हिमशिखर धर्म डेस्क
धर्मप्राण भारत में एक से बढ़कर एक विरक्त सन्त एवं महात्माओं ने जन्म लिया है। ऐसे ही सन्तों में शिरोमणि थे परम वीतरागी स्वामी रामसुखदासजी महाराज। स्वामी जी के जन्म आदि की ठीक तिथि एवं स्थान का प्रायः पता नहीं लगता; क्योंकि इस बारे में उन्होंने पूछने पर भी कभी चर्चा नहीं की। फिर भी राजस्थान के किसी गाँव में उनका जन्म 1904 ई. में हुआ था, ऐसा कहा जाता है।
उनका बचपन का नाम क्या था, यह भी लोगों को नहीं पता; पर इतना सत्य है कि बाल्यवस्था से ही साधु सन्तों के साथ बैठने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। जिस अवस्था में अन्य बच्चे खेलकूद और खाने-पीने में लगे रहते थे, उस समय वे एकान्त में बैठकर साधना करना पसन्द करते थे।
भक्तों के आग्रह पर स्वामी जी ने पूरे देश का भ्रमणकर गीता पर प्रवचन देने प्रारम्भ किये। वे अपने प्रवचनों में कहते थे कि भारत की पहचान गाय, गंगा, गीता, गोपाल तथा गायत्री से है। स्वामी जी की कथनी तथा करनी में कोई भेद नहीं था। सन्त जीवन स्वीकार करने के बाद उन्होंने जीवन भर पैसे तथा स्त्री को स्पर्श नहीं किया। यहाँ तक कि अपना फोटो भी उन्होंने कभी नहीं खींचने दिया। उनके दूरदर्शन पर आने वाले प्रवचनों में भी केवल उनका स्वर सुनाई देता था; पर चित्र कभी दिखायी नहीं दिया।
स्वामी रामसुखदास जी महाराज अपना रहन-सहन सदा पवित्र रखते थे। किसी से कुछ भी मांगना उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। वे कहते थे कि अपने आप से आया दूध बराबर, मांग कर लिया सो पानी, खींचातानी खून बराबर, यह संतों की वाणी। अर्थात् जो अपने आप प्राप्त हो जाता है, वह दूध के समान पवित्र है। मांगने पर जो मिलता है, वह पानी के जैसे है। मांगने पर पर भी जो नहीं मिलता, अर्थात् झगड़ा-खींचतान करने पर मिले वह खून के समान अशुद्ध और अपवित्र हो जाता है। अतः जो स्वतः प्राप्त हो जाए, उसमें संतोष रखना चाहिए। यह स्वामी रामसुखदासजी का कथन था।
स्वामी जी ने पूरा जीवन सत्संग अर्थात प्रवचन किया। गीताजी के आधार पर उनका प्रवचन होता रहता था। स्वामी रामसुखदास जी से अंतिम दिनों में यह प्रार्थना की गई कि आपके शरीर की अशक्त अवस्था के कारण प्रतिदिन सत्संग सभा में जाना अशक्त मालूम पड़ता है। इसलिए आप विश्राम करें। जब हम लोगों को आवश्यकता मालूम पड़ेगी तो हम लोग आपको सभा में ले जाएगे। कभी आपके मन में सत्संगियों को कोई बात बताने-कहने की आ जाए तो कृपया हमें बता दें, हम लोग आपको सभा में ले जाएंगे। ऐसी भक्तों ने प्रार्थना की थी। उस समय ऐसा लगा कि महाराज जी ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली है। इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखाई देती तब समय-समय पर स्वामीजी को सभा में ले जाया जाता और उनका कुछ प्रवचन होता।
एक दिन परमधाम गमन से तीन दिन पूर्व 29 जून 2005 को रामसुखदास महाराज जी ने अपने मन से फरमाया कि आज सभा में चलना है। सुनकर तैयारियां की गई। पहिए वाली कुर्सी यानी व्हील चेयर में महाराज जी को बिठाकर सभा में ले जाया गया। वहां पहुंचकर स्वामीजी ने प्रवचन के दौरान मन में आने वाली बात कह दी। वापस अपने स्थान पर पधारे। दूसरे दिन स्वामी जी दोबारा से सभा में पधारे और प्रवचन दिया। इस प्रकार दोनों दिन के प्रवचन सुनकर यह बात समझ में आई कि जो अंतिम बात सत्संगियों को कहनी थी, वह पहले दिन कह दी। दूसरे दिन भी स्वामी रामसुखदास जी सभा में पधारे थे, लेकिन दूसरों की मर्जी से पधारे थे। अपनी मर्जी से आवश्यक लगने वाली बातें पहले दिन कह दी थी। दूसरेे दिन कही गई बातों पर प्रश्नोत्तर हुए थे। दोनों दिन के प्रवचन भक्तों ने नोट किए। महाराज जी ने पहले दिन यह कहा था कि बहुत बड़े श्रेष्ठ और बड़ी सुगम सरल बात यह है कि किसी तरह की कोई इच्छा मत रखो। न परमात्मा की, न आत्मा की, न संसार की, न मुक्ति की, न कल्याण की। यहां तक की बात कह दी, संसार की तो बात ही छोड़ दीजिए। मुक्ति-कल्याण तक की इच्छा तक मत रखो, ऐसा कह दिया। कुछ भी इच्छा मत रखो, चुप हो जाओ और शांत हो जाओ। कारण यह कि परमात्मा सब जगह शांत रूप से परिपूर्ण है। स्वतः स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है। कोई इच्छा न रहे। किसी तरह की कोई कामना नहीं रहे, तो एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाए, तत्व ज्ञान हो जाए, पूर्णता हो जाए। स्वामी जी का कहना था कि यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई पूरी नहीं होती। सब इच्छाएं पूरी हो जाएं, यह नियम नहीं है। इच्छाओं को पूरा करना हमारे बस की बात नहीं है। लेकिन इच्छाओं का त्याग कर देना हमारे बस की बात है। कोई भी इच्छा चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मा में होगी, आपको परमात्मतत्व का अनुभव होगा। कुछ कहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं आना-जाना नहीं, कोई अभ्यास नहीं, बस इतनी सी बात है। इतने में ही पूरी बात हो जाएगी। इच्छा करने से ही हम संसार में बंधे हैं। इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में स्वतः स्वाभाविक स्थिति है। महाराज जी कहते थे कि सभी कार्यों में तटस्थ रहे। न राग करो न द्वेष करो।
