सुप्रभातम् : विकास की सनातन परिभाषा है सुमंगलकारी

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्

कोविड-19 महामारी से सभी त्रस्त हैं। इससे होने वाली आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक हानि का अनुभव प्रत्येक को परेशान किए हुए है। ऐसा प्रतीत होता है, बाहर चलता-फिरता दिखाई देने वाला संपूर्ण जगत भीतर कहीं पूरी तरह से रुक गया है। यदि कहा जाए कि व्यक्ति से लेकर समस्त व्यवस्था तंत्र एक तरह से ठप हो गया है तो अतिशयोक्ति न होगी। सब एक दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ रहे हैं।

यह माना कि किसी ने अस्त्र के रूप में इसका प्रहार किया है। लेकिन इसे भी मानना पड़ेगा कि उसे हमारे मर्मस्थल का पता था। हमारा सुरक्षा चक्र कमजोर रहा उसके प्रसार के आगे। राजा को ‘चार चक्षुषः’ कहा गया है, अर्थात् गुप्तचर आंखें होती हैं राजा की। तो राजतंत्र से स्वयं को छिपाने में वह सफल रहा। उसने हमारी गुप्तचर व्यवस्था को चरमरा दिया।

हमने-हम भारतीयों ने गलती कहां की, इस पर प्रकाश डालते हुए गोवर्धन पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने स्पष्ट किया कि-हमारे शास्त्रों में सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, संपन्न, सेवापरायण व्यक्ति, समाज और राजनीति की परिभाषा प्राप्त है। हम सनातनधर्मियों के दुर्ग हैं हमारे मठ-मंदिर, जिनसे व्यक्ति और समाज के विकास को दिशा मिलती है।

शास्त्रों के अनुसार, हमारी ऊर्जा के स्रोत पृथ्वी, जल, प्रकाश (तेज) और पवन (वायु) हैं। जिनकी उपेक्षा की गई है। इनके शोधन पर विचार नहीं किया है, इस तथाकथित आधुनिक विकास की विधा ने। इसीलिए जिन्होंने इन ऊर्जा के स्रोतों को विकास के नाम पर दूषित किया उन देशों में इस रोग ने प्रलय सी स्थिति ला खड़ी की। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता।

महाराजश्री का कहना था कि हम भारतीयों को अब सचेत होना चाहिए। उन्हें विकास की उन्हीं विधाओं को अपनाना चाहिए, जो शास्त्र सम्मत हैं। इस ओर इस आपातकाल में लोगों का ध्यान गया तो है, लेकिन वह इस अनुभव को कितना संजोकर रख पाते हैं, आगे इस दिशा में कितना गंभीर चिंतन करते हैं, इस बारे में तो भविष्य ही बताएगा। मुझे संदेह है, हमारा स्वयं पर से विश्वास जो उठा है, वह अभी भी दुविधा की स्थिति में है। भविष्य में ऊर्जा के ये स्रोत क्षुब्ध न हों, इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा।

आचार्य प्रवर ने चेतावनी दी कि सृष्टि रचना का जो प्रयोजन है उसे नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। उसी संदर्भ में विकास को परिभाषित करने की आवश्यकता है, नहीं तो ऐसे महाविनाश की जल्दी ही पुनरावृत्ति हो सकती है, होगी ही!

पूज्य शंकराचार्य जी ने विशेष रूप से संकेत देते हुए कहा कि शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार हम मनुष्यों द्वारा विभिन्न रूपों में जो प्रदूषण पर्यावरण में फैलाया जाता है, उससे 10 गुना कार्य उस प्रदूषण को नष्ट करने के लिए यज्ञादि का आलंबन लेकर करना चाहिए। इसमें शास्त्र की उपेक्षा न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए। ऐसा करना प्रकृति को संतुलित करने के लिए आवश्यक है।

ऐसा नहीं लगता कि अपनी अज्ञानता के कारण हमने तारक सामग्री को मारक बना दिया है। पहले जो गंगा आदि के पवित्र किनारों पर रहते थे उनकी दीर्घायु होती थी, वह नीरोगी होते थे, लेकिन अब वह कैंसर जैसे भयानक रोगों के शिकार हो रहे हैं।

इसलिए मेरा अनुरोध है कि सनातन विधा से विकास को परिभाषित करने और उसे क्रियान्वित करने का प्रकल्प चले। गांव और वन का विलोप प्रत्येक दृष्टि से घातक है। भगवान् आदि गुरु शंकराचार्य ने भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से दशविद् संन्यासियों को स्थापित किया था। अरण्य, पर्वत, सागर, गिरि, सरस्वती, तीर्थ, भारती आदि विशेषण देने के पीछे कल्याणस्वरूप भगवत्पाद महाभाग का यही व्यापक चिंतन था।

अन्त में मैं यही कहूंगा कि सनातन परंपरा के अनुसार विकास को परिभाषित करने में ही सबका मंगल है-यही है सुमंगलकारी व्यापक और संतुलित दृष्टि। यही है वह अभेद्य कवच जिसे पहनकर भविष्य में महामारी की मार से बचा जा सकता है।

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