हिमशिखर धर्म डेस्क
वैशम्पायनजी कहते हैं–‘जनमेजय ! बुद्धि में बृहस्पति, क्षमा में ब्रह्माजी, पराक्रम में इन्द्र और तेज में सूर्य के समान गंगानन्दन भीष्मजी जब वीर-शय्या पर पड़े हुए काल की बाट जोह रहे थे और राजा युधिष्ठिर उनसे तरह-तरह के प्रश्न कर रहे थे, उसी समय बहुत से दिव्य महर्षि भीष्मजी को देखने के लिये आये।
उनके नाम ये हैं–अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, अगस्त्य, सुमति, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रमति, दम, बृहस्पति, शुक्राचार्य, व्यास, च्यवन, काश्यप, ध्रुव, दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, रैभ्य, यवक्रीत, त्रित, स्थूलाक्ष, शबलाक्ष, कण्व, मेधातिथि, कृश, नारद, पर्वत, सुधन्वा, एकत, नितम्भू, भुवन, धौम्य, शतानन्द अकृतव्रण, परशुराम और कच। ये सभी महात्मा जब वहाँ पधारे तो भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने उनकी विधिवत् पूजा की। तत्पश्चात् वे सुख पूर्वक बैठकर भीष्मजी से सम्बन्ध रखने वाली मधुर एवं मनोहर कथाएँ कहने लगे।
शुद्ध चित्त वाले उन महर्षियों की बातें सुनकर भीष्मजी बहुत सन्तुष्ट हुए। तदनन्तर, वे महर्षिगण भीष्मजी और पाण्डवों की अनुमति लेकर सबके देखते-देखते वहाँ से अदृश्य हो गये।
उसके बाद धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने भीष्मजी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और पुनः उनसे धर्मविषयक प्रश्न पूछा–‘पितामह ! कौन-से देश, कौन-से प्रान्त, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियाँ पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं ?’
भीष्मजी ने कहा–‘युधिष्ठिर! इस विषय में शिलोञ्छवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक पुरुष का किसी सिद्ध पुरुष के साथ जो संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास सुनो–कोई सिद्ध पुरुष समूची पृथ्वी की अनेकों बार परिक्रमा करने के बाद शिलोञ्छवृत्ति से जीविका चलाने वाले एक श्रेष्ठ गृहस्थ के घर गया। उसने इसकी विधिवत् पूजा की और यह प्रसन्न होकर बड़े सुख के साथ रात भर उस गृहस्थ के घर में रहा।
सबेरा होने पर वह गृहस्थ स्नानादि से पवित्र होकर प्रातःकालिक नित्यकर्म में लग गया। जब उससे निवृत्त हुआ तो फिर उस सिद्ध अतिथि की सेवा में आ पहुँचा। फिर दोनों महात्मा सुख पूर्वक बैठकर वेद-वेदान्त विषयक चर्चा करने लगे।
थोड़ी देर बाद शिलोञ्छवृत्ति वाले गृहस्थ ब्राह्मण ने तुम्हारी ही तरह प्रश्न किया–‘कौन-कौन-से देश, जनपद (प्रान्त), आश्रम, पर्वत और नदियाँ पुण्य की दृष्टि से सर्वोत्तम समझने योग्य हैं ?’
सिद्ध ने कहा–‘ब्रह्मन् ! वे ही देश, जनपद, आश्रम और पर्वत पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके बीच से होकर नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी बहती हैं। गंगाजी का सेवन करके जीव जिस उत्तम गति को प्राप्त करता है, वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ और त्याग से भी नहीं मिल सकती। जिन देहधारियों के शरीर गंगाजी के जल से भीगते हैं अथवा मरने पर जिनकी हड्डियाँ गंगाजी में डाली जाती हैं, वे कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिरते।
जिन मनुष्यों के सम्पूर्ण कार्य गंगाजल से ही सम्पन्न होते हैं, वे मरने के बाद पृथ्वी का निवास छोड़कर स्वर्ग में विराजमान होते हैं। जो जीवन की पहली अवस्था में पापकर्म करके पीछे भी गंगाजी का सेवन करते हैं, वे भी उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
गंगा के पवित्र जल से स्नान करके जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन पुरुषों के पुण्य की जैसी वृद्धि होती है, वैसी सैकड़ों यज्ञ करने से भी नहीं हो सकती। मनुष्य की हड्डी जितने वर्ष तक गंगाजल में पड़ी रहती है, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
