। उसी प्रकार सम्राट सुधन्वा के साथ-साथ आगे आने वाले सभी राजा धर्म की इस परम्परा का निरन्तर पालन करें-

केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रह्मचेतसाम्।

विहितश्चोपकाराय पद्मपत्रनयं व्रजेत्।।63।।

सुधन्वा हि महाराजस्तथान्ये न नरेश्वराः।

धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम्।।64।।

सम्भवतः यही कारण है कि श्रृंगेरी पीठ मे तत्कालीन शंकराचार्य को सम्राट टीपू सुल्तान द्वारा दिया गया राजमुकुट अब भी वि़द्यमान है। धर्माचार्य के शासन को अनमोल मणि मानते हुए आदि शंकराचार्य ने कहा है-

धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बनः।

तस्मादाचार्य सुमणेः शासनं सर्वतोअधिकम्।।67।।

अर्थात् मनुष्य के लिए मूल धर्म है और उस धर्म के तत्वों के ज्ञान के लिए वह आचार्य पर निर्भर होता है। इसलिए आचार्य रूपी सुमणि का शासन सर्वाधिक महत्व का है।

Uttarakhand

अतः सर्वतोभावेन उस शासन में आस्था रखते हुए जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। राज के दण्ड और आचार्यों के उपदेश को स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि समाज में सुशासन के लिए जिस प्रकार दण्ड का प्रावधान है उसी प्रकार मानव-जीवन के आत्मिक उन्नयन के लिए धर्माचार्यों का उपदेश आवश्यक है। इसलिए दोनों का ही उद्देश्य शुद्ध और पवित्र है। उनकी निन्दा नहीं करनी चाहिए।

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *