पंडित हर्षमणि बहुगुणा
जो व्यक्ति जितना उच्च स्तरीय होता है, समाज को उससे उतनी ही अधिक अपेक्षा होती है ।
धर्माचरण ही नहीं बल्कि आयु, विद्या, बल आदि में भी लोग समुन्नत महापुरुष का अनुकरण करते हैं। महाभारत में बहुत स्पष्ट लिखा है कि–
तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना, नैको श्रृषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्यतत्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गत: स पन्था: ।।
“अर्थात् संसार में जो व्यक्ति जितना ही उच्च स्तरीय होता है, उसे जितना अधिक महत्व प्राप्त होता है,समाज को उससे उतनी ही अधिक अपेक्षा होती है। ऐसी स्थिति में उसके आहार विहार, आचार – विचार और वाग् – व्यवहार आदि सभी आम व्यक्ति के लिए अनुकरणीय होते हैं। तभी तो कहा गया है कि – ‘ यथा राजा तथा प्रजा’ लोक के व्यवस्थित संचालन के लिए प्रशासक का संतुलित, संयमित, सदाचारी एवं गुण ग्राही होना आवश्यक है।
प्रमादी राजा की प्रजा विश्रृंखल हो जाती है, यदि एक सामान्य व्यक्ति की आचार शीलता खण्डित होती है तो उससे एक सीमित क्षेत्र या परिवेश प्रभावित होता है परन्तु गुरु या अन्य कोई शक्ति सम्पन्न महापुरुष पथ च्युत होता है तो उससे समष्टि प्रभावित होती है।अत: राष्ट्र के अध्यक्ष के आचरण का प्रभाव सम्पूर्ण राष्ट्र पर पड़ता है ।”
*मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्म्नाम् ।
सज्जन मन वाणी और कर्म से एक होते हैं।
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।।
हमारी भारतीय परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानते हैं। हमारा मूल उद्देश्य यह है कि हम मन और वाणी से अभिन्न हों। तभी तो कहा गया है कि श्रेष्ठ जनों का आचरण अनुकरणीय होता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
अतः हमारी अपेक्षा है कि हमारे देश के नायक राष्ट्र के सभी नागरिकों में सत्कर्म की भावना जाग्रत हो, जिससे हमारा देश सनातन वैदिक संस्कृति के पथ पर अग्रसर हो और अन्य देश हमारा अनुकरण करें।
साथ ही यह आकांक्षा भी है कि दूसरों के द्वारा किया गया व्यवहार अच्छा नहीं लगता है वैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ न करें ।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैतत्प्रधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।
“मनुष्यों को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है, अतः ज्ञान वृद्ध होना श्रेयस्कर है। “