जैसे सूर्य उदयकाल में घने अन्धकार को विदीर्ण करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गंगाजल में स्नान करने वाला पुरुष अपने पापों को नष्ट करके सुशोभित होता है। जो देश और दिशाएँ गंगाजी के कल्याणमय जल से वंचित हैं, वे बिना चाँदनी की रात और पुष्पहीन वृक्ष की भाँति शोभा नहीं पातीं।
जैसे सूर्य के बिना आकाश की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार गंगा से रहित देश और दिशाएँ भी श्रीहीन जान पड़ती हैं। तीनों लोक में जो कोई प्राणी हैं, वे सभी गंगा के उत्तम जल से तर्पण करने पर अत्यन्त तृप्त होते हैं। जो मनुष्य सूर्य की किरणों से तपे हुए गंगाजल का पान करता है, वह गाय के गोबर से निकले हुए जौ की लप्सी खाने वाले पुरुष से अधिक पवित्र माना जाता है।
एक मनुष्य शरीर का शोधन करने वाले एक हजार चान्द्रायण व्रत का आचरण करे और दूसरा केवल गंगाजी के जल का पान करे तो उन दोनों में शायद ही समानता हो। एक हजार युगों तक एक पैरसे खड़ा होकर तपस्या करने वाला पुरुष एक महीने तक गंगास्नान करने वाले पुरुष की बराबरी कर सकता है या नहीं, इसमें सन्देह है।
एक मनुष्य दस हजार युगों तक नीचे सिर करके वृक्ष में लटका रहे और दूसरा इच्छानुसार गंगाजी के तटपर निवास करे तो पहले की अपेक्षा दूसरा ही श्रेष्ठ है। जैसे आग में डाली हुई रूई तुरन्त जलकर भस्म हो जाती है, उसी तरह गंगा में गोता लगाने वाले मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
इस संसार में जो लोग दुःखों से व्याकुल होकर अपने लिये कोई आश्रय ढूँढ़ रहे हैं, उन सबके लिये गंगा के समान दूसरा कोई सहारा नहीं है। जैसे गरुड़ को देखते ही सम्पूर्ण सर्पों के विष झड़ जाते हैं, उसी प्रकार गंगाजी के दर्शन मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है।
जगत् में जिनका कहीं आधार नहीं है तथा जिन्होंने धर्म की शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देने वाली श्रीगंगाजी ही हैं। वे ही उसका कल्याण करने वाली तथा वे ही कवच की भाँति उसे सुरक्षित रखने वाली हैं। जो नीच अनेकों बड़े-बड़े अशुभ पापों से ग्रस्त होकर नरक में पड़ने वाले हैं, वे भी यदि गंगा की शरण में आ जाते हैं तो ये मरने के बाद उनका उद्धार कर देती हैं।
जो सदा गंगा में स्नान करने जाया करते हैं, वे निश्चय ही मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं के समान माने जाते हैं। विनय और सदाचार से हीन, अमंगलकारी तथा नीच मनुष्य भी गंगा की शरण में जाने पर शिवस्वरूप हो जाते हैं। जैसे देवताओं को अमृत, पितरों को स्वधा और नागों को सुधा तृप्त करती हैं, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये गंगाजल ही पूर्ण तृप्ति का साधन है।
जैसे भूखे हुए बच्चे माता के पास जाते हैं, उसी प्रकार कल्याण चाहने वाले प्राणी गंगाजी की उपासना करते हैं। जैसे ब्रह्मलोक सब लोकों से श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसे ही स्नान करने वाले पुरुषों के लिये गंगा ही सब नदियों में श्रेष्ठ कही गयी हैं। जो मनुष्य गंगा के तीर की मिट्टी अपने मस्तक में लगाता है, वह अज्ञानान्धकार का नाश करने के लिये सूर्य के समान निर्मल स्वरूप धारण करता है।
गंगा की तरंग-मालाओं का चुम्बन करके बहने वाली वायु जब मनुष्य के शरीर का स्पर्श करती है, उसी समय वह उसके सारे पापों को नष्ट कर देती है। दुःखों से संतप्त होकर मृत्यु की घड़ियाँ गिनने वाला मनुष्य भी यदि गंगाजी का दर्शन करे तो उसे इतनी प्रसन्नता होती है कि उसकी सारी पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है। गंगा के तट पर निवास करने से जो सुख–जो आनन्द मिलता है, वह स्वर्ग में रहकर सम्पूर्ण भोगों का अनुभव करने से भी नहीं मिल सकता।
