हिमशिखर खबर ब्यूरो
मई 1902 ई. को शहनशाह राम पहाड़ों की रानी मसूरी के रास्ते टिहरी रियासत में कौड़िया नामक स्थान में निवास कर रहे थे। संयोग से टिहरी के तत्कालीन महाराज कीर्तिशाह को राम बादशाह के टिहरी रियासत में आगमन की सूचना मिली। जिस पर टिहरी महाराज आन-बान-शान से सर्वस्व त्यागी विद्वान संन्यासी स्वामी रामतीर्थ जी महाराज को अपने डेरे पर ले गए।
टिहरी के महाराज कीर्तिशाह की प्रवृत्ति तर्क-प्रधान थी। उन्होंने नास्तिक दर्शनों का भी अध्ययन किया हुआ था। महाराजा टिहरी ने स्वामी रामतीर्थ को श्रद्धा-भक्ति से नमन कर ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में प्रश्न किया। राम बादशाह ने नाना युक्ति प्रमाणों से दो बजे से पांच बजे तक ठीक तीन घंटे उपदेश करके, ईश्वर का अस्तित्व प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया। इस विलक्षण सत्संग का महाराज के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और अत्यंत विनीत भाव से उनसे ग्रीष्म कालीन राजधानी प्रतापनगर पधारने की कृपा प्रार्थना की।
स्वामी रामतीर्थ उनकी प्रार्थना पर प्रतापनगर स्थित एक अत्यंत रमणीक स्थान पर आसन ग्रहण करने लगे। एक दिन चुपके से टिहरी महाराज स्वामी जी के दर्शन के लिए गए। जिस कोठरी में स्वामी जी निवास करते थे, उस दिन वे लेटे हुए थे। ओउम्, ओउम्, ओउम्, पवित्र ध्वनि राम के शरीर से अनवरत निकल रही थी। इस ध्वनि को सुनकर महाराज चकित हो गए। उस दिन टिहरी महाराज भी धन्य हो गए।
जब स्वामी जी प्रतापनगर में ही थे, तो महाराजा कीर्तिशाह ने सन् 1902 में समाचार-पत्रों में पढ़ा कि शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन की तरह का एक आयोजन इस बार टोकियो में संपन्न होने जा रहा है। महाराज कीर्तिशाह ने स्वयं इसकी सूचना स्वामी जी को दी। महाराज ने स्वामी जी की स्वीकृति के बाद टोकियो जाने की सारी व्यवस्था कर दी। नारायण स्वामी भी उस समय उनके साथ थे।