स्वामी रामतीर्थ मिशन में गीता जयंती महोत्सव गरिमा के साथ संपन्न

Uttarakhand

देहरादून।

राजपुर स्थित स्वामी रामतीर्थ मिशन के परिसर में गीता जयंती का महोत्सव अपनी गरिमा के साथ संपन्न हुआ। दीपक प्रज्ज्वलन एवं भगवान श्रीकृष्ण के चित्र पर माल्यार्पण करने के बाद चिन्मय मिशन देहरादून से पधारे ब्रह्मचारी प्रवर चैतन्य जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता समूची मानवता के लिए एक मैन्युल की तरह है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि शरीर, मन का दुरुपयोग कर उसमें बिगाड़ कर लेने के बाद हम मैन्युल को देखते हैं। तब बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर सुधार के लिए आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता हुआ करती है। लेकिन उसके लिए समय की कमी होती है और हम स्वयं को इतना उलझा लेते हैं कि उसे सुलझा पाना असंभव नहीं तो इतना जरूर कठिन हो जाता है कि हम सोचने लगते हैं कि जैसा चल रहा है वैसा ही ठीक है। चाहिए तो यह है कि हम जीवन के प्रारंभिक क्षणों में ही अर्थात् जब अभी संभावनाओं ने अपने सिर नहीं उठाए हैं, तभी उस मैन्युल को पढ़ लें। हमारे ऋषियों ने प्राचीन शिक्षा पद्धति में इसीलिए धर्म और अध्यात्म की शिक्षा को सहज रूप में जोड़ा था। यह प्रयोग इस प्रकार का था, जिसमें यह पता ही नहीं चलता था कि शिशु को ऐसी औषधि दी जा रही है, जो उसको निरोग करती है और अमरता के मार्ग की ओर ले जाती है।

प्रवर चैतन्य जी ने इसी संदर्भ में आश्रम परंपरा की ओर भी ध्यान दिलाया। यह एक संपूर्ण जीवन पद्धति है, जिसे भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में गुण और कर्म का एक संतुलित सम्मिश्रण माना है। इसी तरह के और भी कई सूत्र भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में दिए हैं, जो व्यक्ति, समाज, जाति, देश और संपूर्ण मानवता के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।

योगाचार्य श्री हरीश जौहर ने श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित राजयोग की चर्चा की। उनका कहना था कि योग का अभ्यास शरीर को ही नहीं मन को भी लचीला और पुष्ट करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में प्रत्येक अध्याय के बाद योगशास्त्र शब्द का प्रयोग बताता है कि श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते समय योगेश्वर की भूमिका निभा रहे हैं। इसीलिए उन्होंने एक नहीं अनेक उन मार्गों को बताया जिनके द्वारा साधक परमात्मा, प्रकृति और स्वयं से जुड़ सकता है। यह जुड़ाव ही सही अर्थों में योग है। योग के बहिरंग साधन तभी सार्थक होते हैं जब उसके द्वारा आध्यात्मिक जागरण हो। आज के दिन हम यही शुभ कामना करते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता का ‘योगी बन’ यह संदेश समूचे विश्व समुदाय तक पहुंचे। योग औपचारिकता नहीं है, आचरण का दूसरा नाम है।

इस अवसर पर गीता जिज्ञासु सुश्री शर्मिला जी ने श्रीमद्भगद्गीता के साथ जुड़ने के बाद अपने जीवन में होने वाले परिवर्तनों की विवेचना की। उनका कहना था कि काश मैं इस महान ग्रंथ के साथ कुछ समय और पहले जुड़ पाती। उन्होंने सचेत किया कि अभी भी हम सबके पास अवसर है, जिसमें हम श्रीकृष्ण की अमरवाणी को अपने जीवन का परम आश्रय बना सकते हैं। इसलिए अब गलती न हो, कि हम हाथ मलते रह जाएं। इस संदर्भ में उन्होंने अपनी आत्मीय सखा नीलम दीदी का भी स्मरण किया।

आचार्य काका हरिओम् ने इस आयोजन के लक्ष्य के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि इसका लक्ष्य उन जिज्ञासुओं को एक साथ बैठने का, अपने अनुभवों को साझा करने का अवसर देना है, जो अपने जीवन में आध्यात्मिक प्रगति के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं। उन्होंने जान तो बहुत कुछ लिया है लेकिन उसे व्यावहारिक रूप देने में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऋषियों का कहना है कि ‘वादे-वादे जायते तत्व बोधः।’ अर्थात् सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि संवाद की परंपरा को फिर से स्थापित किया जाए। क्योंकि इस समय विवाद हावी हो गया है। परस्पर संघर्ष का कारण है यह।

इसी संदर्भ में उपस्थित श्रोताओं से कुछ प्रश्न भी आए, जिनका समाधान उपस्थित श्रोताओं द्वारा ही दिया गया। जैसे कि सिद्धांत और व्यवहार में परस्पर विरोधाभास। क्या आदर्श को व्यावहारिक रूप दे पाना संभव है? क्या कोई आसक्ति से ऊपर उठ सकता है? आदि।

मंच का संचालन अपनी प्रांजल भाषा में दिए गए विचारों की विवेचना करते हुए श्री स्वामी शिवचंद्र दास जी महाराज ने किया। संख्या की दृष्टि से यदि न देखें तो यह कहा जा सकता है कि मिशन के द्वारा किया गया यह प्रयोग सफल सिद्ध हुआ है।

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