हिमशिखर धर्म डेस्क
एक बार अगस्त्य ऋषि यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने हवि देने के लिए इंद्र का आह्वान किया। अब इंद्र ठहरे स्वर्ग के राजा, समय पर कैसे पहुंच जाते। उन्हें देर से आता देखकर उस हवि को अगस्त्य ऋषि ने मरुत गणों को दे दिया जिसका इंद्र को बहुत पश्चाताप हुआ।
संसार में वे ही लोग सफल होते हैं- एक वे जिसे आने वाली स्थितियों का पूर्वाभास हो जाए और बचने का उपाय पहले ही कर ले। बाधाओं से वे एक कदम हमेशा आगे रहते हैं और आग लगने पर कुआं नहीं खोदते बल्कि पानी का इंतजाम पहले से कर लेते हैं। आने वाली मुश्किलों का पूर्वाभास हो जाना, यह क्षमता उन्हीं लोगों में विकसित होती है जो या तो अपने काम में माहिर हैं, या जिनका अंतर्ज्ञान बहुत प्रखर है। ऐसे लोगों की सफलता प्राप्ति में किसी किस्म का संदेह नहीं होता है। दूसरे, वे ही लोग हमेशा सफल होते हैं जो अपनी हर समस्या का तत्काल निवारण कर लेते हैं। किसी भी मसले को तत्परता से सुलझा देना इनकी खासियत होती है।
संसार में 2 प्रकार के व्यक्ति हैं एक वो जो कामनाओं के अनुसार जीवन जीते हैं दूसरे वो जो ईश्वर की इच्छा में संतुष्ट रहते हैं और यदि किसी वस्तु की आवश्यकता होती भी है तो उसके लिए संसार पर नहीं ईश्वर पर ही आश्रित रहते हैं।
ये किसी कामना की पूर्ति का आग्रह ईश्वर से नहीं करते ये मात्र निवेदन करते हैं के यदि मेरी यह कामना धर्म के अनुकूल हो और मेरी इस प्रकार की योग्यता हो तभी मुझे यह वस्तु मिले और यदि इस वस्तु की कामना में मेरे विकारों की प्रधानता हो या अमुक स्थिति मेरे अनुकूल ना हो तो इस इच्छा की पूर्ति ना हो… भक्त इस प्रकार अपनी कामना को ईश्वर को समर्पित कर के स्वयं उस से प्रथक हो जाता है और परिणाम जो भी हो उसे ईश्वर की कृपा मानकर ही स्वीकार करता है।
इस प्रकार कामना के होते हुए भी भक्त राग, द्वेष में नहीं बंधता और सदा आनंदित रहते हुए अपना कर्तव्य कर्म करता है। दूसरी ओर संसार से कामना रखने वाला और अपने को करता मानने वाला व्यक्ति कामना की पूर्ति ना होने पर शोक, चिंता, द्वेष, ईर्ष्या आदि विकारों में फस कर निरंतर कष्ट ही पाता है और जो प्राप्त नहीं हुआ उसके लिए शोक करता रहता है।
वास्तव में ये दृष्टिकोण का भेद है जिसके कारण यह स्थिति बनती है की, भक्त को कभी दुखी नहीं किया जा सकता और भोगी को कभी सुखी नहीं किया जा सकता…
प्रत्येक व्यक्ति को इस विषय में अपनी स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिए। इस प्रकार कामना के होते हुए भी भक्त राग, द्वेष में नहीं बंधता और सदा आनंदित रहते हुए अपना कर्तव्य कर्म करता है।
दूसरी ओर संसार से कामना रखने वाला और अपने को करता मानने वाला व्यक्ति कामना की पूर्ति ना होने पर शोक, चिंता, द्वेष, ईर्ष्या आदि विकारों में फस कर निरंतर कष्ट ही पाता है और जो प्राप्त नहीं हुआ उसके लिए शोक करता रहता हैं।