हिमशिखर धर्म डेस्क
कालीमठ
शारदीय नवरात्र पर्व पर आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की त्रिवेणी सिद्धपीठ कालीमठ और कालीशिला में बड़ी संख्या में भक्त मां काली के दर्शन के लिए पहुंच रहे हैं। प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में शारदीय नवरात्र के अवसर पर आज अष्टमी की रात्रि को विशेष पूजा-अर्चना होगी। जिले के साथ ही देश भर से बड़ी संख्या में यहां भक्तों की भीड़ उमड़ रही है।
पुजारी दिनेश गौड़ ने बताया कि आज रात को सबसे पहले स्थानीय लोग वाद्य यंत्रों के साथ हाथ में मशाल लेकर सीटी और शोर मचाते हुए सभी मंदिरों की परिक्रमा करेंगे। इसके बाद इन जलती हुई मशालों को सरस्वती नदी के किनारे स्थित रक्तबीज शिला की ओर फेंक देते हैं। इस प्रक्रिया को दैंत्य हांकना कहा जाता है। इसके बाद महाकाली मंदिर में चारों ओर अंधेरा कर दिया जाएगा और मंदिर के गर्भ गृह स्थित कुंडी का प्रक्षालन किया जाएगा। खास बात यह है कि इस कुंडी को साल में एक दिन शारदीय नवरात्रि की अष्टमी को खोला जाता है। इससे बड़ी बात यह है कि कुंडी प्रक्षालन भद्रा के समय किया जाता है। इसके बाद फूल मालाओं से मां काली के अंगों को ढक दिया जाएगा। फिर उजाला करने के बाद महालक्ष्मी की डोली अपने मंदिर से बाहर लाकर भक्तों को दर्शन देते हुए महाकाली मंदिर में प्रतिष्ठित की जाती है। इसके बाद कुंडी में महानिशा पूजन, महा अष्टमी और प्रहर पूजन किया जाएगा। फिर महालक्ष्मी की डोली बाहर आकर अपने मंदिर में प्रतिष्ठित की जाएगी। इस दौरान 17 ढोल दमाऊं के द्वारा डोली नृत्य उत्सव होगा।
शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि प्राचीन काल में जब आसुरी शक्तियों से देवतागण प्रताड़ित होने लगे, देवताओं ने मां काली की उपासना की। देवताओं की तपस्या से प्रसन्न होकर मां काली ने देवताओं की समस्या पूछी। देवताओं ने बताया कि रक्तबीज नामक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया है और देवतागण भागते फिर रहे हैं। मां काली क्रोधित हो गई और कालीमठ नामक स्थान पर रक्तबीज के साथ कई माह तक युद्ध करने के बाद उसका वध करके गर्भगृह में समा गयी। तब से लेकर आज तक मां काली के सभी रूपों की पूजा कालीमठ में होती है। नवरात्रि की अष्टमी के दिन कालीमठ में मेले का आयोजन किया जाता है।
मां काली ने किया था रक्तबीज नामक दैत्य का वध
मां काली ने इस स्थान पर रक्तबीज नामक दैत्य का वध किया था। साथ ही देवताओं को यहां पर काली रूप में दर्शन दिये थे।कालीमठ में मां काली, महालक्ष्मी और सरस्वती के रूप में देवी का पूजन होता है। इस दिव्य स्थान में प्राचीनकाल से अखंड धुनी प्रज्जवलित है। मान्यता है कि इस धुनी को धारण करने से भूत-पिचाश की बाधाएं दूर होती हैं। इसके अलावा भैरव, क्षेत्रपाल, सिद्धेश्वर महादेव सहित गौरीशंकर के मंदिर भी विद्यमान हैं।
जब रक्तबीज राक्षस का देवताओं से युद्ध चल रहा था तो उससे छुटकारा पाने के लिये देवताओं ने देवी की स्तुति की थी। जिसके बाद देवी ने काली रूप में यहां पर देवताओं को दर्शन देकर रक्तबीज राक्षस का वध किया था। जिसके बाद से इस स्थान को सिद्धपीठ कालीमठ कहा जाता है।
यह मंदिर नागर शैली में बना है। मान्यता है कि जब महाकाली रक्तबीज दैत्य का वध करने के बाद शांत नहीं हुई तो शिवजी मां के चरणों के नीचे लेट गए। जैसे ही महाकाली ने शिवजी के सीने में पैर रखा, वह शांत होकर इसी कुंड में समा गई।