स्वप्न में एक स्त्री का बालक खोने से वह बड़ी व्याकुल हो गई। लेकिन जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथ में सोया हुआ है। तात्पर्य यह है कि जहां आप हैं, वहां परमात्मा पूरे के पूरे विद्यमान हैं। आप जहां हैं, वहीं पर चुप हो जाएं। यह उनका आखिरी प्रवचन था। दूसरे दिन भक्त लोगों ने उस प्रवचन पर चर्चा की। प्रवचन के श्रोता के एक भक्त ने कहा कि कल आपने बताया कि कोई चाहना नहीं रखनी चाहिए, इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनों में कौन सा ज्यादा फायदा करता है। रामसुखदास जी महाराज बोले मैं भगवान का हूं, भगवान मेरे हैं, मैं और किसी का नहीं हूं, कोई मेरा नहीं है ऐसा स्वीकार करो। इच्छा रहित होना और चुप होना दोनों बातें एक ही हैं। इच्छा कोई करनी ही नहीं है, न भोगों की, न मुक्ति की, न ्रपेम की न भक्ति की, न अन्य किसी की। श्रोता-प्रश्नकर्ता बोला, इच्छा नहीं करनी लेकिन कोई काम करना हो तो स्वामी जी बोले काम उत्साह से करो, आठों प्रहर करो, लेकिन इच्छा मत करो। इस बात को ठीक तरह से समझो, दूसरों की सेवा करो, उनका दुख दूर करो, लेकिन बदले में कुछ मत चाहो। सेवा कर दो और कोई इच्छा मत करो। कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, लेकिन इच्छा मत रखो। कहते थे कि सार बात यह है कि जहां आप हैं, वहीं परमात्मा है। कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मा में ही होगी। जब सब परमात्मा ही है तो फिर इच्छा किस बात की करनी हे। संसार की इच्छा है इसलिए हम संसार में हैं। कोई इच्छा नहीं है, तो हम परमात्मा में हैं। ऐसे महाराज जी बड़े दावे से एकदम धडाके से प्रत्यक्ष से बोलते थे, जैसे सब उनके अनुभव की बात हों। एक बार एक सज्जन ने पूछा हम गीताजी को कंठस्थ करना चाहते हैं, इसका उपाय बताइए।
उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि गीताजी कंठस्थ करना है तो पहले गीता साधक को साधक संजीवनी, गीता तत्व विवेचनी इन ग्रंथों के श्लोक और अर्थ समझिए। फिर कंठस्थ कीजिए। रामसुखदास महाराज बताते हैं कि छोटी अवस्था में पहले श्लोक रटा जाता है। पीछे उसका अर्थ समझा जाता है। वहीं, बड़ी अवस्था में पहले अर्थ समझा जाता है फिर श्लोक रटा जाता है। जो श्लोक कंठस्थ हो चुके हैं उनकी आवृत्ति बिना देखे करते रहने चाहिए।
स्वामी रामसुख दासजी महाराज मिति आषाढ़ कृष्ण 11 को रात्रि बिताकर दिनांक 3 जुलाई, 2005 को प्रात: लगभग 3 बजकर 40 मिनट पर परमधाम सिधार गए। स्वामी जी त्याग एवं वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे, परन्तु वे अपनी प्रशंसा और बड़ाई के घोर विरोधी थे, अत: उनके सम्बंध में कुछ भी लिखना उचित नहीं है।
परमधाम गमन से पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (गीता जयन्ती) को उन्होंने एक वसीयत लिखी थी, जो साधकों के लिए अनुकरणीय है। यहां प्रस्तुत हैं इस प्रेरक वसीयत के संपादित अंश –
सेवा में विनम्र निवेदन (वसीयत)
(शरीर शान्त होने के बाद पालनीय आवश्यक निर्देश)
श्री भगवान की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है। इसका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूलकर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है। शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है। इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है। शरीर के नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है। वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बढ़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो। वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता।
इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवं नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है। परन्तु मनुष्य अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, जो सच्चे हृदय से जीवनभर भगवद्भक्ति में रहते हैं। अधिक क्या कहा जाए, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबद्ध करते हैं एवं उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं। विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं। इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बंधित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते और प्रकाशित कराते हैं। कहने को तो वे अपने-आपको उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही करते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं।
श्रद्धातत्व अविनाशी है। अत: साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि उनकी विनाशी देह या नाम में।
वास्तव में महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए। जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है। वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं।
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण दुर्गुण,सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती नहीं है। वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उनका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उन उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए।
उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित संतों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें सभी बातें मैंने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है। मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है।
1. यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए। उस समय किसी भी प्रकार की औषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। उस समय अनवरत रूप से भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन और श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीविष्णु
2. इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। निष्प्राण शरीर को साधु परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में।
जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण,
3. मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गांव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गांव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गांव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग में अथवा नगर या गांव से बाहर जहां गायें विश्राम आदि किया करती हैं, वहां इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए।
इस शरीर के शान्त होने पर किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यंत सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए।
4. अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊं, जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए।
5. जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहां स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहां तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूं। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसा ही उपेक्षित रहना चाहिए। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गोशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएं नहीं बनानी चाहिए। अपने जीवनकाल में भी मैंने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं दी है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए।
6. इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिल्कुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं प्रयोग करनी चाहिए। साधु-संत जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहने चाहिए। अगर संतों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो।
7. इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करनी चाहिए, प्रत्युत सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-
8. इस शरीर के शांत होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि भेंट करना चाहे तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए। जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए।
9. इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बन्धित घटनाओं की जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किए जाने चाहिए।
अन्त में मैं अपने परिचित सभी संतों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूं कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वि
–रामसुखदास
बहुत सुंदर
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