मन, वाणी और क्रिया द्वारा होने वाले पापों से ग्रस्त मनुष्य भी यदि गंगाजी का दर्शन करे तो वह परम पवित्र हो जाता है, इस विषय में मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। गंगाजी का दर्शन, उनके जल का स्पर्श तथा उनके भीतर डुबकी लगाने से मनुष्य सात पीढ़ी तक आगे होने वाली सन्तानों को और सात पीढ़ी तथा उससे भी ऊपर के पितरों का उद्धार कर देता है।
जो पुरुष गंगाजी का माहात्म्य सुनता, उनके तट पर जाने की अभिलाषा करता, उनका दर्शन करता, जल पीता, स्पर्श करता तथा उनके भीतर गोते लगाता है, उसके दोनों कुलों का भगवती गंगा उद्धार कर देती हैं। गंगाजी अपने दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा नाम कीर्तन मात्र से सैकड़ों और हजारों पापियों को तार देती हैं।
जो पुरुष अपना जन्म, जीवन तथा अपनी विद्या को सफल करना चाहता हो उसे गंगा तट पर जाकर देवताओं और पितरों का तर्पण करना चाहिये। मनुष्य गंगा स्नान करके जिस अक्षय फल को प्राप्त करता है वह पुत्र, धन तथा किसी क्रिया के द्वारा नहीं मिल सकता। जो शक्ति रहते हुए भी पवित्र जल वाली कल्याणमयी गंगा का दर्शन नहीं करते, वे जन्म के अन्धे, लुंजे और मुर्दे के समान हैं।
भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता महर्षि तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी उपासना करते हैं और विद्वान् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी भी जिनकी शरण लेते हैं, ऐसी गंगाजी का कौन मनुष्य आश्रय न लेगा ? जो मनुष्य प्राण निकलते समय मन-ही-मन गंगाजी का स्मरण करता है, उसे परमगति की प्राप्ति होती है।
जो जीवनपर्यन्त गंगा की उपासना करता है, उसे भय देने वाले पापों से तनिक भी भय नहीं होता। आकाश से गिरती हुई जिन परम पवित्र गंगाजी को भगवान् शंकर ने अपने सिर पर धारण किया तथा जिन्होंने तीन निर्मल मार्गों से प्रवाहित होकर तीनों लोकों की शोभा बढ़ायी है, उनके जल का सेवन करने वाला मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। (गंगाजी में भक्ति रखने वाले पुरुष को) माता, पिता, पुत्र, स्त्री और धन का वियोग होने से भी उतना दुःख नहीं होता जितना गंगा के विछोह से होता है।
गंगाजी के दर्शन से जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी वन में भ्रमण करने, अभीष्ट विषयों को भोगने तथा पुत्र और धन पाने से भी नहीं होती। जो गंगाजी में श्रद्धा रखता, उन्हीं में मन लगाता, उन्हीं के पास रहता, उन्हीं का आश्रय लेता तथा भक्ति पूर्वक उन्हीं का अनुसरण करता है, वह भगवती भागीरथी का प्रिय होता है।
पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग में रहने वाले छोटे-बड़े सभी प्राणियों को सदा गंगाजी में स्नान करना चाहिये। यही सत्पुरुषों का सबसे उत्तम कार्य हैं। आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, दिशा और विदिशाओं में भी जिनकी ख्याति फैली हुई है, सरिताओं में श्रेष्ठ उन भगवती भागीरथी के जल का सेवन करके सभी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं।
जो दूसरे मनुष्यों को ‘ये गंगाजी हैं’ ऐसा कहकर उनका दर्शन कराता है, उसके लिये भगवती भागीरथी ही प्रतिष्ठा (अक्षय पद प्रदान करने वाली) हैं। वे कार्तिकेय और सुवर्ण को अपने गर्भ में धारण करने वाली, पवित्र जल की धारा बहाने वाली और पाप दूर करने वाली हैं। वे आकाश से पृथ्वी पर उतरी हुई हैं। उनका जल सम्पूर्ण जगत् के लिये पेय है। उनमें प्रातः काल स्नान करने से धर्म, अर्थ, काम तीनों वर्गों की सिद्धि होती है।
गंगाजी गिरिराज हिमालय की कन्या, भगवान् शंकर की पत्नी तथा स्वर्ग और पृथ्वी की शोभा हैं। वे भूमण्डल पर निवास करने वाले प्राणियों का कल्याण करने वाली, परम सौभाग्यवती तथा तीनों लोकों को पुण्य प्रदान करने वाली हैं। श्रीभागीरथी मधु का स्रोत एवं पवित्र जल की धारा बहाती हैं। जलते हुए घी की ज्वाला के समान उनका प्रकाश है।
