सुप्रभातम्: सर्पों के जन्म की कथा और समुद्र मन्थन से अमृत आदि की प्राप्ति

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

शौनकजी ने प्रश्न किया–सूतनन्दन उग्रश्रवा! अब तुम आस्तीक ऋषि की कथा सुनाओ, जिन्होंने जनमेजय के सर्प-सत्र में नागराज तक्षक की रक्षा की थी। तुम्हारे मुँह की कथा मिठास से भरी और सुन्दर होती है। तुम अपने पिता के अनुरूप पुत्र हो। उन्हीं के समान हमें कथा सुनाओ।

उग्रश्रवाजी ने कहा–आयुष्मन्! मैंने अपने पिता के मुँह से आस्तीक की कथा सुनी है। वही आप लोगों को सुनाता हूँ। सत्ययुग में दक्षप्रजापति की दो कन्याएँ थीं–कद्रू और विनता। उनका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था। कश्यप अपनी धर्मपत्नियों से प्रसन्न होकर बोले, ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ कद्रू ने कहा, ‘एक हजार समान तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों।’ विनता बोली, ‘तेज, शरीर और बल विक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र मुझे प्राप्त हों।’ कश्यपजी ने ‘एवमस्तु’ कहा। दोनों प्रसन्न हो गयीं। सावधानी से गर्भ- रक्षा करने की आज्ञा देकर कश्यपजी वन में चले गये।

समय आने पर कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अंडे दिये। दासियों ने प्रसन्न होकर गरम बर्तनों में उन्हें रख दिया। पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के तो हजार पुत्र निकल आये, परंतु विनता के दो बच्चे नहीं निकले। विनता ने अपने हाथों एक अंडा फोड़ डाला। उस अंडे का शिशु आधे शरीर से तो पुष्ट हो गया था, परंतु उसका नीचे का आधा शरीर अभी कच्चा था। नवजात शिशु ने क्रोधित होकर अपनी माता को शाप दिया, ‘माँ! तूने लोभवश मेरे अधूरे शरीर को ही निकाल लिया है। इसलिये तू अपनी उसी सौत की पाँच सौ वर्ष तक दासी रहेगी, जिससे डाह करती है। यदि मेरी तरह तूने दूसरे अंडे को भी फोड़कर उसके बालक अंगहीन या विकृतांग न किया तो वही तुझे इस शाप से मुक्त करेगा।

यदि तेरी ऐसी इच्छा है कि मेरा दूसरा बालक बलवान् हो तो धैर्य के साथ पाँच सौ वर्ष तक और प्रतीक्षा कर।’ इस प्रकार शाप देकर वह बालक आकाश में उड़ गया और सूर्य का सारथि बना। प्रातःकालीन लालिमा उसी की झलक है। उस बालक का नाम अरुण हुआ।

एक बार कद्रू और विनता दोनों बहनें एक साथ ही घूम रही थीं कि उन्हें पास ही उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा दिखायी दिया। यह अश्व-रत्न अमृत मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था और समस्त अश्वों में श्रेष्ठ, बलवान्, विजयी सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सब शुभ लक्षणों से युक्त था। उसे देखकर वे दोनों आपस में उसका वर्णन करने लगीं।

शौनकजी ने पूछा–’सूतनन्दन ! देवताओं ने अमृत-मन्थन किस स्थान पर और क्यों किया था ? अमृत-मन्थन के समय उच्चैःश्रवा घोड़ा किस प्रकार उत्पन्न हुआ ?’ उग्रश्रवाजी महर्षि शौनक का यह प्रश्न सुनकर उनसे अमृत-मन्थन की कथा कहने लगे।

