पंडित हर्षमणि बहुगुणा
कलयुग में गाय, गंगा, गीता व गायत्री की महत्ता बहुत ही अधिक है। गोवत्स द्वादशी गौ माता की महिमा का बखान करने वाला पर्व है। इस बार यह आज के दिन है। आज सायंकाल के समय जब गाय चर कर वापस आये, तब गौ माता और बछड़े का पूजन करना चाहिए।
असलीयत में भगवान श्रीकृष्ण ने गाय को सबसे अधिक प्रेम और मान्यता दिलाई है। वे तो खुद ही गोविन्द कहलाए। गाय को महाभारत में सर्वदेवमय कहा गया है।
जिन पर भी शनि की साढ़ेसाती या शनि की ढैया चल रही है, उन्हें इस दिन गायों को हरा चारा अपने हाथ से जरूर खिलाएं।
गाय की सेवा सेवा से आरोग्यता, धन धान्य तथा सभी फल मिलते हैं। महाराज दिलीप ने गौ सेवा की व उससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, गौ सेवा महाराज दिलीप की अनुपम थी, कविकुल गुरु कालीदास ने अपने रघुवंश महाकाव्य में बहुत अच्छा वर्णन कर रखा है। उन्होंने ने कहा कि —
स्थित: स्थितामुच्चलित: प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धधीर: ।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ।।
महाराज दिलीप सन्तान सुख के लिए गाय की सेवा अनन्य भाव से करते थे। वह खड़ी रहती तो राजा खड़े रहते, वह चलती तो राजा भी चलते। वह बैठती तो राजा भी बैठते, वह पानी पीती तो राजा भी पानी पीते। ठीक छाया की तरह राजा गाय का अनुगमन करते थे। (रघु०/२/६)
गाय की सेवा से मृत्यु तक को अपने अधीन किया जा सकता है। जीवन सात्त्विक बनता है। भगवद्भक्ति, गौसेवा व राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित व्यक्ति का हृदय, मन और मस्तिष्क शक्ति शाली बनता है । ऐसे व्यक्ति की इच्छा शक्ति भीष्म पितामह की तरह प्रबल हो जाती है। अतः किसी न किसी रूप में गाय सेवा को प्रमुखता देनी चाहिए। यही कारण है कि कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि ‘गोवत्सद्वादशी’ के नाम से जानी जाती है। इस दिन व्रत का विधान है,— ‘वत्स पूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेऽहनि। ‘
गौमाता को गौग्रास देकर चरणों में अर्घ्य देकर प्रणाम करना श्रेयस्कर है।
सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैरलंकृते ।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि ।।
“ब्रह्मचर्य पूर्वक पृथ्वी पर शयन करना चाहिए, तवे पर पकाया भोजन नहीं करना चाहिए। इसके प्रभाव से मानव सभी सुखों का उपभोग कर ,गाय के शरीर में जितने रोएं उतने वर्षों तक गोलोकवास करता है। महर्षि भृगु ने गाय की सुरक्षा की, वह गाय जो भगवान शंकर ने परीक्षा हेतु निर्मित की थी परीक्षा में सफल होते ही शंकर भगवान प्रकट हुए मां पार्वती ने भी गौरूप छोड़ा, ऋषियों ने भगवान शंकर व मां पार्वती का पूजन किया, उस दिन कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि थी।
तब से गोवत्स द्वादशी के व्रत का प्रारम्भ हुआ। महाराज उत्तान पाद ने भी इस व्रत का प्रचार किया क्योंकि महारानी सुनीति ने इस व्रत के प्रभाव से ध्रुव जैसे पुत्र को प्राप्त किया। आज भी माताएं पुत्र रक्षा एवं सन्तान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं।
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