खास खबर : कैसे होगी अपराधमुक्त समाज की संरचना, भारत के सर्वांगीण विकास का फार्मूला बता रहे हैं जाने-माने आईपीएस

 

Uttarakhand

समाज में व्याप्त बाह्य और आंतरिक गंदगी को दूर करने का नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा सर्वश्रेष्ठ एवं बुनियादी उपाय है। आदमी भीतर से सही होना चाहिए। बाहर से थोपा गया कोई भी समाधान अंततः निरर्थक ही साबित होता है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए देश के जाने-माने ईमानदार आईपीएस अधिकारी जसवीर सिंह कानूनी लड़ाई भी लड़ते रहते हैं। बताते चलें 1992 बैच के तेेेेजतर्रार आईपीएस जसवीर सिंह स्वेच्छा से संपत्ति सार्वजनिक करने वाले देश के पहले लोक सेवक हैं। इन्हीं के अनुरोध पर भारत सरकार ने अखिल भारतीय सेवाओं में सम्पत्ति सार्वजनिक करने का नियम बनाया था। आपको बता दें कि जसवीर सिंह तब सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने 1997 में प्रतापगढ़ में एसपी रहते हुए कुंडा के बाहुबली विधायक राजा भैया पर शिकंजा कसा था। आज इस लेख में जसवीर सिंह बता रहे हैं कि किस तरह से समाज का सर्वांगीण विकास किया जा सकता है-


जसवीर सिंह
(जाने-माने आईपीएस और विधि विशेषज्ञ) 

प्रख्यात विधिवेत्ता नानी पालखीवाला ने एक बार कहा था कि भारत में सबसे सतत प्रवृत्ति है ”बहुत ज्यादा सरकार और बहुत कम प्रशासन, बहुत ज्यादा सरकारी कर्मचारियों का होना एवं बहुत कम सार्वजनिक सेवा, बहुत अधिक कानून एवं बहुत कम न्याय।“ इस कानून विशेषज्ञ की टिप्पणियों की सत्यता न केवल तत्कालीन परिस्थितियों को दर्शाती है बल्कि मौजूदा हालात पर भी उतनी ही प्रासंगिक है।

वर्तमान में हमारे देश में कानूनों की संख्या लगातार बढ़ रही है लेकिन उल्लेखनीय है कि अपराध का ग्राफ भी उतना ही बढ़ रहा है। कानून है मगर न्याय नहीं है, क्योंकि कानूनों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव है। बिना सोचे-समझे कानूनों का निर्माण हो रहा है, लेकिन शिक्षा के माध्यम से मौलिक सोच व सामाजिक मूल्यों पर चलने की दिशा अभावग्रस्त प्रतीत हो रही है।

इस पृष्ठभूमि में स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि क्या मात्र कानून बना देने से अथवा कानूनी प्रवर्तन भी कर लेने की अवस्था मुख्य समाज में व्याप्त अपराध, भ्रष्टाचार व अनैतिकता को विनष्ट किया जा सकता है? मूल प्रश्न यह भी है कि क्या नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से युवा पीढ़ी की सोच में परिवर्तन लाने की दिशा में संतोषजनक प्रयास हुए हैं अथवा नहीं?

भारत के संविधान में स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक न्याय उपलब्ध होगा।

समग्र दृष्टि से अवलोकित करने पर एक अपराध मुक्त समाज कि झलक भी दिखाई पड़ती है, परंतु क्या वास्तव में इस प्रकार का दावा किया जा सकता है कि प्रत्येक नागरिक को समानतापूर्वक व गुणवत्तापूर्वक अपेक्षित न्याय व अपराध से मुक्ति, संविधान की मर्यादा के अनुरूप, प्राप्त है अथवा भविष्य में कभी मिलेगी। ऐसी दशा वर्तमान समय में होने का दावा करना अत्यंत ही भ्रामक व मायक प्रतीत होती है। बड़ा व मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या संवैधानिक मूल्यों को नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा के बिना प्राप्त किया जा सकता है? क्या संविधान के अंतर्गत न्याय व अपराधमुक्त समाज की संरचना व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति मात्र कानून बना देने से सुनिश्चित की जा सकती है?