उग्रश्रवाजी ने कहा–शौनकादि ऋषियो ! मेरु नाम का एक पर्वत है। वह इतना चमकीला है मानो तेज की राशि हो ! उसकी सुनहली चोटियों की चमक के सामने सूर्य की प्रभा फीकी पड़ जाती है। वे गगनचुम्बी चोटियाँ रत्नों से खचित हैं। उन्हीं में से एक पर देवता लोग इकट्ठे होकर अमृतप्राप्ति के लिये सलाह करने लगे। उनमें भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी थे। नारायण ने देवताओं से कहा, ‘देवता और असुर मिलकर समुद्र मन्थन करें। इस मन्थन के फलस्वरूप अमृत की प्राप्ति होगी।’ देवताओं ने भगवान् नारायण के परामर्श से मन्दराचल को उखाड़ने की चेष्टा की। वह पर्वत मेघों के समान ऊँची चोटियों से युक्त, ग्यारह हजार योजन ऊँचा और उतना ही नीचे धँसा हुआ था। जब सब देवता पूरी शक्ति लगाकर भी उसे नहीं उखाड़ सके, तब उन्होंने विष्णुभगवान् और ब्रह्माजी के पास जाकर प्रार्थना की–’भगवन्! आप दोनों हम लोगों के कल्याण के लिये मन्दराचल को उखाड़ने का उपाय कीजिये और हमें कल्याणकारी ज्ञान दीजिये।’ देवताओं की प्रार्थना सुनकर श्रीनारायण और ब्रह्माजी ने शेषनाग को मन्दराचल उखाड़ने के लिये प्रेरित किया। महाबली शेषनाग ने वन और वनवासियों के साथ मन्दराचल को उखाड़ लिया।

अब मन्दराचल के साथ देवगण समुद्रतट पर पहुँचे और समुद्र से कहा कि ‘हमलोग अमृत के लिये तुम्हारा जल मथेंगे।’ समुद्र ने कहा, ‘यदि आप लोग अमृत में मेरा भी हिस्सा रखें तो मैं मन्दराचल को घुमाने से जो कष्ट होगा, वह सह लूँगा।’ देवता और असुरों ने समुद्र की बात स्वीकार करके कच्छपराज से कहा, ‘आप इस पर्वत के आधार बनिये।’ कच्छपराज ने ‘ठीक है’ कहकर मन्दराचल को अपनी पीठ पर ले लिया। अब देवराज इन्द्र यन्त्र के द्वारा मन्दराचल को घुमाने लगे।

इस प्रकार देवता और असुरों ने मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की डोरी बनाकर समुद्र-मन्थन प्रारम्भ किया। वासुकि नाग के मुँह की ओर असुर और पूँछ की ओर देवता लगे थे। बार-बार खींचे जाने के कारण वासुकि नाग के मुख से धुएँ और अग्निज्वाला के साथ साँस निकलने लगी।

वह साँस थोड़ी ही देर में मेघ बन जाती और वह मेघ थके-माँदे देवताओं पर जल बरसाने लगता। पर्वत के शिखर से पुष्पों की झड़ी लग गयी। महामेघ के समान गम्भीर शब्द होने लगा। पहाड़ पर के वृक्ष आपस में टकराकर गिरने लगे। उनकी रगड़ से आग लग गयी। इन्द्र ने मेघों के द्वारा जल बरसवाकर उसे शान्त किया। वृक्षों के दूध और ओषधियों के रस चू-चूकर समुद्र में आने लगे। ओषधियों के अमृत के समान प्रभावशाली रस और दूध तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेकों दिव्य प्रभाववाली मणियों से चूने वाले जल के स्पर्श से ही देवता अमरत्व को प्राप्त होने लगे। उन उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा। देवताओं ने मथते मथते थककर ब्रह्माजी से कहा, ‘भगवान् नारायण के अतिरिक्त सभी देवता और असुर थक गये हैं। समुद्र मथते मथते इतना समय बीत गया, परन्तु अब तक अमृत नहीं निकला।’ ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु से कहा, ‘भगवन्! आप इन्हें बल दीजिये। आप ही इनके एकमात्र आश्रय हैं।’ विष्णु भगवान् ने कहा, ‘जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, मैं उन्हें बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और समुद्र को क्षुब्ध कर दें।’

