पंडित उदय शंकर भट्ट
हमारे भारतीय परिवारों में आज्ञा और आदर ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। विदेशों में मामला थोड़ा अलग हो जाता है। वहां अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता का आदर तो करते हैं, लेकिन आज्ञा को उतना महत्व नहीं देते। भारत में आज्ञा भी बहुत महत्व रखती है। आज से पचास-साठ साल पहले तो यहां माता-पिता की आज्ञा सर्वोपरि थी। और खास बात यह कि वे जुबान से भी नहीं बोलते थे। आंखों से आज्ञा देते और बच्चे मान लेते थे।
हालांकि अब यह सब सुनकर आश्चर्य होता है। इस बदलते दौर में आज के बच्चों को यह समझना पड़ेगा कि यदि आप पैरेंट्स को आदर दे रहे हैं तो उनकी आज्ञा को भी समझें। वहीं माता-पिता को भी ठीक से समझना होगा कि आज्ञा के पीछे केवल रूल या नियम न हो। इस तरह का भाव न हो कि हम माता-पिता हैं और कोई आज्ञा दी है तो मानना ही पड़ेगी।
इस दौर में आपने बच्चों की परवरिश इस ढंग से कर दी है कि वे आज्ञा के पीछे तर्क रखेंगे। तो अब हर माता-पिता को आज्ञा के पीछे उसका इरादा भी समझाना पड़ेगा कि क्यों दी जा रही है और बच्चे के लिए वह किस तरह हितकारी होगी। फिर आज्ञा और आदर एक साथ चलेंगे। और, जिस घर में ये दोनों एक साथ चलेंगे, वहां फिर अलग से वैकुंठ उतारने की जरूरत नहीं होगी। वह घर ही वैकुंठ हो जाएगा।