मानव ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। श्रेष्ठतम देह प्रदान करने के साथ ईश्वर ने मानव के भीतर अनंत संभावनाओं का सागर भी गर्भित किया है। उस संभावना को निखारने का नाम प्रकृति है। हमारे यहां तीन शब्द बड़े अच्छे आए हैं- प्रकृति, विकृति और संस्कृति। शास्त्रों में अलग-अलग ढंग से इन पर चर्चा भी होती आई है। प्रकृति हमें जन्म से मिली है, विकृति हम कर्म से पैदा करते हैं और इन दोनों से जो अच्छा किया जाता है उसे संस्कृति कहा गया है।
चूंकि हम मनुष्य हैं तो हमें अपनी प्रकृति का विकास करना चाहिए, विकृति से अपने आपको बचाना चाहिए और इन दोनों से पार जाते हुए संस्कृति के साथ जीवन जीना चाहिए। बात थोड़ी कठिन लग रही है, पर इसे यूं आसानी से समझें कि हमारे भीतर जो भी योग्यता है और उसे जब निखारेंगे तो वह हमारी मूल प्रकृति है। लेकिन जब हम आगे बढ़ रहे होंगे तो हमारे आसपास बहुत सारे लोग होंगे जो आलोचक या ईर्ष्यालु भी हो सकते हैं, उन पर यदि रुक गए, उनसे उलझ गए तो यह विकृति होगी।
उन सबको भूलकर आगे बढ़ें। यदि उन पर ठहर गए तो वो फिर आपके साथ ही चलते रहेंगे। यदि उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ गए तो विकृति से बच जाएंगे। जब प्रकृति के साथ आगे बढ़ेंगे, विकृति को पीछे छोड़ देंगे तो पाएंगे आप एक दिव्य संस्कृति में हैं। संस्कृति का अर्थ होता है एक ऐसा अनुशासित जीवन जिसमें आपके पास सफलता भी है और शांति भी। यदि सफलता के साथ शांति चाहते हैं तो इन तीन शब्दों को ठीक से समझकर जीवन में इनका उपयोग कीजिए।