काका हरिओम्
संयोग स्वीकृति है इस बात की जो हो रहा है, जो दिखाई दे रहा है, वह बुद्धि से परे है अर्थात् उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। भाव और हृदय की दृष्टि से उसका महत्व हो सकता है, लेकिन आध्यात्मिक-वैज्ञानिक सोच इसे नहीं स्वीकारती। इसके अनुसार प्रकृति के सुनिश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार प्रत्येक घटना की व्याख्या की जा सकती है। भगवान के चरित्र को लीला के रूप में स्वीकार करते हुए विद्वानों ने उसका विवेचन उसी प्रकार किया है, जो अवतार की कसौटी कर जांचा और रखा जा सकता है। ऐसा न होने पर मानव मन उसे स्वीकार नहीं करता, या फिर वह उसे अपनी खामियों को बचाने के लिए ढाल की तरह प्रयोग में लाता है।
बादशाह राम कहते हैं, किसी बात को इसलिए स्वीकार करो क्योंकि वह सत्य की कसौटी पर खरी उतरती है। अन्य किसी बात का सत्य के सामने कोई महत्व नहीं है। सत्य सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा ही प्रत्येक महापुरुष ने कहा है।
कोई सामान्य से महापुरुष ऐसे ही नहीं बनता है। उसके जीवन में नीचे से ऊपर की ओर जाते ग्राफ को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। उसमें सफलता और उन्नति के वही नियम काम करते हैं, जो अन्य व्यक्तियों के जीवन को ऊंचाईयों तक पहुंचाते हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र के सर्वोत्कृष्ट को प्राप्त किया है।
तीर्थराम के रूप में जिस बालक का जन्म हुआ, उसका भविष्य तो ज्योतिषियों ने बता दिया था, लेकिन वह उसका निर्माण कैसे करेगा, इस बारे में संभवतया वे नहीं जानते थे।
तीर्थराम की जीवन यात्रा भी कुछ ऐसी ही थी। जब उनका आविर्भाव हुआ, तो चारों ओर सुधार की चर्चा हो रही थी। सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से समूचा विश्व एक करवट लेने का प्रयास कर रहा था। जैसे दही में चलने वाली मथनी अपनी ऊष्मा से अदृश्य घृत को सर्वोपयोगी बना देती है-छाछ को अलग कर देती है, ऐसा ही कुछ चल रहा था उस समय। स्वतंत्रता के लिए छटपटाता देश, विकास के कारणों का अनुशीलतन, जर्जर हो चुकी परंपराओं का चरमराना और नए अंकुरों का प्रस्फुटित होना, विश्व को यह समझाने का प्रयास कि भारत में ज्ञान की ज्योति बुझी नहीं है, इस कालचक्र के मानों कुछ महत्वपूर्ण आयाम था।
स्वामी दयानंद द्वारा पाखंड खंडित करने का शंखनाद, स्वामी विवेकानंद के द्वारा शिकागो की धर्म संसद में उपनिषदों के ज्ञान का डिडिम घोष, सत्य और अहिंसा के आंदोलनों का दौर ईशारा कर रहा था कि कोई जबर्दस्त क्रांति होने वाली है। संन्यासियों द्वारा अध्यात्म को सर्वजन सुलभ बनाना और उसे जीवन के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार करने का दौर था वह, जब तीर्थराम का आविर्भाव हुआ।
देश के अंधकार में दिए दिव्य आलोक का दर्शन कर रहा था जब तीर्थराम इस धरा धाम पर आए। तीर्थराम के जीवन को पढ़ने से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि चिंगारी धीरे-धीरे बाहरी प्रतिकूलता के बाद भी, भीतर की अनुकूल वायु के मीठे झोंको से विस्तार पा रही थी, दीपके और सूर्य के रूप में विकसित हो रही थी।
बादशाह राम के शब्दों में -‘जो ली करवट तो होश आया कि राम मुझमें मैं राम में हूं।’’
तीर्थराम से रामतीर्थ बनने की यात्रा छोटी उम्र में बड़े लंबे सफर को तय करने की कहानी है। इस सफर को पार करने में तो लोगों को कई जन्म लग जाते हैं। जिस समय यह करवट ली गई उस दिन भी दीपपर्व था। चिंगारी दीपक बन गई थी उस दिन। उसके उस दीपक का एक ही लक्ष्य था सभी के जीवन मार्ग को प्रकाशित करा, बिना किसी के पूर्वाग्रह के लोगों को भटकाने से बचाना है, सबाके सही रास्ता दिखाना है।
इसी सिलसिल में उन्होंने अमेरिका, जापान आदि देशों की यात्राएं कीं। यहां विशेष रूप से उस यात्रा का उल्लेख करना भी युक्ति संभव होगा, जिसमें उन्होंने मिस्र की विशाल मस्जिद में उन्हीं की भाषा में, उन्हीं की पाक पुस्तक के उद्धरण देते हुए उन्हें वेदांत के सिद्धांतों की जानकारी दी और समझाया कि एक ही सत्य को महान आत्माओं ने भिन्न-भिन्न भाषाओं और लहजे में समझाया है। इन सब बातों से सत्य ही सत्य रहता है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
करवट बदलने की प्रक्रिया अभी रूकी नहीं थी। गोस्वामी से स्वामी बने और फिर वह स्वामित्व से छूट गया। यह परमहंस की स्थिति थी। जिस गैरिक वस्त्रों को पहनने की मन में कभी गहरी तड़प थी, वह भी शांत हो गई। उन्हें भी उतार फेंका। उनमें भी बंधन महससू होने लगा। बंधन तो बंधन है, वह कैसा भी हो-अच्छा हो या फिर बुराई,सोने का हो या फिर रस्सी का। मुक्ति को चाहने वाला सभी बंधनों को तोड़ फेंकता है।
स्वामी रामतीर्थ परमहंस हो गए। ‘जिसको कछु नहि चाहिए, सोई शहंशाह।’ मिली मुझको ही बादशाही।
इस स्थिति में वे साइन करते समय राम लिखते हैं-‘स्वामी राम नहीं।’ इसके बाद उन्हें अपना शरीर भी बंधन लगने लगा। दीपक ज्योति और मिट्टी की सीमा को भी तोड़ फेंकना चाहती थीं। ऐसे ईधन से क्या प्रकाशित होना, जो खत्म होने वाला हो, जिसकी कोई यात्रा हो।
15 अगस्त 1906 में जिन राम प्रेमियों ने परमहंस के दर्शन किए, उनका कहना था कि शरीर में रहना भी उन्हें अब भार स्वरूप लग रहा था। पढ़िए उनको, वे शब्द जो उन्होंने मृत्यु को संबोधित करते हुए लिखे हैं, जिन्हें लिखते हुए उठकर वे स्नान करने गए और अपनी प्यारी ‘मां गंगा’ की गोद में सदा-सदा के लिए समा गए।
उस दिन भी दीप पर्व ही था। यह दिन दीपक के सूर्य बनने का।
ठीक कहा है किसी ने-जन्म, संन्यास और निर्वाण दिवाली के दिन। प्रकाश की यही गति होती है।