सुप्रभातम् : भगवान की इच्छा से अपनी इच्छा मिला लेना ही सच्ची भक्ति है

काका हरिओम्

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एक दिन प्रह्लाद मिश्र जी से मानस सत्संग पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा, ‘नट मर्कट इव सबहिं नचावत’, तो बोले, ‘ठीक है, यह भी एक दृष्टि है जीवन को देखने की, लेकिन खामी है इसमें। मर्कट की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह नाचे। वह मना भी कर सकता है कि अभी मन नहीं है नाचने का। अभी उसका मन है। अ + मन नहीं हुआ है। इसीलिए उसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। अभी कमी है। डोल सकता है मन।’

‘तो फिर?’ मैंने पूछा। बोले, ‘दारुयोषित की नांईं, सबहिं नचावत’, अर्थात भगवान की इच्छा से नाचने वाली कठपुतली बन जाता है भक्त। यह सामान्य घटना नहीं है। अध्यात्म की दृष्टि से यह अलौकिक और दिव्य है, यही है समर्पण-सम्पूर्ण समर्पण। कठपुतली की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह कुछ नहीं करती, नट का उपकरण बन जाती है। यदि कहा जाए की यहाँ भक्त भक्त नहीं रहता, स्वयं भगवान बन जाता है। भक्त और भगवान का एक होना है यह। ज्ञान की दृष्टि से इसी स्थिति को ”ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति” कहा गया है।

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हनुमान जी ने जब लंका की ओर प्रस्थान किया, तो उनकी शक्ति अमोघ थी। सारी प्रतिकूलता अपने आप अनुकूल हो रही थीं। ऐसा क्यों हो रहा था, इसका सूत्र है यह कथन- ”जिमि अमोघ रघुपति कर बाना, एहि भाँति चलेउ हनुमाना।” हनुमान जी भगवान राम के बाण बन गए। बाण की अपनी कोई इच्छा नहीं होती धनुर्धर उसे जिस ओर ले जाना चाहता है, वह उसी ओर जाता है।

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बाण के पीछे शक्ति भी धनुर्धर की ही होती है। वह तो छोड़ देता है स्वयं को। वह पानी के बहने वाले सूखे पत्ते की तरह बहता है, जिस ओर जल की धारा उसे बहा ले जाए। इस तरह तैरना नहीं, तिरना है भक्ति। इसी दृष्टि से ज्ञानी और भक्त दोनों एक ही हैं।

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