भगवान् के इतना कहते ही देवता और असुरों का बल बढ़ गया। वे बड़े वेग से मथने लगे। सारा समुद्र क्षुब्ध हो उठा। उस समय समुद्र से अगणित किरणों वाला, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेतवर्ण का चन्द्रमा प्रकट हुआ। चन्द्रमा के बाद भगवती लक्ष्मी और सुरा देवी निकलीं। उसी समय श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा घोड़ा भी पैदा हुआ। भगवान् नारायण के वक्षःस्थल पर सुशोभित होने वाली दिव्य किरणों से उज्ज्वल कौस्तुभमणि तथा वांछित फल देने वाले कल्पवृक्ष और कामधेनु भी उसी समय निकले। लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा, उच्चैःश्रवा–ये सब आकाश मार्ग से देवताओं के लोक में चले गये। इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथ में अमृत से भरा श्वेतकमण्डलु लिये हुए थे। यह अद्भुत चमत्कार देखकर दानवों में–’यह मेरा है, यह मेरा है’ ऐसा कोलाहल मच गया। तदनन्तर चार श्वेत दाँतों से युक्त विशाल ऐरावत हाथी निकला। उसे इन्द्र ने ले लिया। जब समुद्र का बहुत मन्थन किया गया, तब उसमें से कालकूट विष निकला। उसकी गन्ध से ही लोगों की चेतना जाती रही। ब्रह्मा की प्रार्थना से उसे भगवान् शंकर अपने कण्ठ में धारण कर लिया। तभी से वे ‘नीलकण्ठ’ नाम से प्रसिद्ध हुए। यह सब देखकर दानवों की आशा टूट गयी। अमृत और लक्ष्मी के लिये उनमें बड़ा वैर विरोध और फूट हो गयी। उसी समय भगवान् विष्णु मोहिनी स्त्री का वेष धारण करके दानवों के पास आये। मूर्खो ने उनकी माया न जानकर मोहिनीरूपधारी भगवान्‌ को अमृत का पात्र दे दिया। उस समय वे सभी मोहिनी के रूप पर लट्टू हो रहे थे।

इस प्रकार विष्णु भगवान् ने मोहिनीरूप धारण करके दैत्य और दानवों से अमृत छीन लिया और देवताओं ने उनके पास जाकर उसे पी लिया। उसी समय राहु दानव भी देवताओं का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। अभी अमृत उसके कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने उसका भेद बतला दिया। भगवान् विष्णु ने तुरंत ही अपने चक्र से उसका सिर काट डाला। राहु का पर्वत शिखर के समान सिर आकाश में उड़कर गरजने लगा और उसका धड़ पृथ्वी पर गिरकर सबको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा।

तभी से राहु के साथ चन्द्रमा और सूर्य का वैमनस्य स्थायी हो गया। विष्णु भगवान् ने अमृत पिलाने के बाद अपना मोहनीरूप त्याग दिया और वे तरह-तरह के भयावने अस्त्र-शस्त्रों से असुरों को डराने लगे। बस, खारे समुद्र के तट पर देवता और असुरों का भयंकर संग्राम छिड़ गया। भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र बरसने लगे। भगवान् के चक्र से कट-कुटकर कोई-कोई असुर खून उगलने लगे तो कोई-कोई देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदा से घायल होकर धरती पर लोटने लगे।

चारों ओर से यही आवाज सुनायी पड़ती कि ‘मारो, काटो, दौड़ो, गिरा दो, पीछा करो!’ इस प्रकार भयंकर युद्ध हो ही रहा था कि विष्णु भगवान् के दो रूप ‘नर’ और ‘नारायण’ युद्ध भूमि में दिखायी पड़े। नर का दिव्य धनुष देखकर नारायण ने अपने चक्र का स्मरण किया। और उसी समय सूर्य के समान तेजस्वी गोलाकार चक्र आकाश मार्ग से वहाँ उपस्थित हुआ। भगवान् नारायण के चलाने पर चक्र शत्रु-दल में घूम-घूमकर कालाग्नि के समान सहस्र-सहस्र असुरों का संहार करने लगा। असुर भी आकाश में उड़-उड़कर पर्वतों की वर्षा से देवताओं को घायल करते रहे। उस समय देवशिरोमणि नर ने बाणों के द्वारा पर्वतों की चोटियाँ काट-काटकर उन्हें आकाश में बिछा दिया और सुदर्शन चक्र घास-फूस की तरह दैत्यों को काटने लगा। इससे भयभीत होकर असुरगण पृथ्वी और समुद्र में छिप गये। देवताओं की जीत हुई। मन्दराचल को सम्मान पूर्वक यथास्थान पहुँचा दिया गया। सभी अपने-अपने स्थान पर गये। देवता और इन्द्र ने बड़े आनन्द से सुरक्षित रखने के लिये भगवान् नर को अमृत दे दिया। यही समुद्र-मन्थन की कथा है।

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