प्राचीन काल से शिक्षा के साथ अंत में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया को ‘सा विद्या या विमुक्त्या’, की संज्ञा दी गयी है जो वर्तमान समय में बहुआयामी नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा के अभाव को दर्शाती है। आज के समय में नैतिक और धार्मिक मूल्यों को कम आंका जा रहा है। सभ्यता के मौलिक सिद्धांतों की अनदेखी की जा रही है। आदर्शों, शिष्टाचार और आदतों में टकराव का माहौल व्याप्त है। वह सब कुछ जो पुराना है के लिए उपेक्षा आज के दिन का फैशन हो चला है।

गांधी जी ने एक बार कहा था, ‘शिक्षा बच्चे और मानव के शरीर, मन और आत्मा, तीनों का सुमेल है।” शिक्षा सभी आयामों-नैतिक, मानसिक और भावनात्मक के बिना संभव नहीं होती। नैतिक शिक्षा के अभाव में किसी भी राष्ट्र अथवा समाज में शांति और समृद्धि के महल का निर्माण नहीं किया जा सकता है, बल्कि नैतिक शिक्षा इस महल की नींव होती है।

समाज में अपराध को नियंत्रित करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाए जा चुके हैं। कानूनों की एक आकस्मिक अवलोकन मात्र से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि केंद्रीय सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा निर्मित कानूनों को मिलाकर लगभग बारह हजार से भी ज्यादा कानून/अधिनियम का निर्माण किया जा चुका है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जब विधि विशेषज्ञों तक के लिए कानूनी हिसाब-किताब रखना कठिन होगा, तब सामान्य व्यक्ति के लिए यह कार्य अत्यधिक ही मुश्किल पैदा करने वाला है। न केवल कानूनों की संख्या अधिक है, बल्कि कानून को बनाने में कठिन से कठिनतम भाषा का प्रयोग और भी मुश्किलें खड़ी करना प्रतीत होता है। प्रश्न यह है कि क्या मात्र कानून को बनाने मात्र से समाज में व्याप्त अपराध, बेइमानी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता और विचलन पर काबू पाया जा सकता है अथवा नहीं? इन कानूनों के क्रियान्वयन की स्थिति अत्यंत ही गंभीर दिखाई पड़ती है।

परिस्थितियां यह हैं कि सामान्यतः पुलिस एवं अन्य कानून प्रवत्र्तन अधिकारी स्वयं कानून की पेचिदियों से अनभिज्ञ हैं एवं उनमें प्रवत्र्तन हेतु आवश्यक मंशा व इच्छा शक्ति की गंभीर कमी दिखती है। ऐसी स्थिति सामान्यतः इसलिए भी उत्पन्न हो रही है कि अनुपालन व प्रवत्र्तन को पर्याप्त तवज्जो नहीं दिया जा रहा है। यही नहीं बल्कि समस्त कानूनों/अधिनियमों इत्यादि का सरलीकरण किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

नए कानूनों पर भी किसी प्रकार का प्रतिबंध लागू किया जाना चाहिए ताकि भारत के शासन में सुधार किया जा सके। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि अनावश्यक एवं फालतू किस्म के कानूनों को कानून की किताब से हमेशा के लिए निष्काषित किया जा सके। लेकिन बड़ा प्रश्न फिर से यही है कि क्या बिना नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा और जागृति से यह संभव हो सकता है।

कानून संबंधी हैरत की बात यह है कि जिस क्षेत्र या खंड में कानून बनाये जाने की आवश्यकता है, उस क्षेत्र में कोई कानून ही अधिनियमित नहीं किया गया। उदाहरण के तौर पर भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के लिए कोई व्याप्त अधिनियम ही नहीं हैं। यहां तक कि संविधान में प्रारंभ से ही ‘राजनीतिक दल’, के नाम का उल्लेख तक सम्मिलित नहीं किया गया है। वर्ष 1985 में जब दल बदलू विरोधी कानून लाया गया, तब संवैधानिक संशोधन कर ‘राजनीतिक दल’ नाम संविधान में शामिल किया गया था। लेकिन यह केवल ‘राजनीतिक दलों’ के लाभ हेतु किया गया था, न कि इनके नियंत्रण के लिए। मगर यहां भी महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि क्या राजनीतिक दलों व राजनीतिज्ञों को समाज में बिना नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपक्व किए समाज में राजनीति का शोधन व परिमार्जन किया जा सकता है? क्या राजनीति में व्याप्त अपराध व दमनकारी नजरिए को बिना आत्मिक चिंतन व शोध के हटाया जा सकता है। ऐसे अनेकों प्रश्नों का उठना सा स्वाभाविक सा है।

स्वामी विवेकानंद शिक्षा के माध्यम से इन सभी सामाजिक और वैश्विक बुराइयों का समाधान चाहते थे। आध्यात्मिक शिक्षा आत्मिक-जागरण हेतु मनुष्य की प्राथमिक और मौलिक अनिवार्यता होती है। वर्तमान समय में हमारे देश में कानूनों का अंधाधुंध निर्माण अभिशाप बनता हुआ प्रतीत हो रहा है। मात्र कानून बना देने से अपराध पर प्रभावी नियंत्रण अथवा संवैधानिक न्याय प्राप्त कर पाना संभव प्रतीत नहीं होता। नैतिक और नैतिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार विशेष रूप से युवाओं के मध्य, भारतीय समाज के सर्वांगीण विकास के लिए अति आवश्यक है।

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