वे अपने भीतर स्नान-संध्या आदि करने वाले ब्राह्मणों और उत्ताल तरंगों के द्वारा सुशोभित होती हैं। वे सबसे पहले स्वर्गलोक से नीचे की ओर चलीं, उस समय भगवान् शंकर ने उन्हें अपने सिर पर धारण किया। फिर हिमालय पर्वत पर आकर वहाँ से वे इस पृथ्वी पर उतरी हैं।
श्रीगंगाजी स्वर्ग की जननी हैं। सबका कारण, सबसे श्रेष्ठ, रजोगुण से रहित, अत्यन्त सूक्ष्म, मरे हुए प्राणियों के लिये सुखद शय्या, पवित्र जल का स्रोत बहाने वाली, यश देने वाली, जगत् की रक्षा करने वाली, सत्स्वरूपा तथा सिद्धगणों की अभीष्ट देवी भगवती गंगा अपने भीतर स्नान करने वालों के लिये स्वर्ग का मार्ग बन जाती हैं।
क्षमा, रक्षा तथा धारण करने में पृथ्वी के समान और तेज में अग्नि तथा सूर्य के समान शोभा पाने वाली गंगाजी स्वामी कार्तिकेय की माननीया माता हैं और ब्राह्मण जाति पर अनुग्रह करने के कारण ब्राह्मण भी उनका सदा सम्मान करते हैं।
ऋषियों के द्वारा जिनकी स्तुति होती है, जो भगवान् विष्णु के चरणों से उत्पन्न, अत्यन्त प्राचीन तथा परमपावन जल से भरी हुई हैं, उन भगवती भागीरथी की मन से भी शरण लेने वाले मनुष्य ब्रह्मधाम को प्राप्त होते हैं। जैसे माता अपने पुत्रों को स्नेहभरी दृष्टि से देखती है, वैसे ही गंगाजी सर्वात्मभाव से अपने आश्रय में आये हुए प्राणियों को कृपादृष्टि से देखकर उन्हें सर्वगुण सम्पन्न लोक प्रदान करती हैं।
इसलिये जो ब्रह्मलोक को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें अपने मन को वश में करके सदा मातृभाव से गंगाजी की उपासना करनी चाहिये। जो अमृतमयी, दूध देने वाली गौ के समान सबको पुष्ट करने वाली, सब कुछ देखने वाली, सम्पूर्ण जगत् के उपयोग में आने वाली, अन्न देने वाली तथा पर्वतों को धारण करने वाली हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिनका आश्रय लेते हैं और जिन्हें ब्रह्माजी भी प्राप्त करना चाहते हैं, उन भगवती गंगाजी का मोक्षाभिलाषी पुरुषों को अवश्य आश्रय लेना चाहिये। राजा भगीरथ अपनी उग्र तपस्या से भगवान् शंकर सहित सम्पूर्ण देवताओं को प्रसन्न करके गंगाजी को इस पृथ्वी पर ले आये। उनकी शरण जाने से मनुष्य को इस लोक और परलोक में भय नहीं रहता।
ब्रह्मन् ! मैंने अपनी बुद्धि से सोचकर यहाँ गंगाजी के गुणों का एक अंश बतलाया है। मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं उनके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन कर सकूँ। कदाचित् पूरा यत्न करने से मेरुगिरि के रत्नों और समुद्र के पानी की माप बतायी जा सकती है, किन्तु गंगाजल के गुणों का वर्णन करना असम्भव है। अतः मैंने बड़ी श्रद्धा के साथ जो ये गंगाजी के गुण बतलाये हैं, उन पर विश्वास करके मन, वाणी, क्रिया, भक्ति और श्रद्धा के साथ तुम उनकी आराधना करो।
इससे तुम बहुत शीघ्र दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर और तीनों लोकों में अपने यश का विस्तारकर गंगाजी की सेवा से प्राप्त हुए अभीष्ट लोकों में इच्छानुसार विचरोगे। महान् प्रभाववाली भगवती भागीरथी तुम्हारी और मेरी बुद्धि को सदा स्वधर्मानुकूल गुणों से युक्त करें। श्रीगंगाजी बड़ी भक्तवत्सला हैं, वे संसार में अपने भक्तों को सुखी बनाती हैं।
भीष्मजी कहते हैं–‘युधिष्ठिर ! वह उत्तम बुद्धि वाला परम तेजस्वी सिद्ध शिलोञ्छवृत्ति के द्वारा जीविका चलाने वाले उस ब्राह्मण से त्रिपथगा गंगाजी के यथार्थ गुणों का नाना प्रकार से वर्णन करके आकाश में अन्तर्धान हो गया और वह ब्राह्मण उसके उपदेश से गंगाजी के माहात्म्य को जानकर उनकी विधिवत् उपासना करके परम दुर्लभ सिद्धि को प्राप्त हुआ।
कुन्तीनन्दन ! इसी प्रकार तुम भी पराभक्ति के साथ सदा गंगाजी की उपासना करो; इससे तुम्हें उत्तम सिद्धि प्राप्त होगी।’
वैशम्पायनजी कहते हैं–‘जनमेजय ! भीष्मजी के द्वारा कहे हुए श्रीगंगाजी की स्तुति से युक्त इस इतिहास को सुनकर भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर को बड़ी प्रसन्नता हुई। गंगा के स्तवन से युक्त इस पवित्र इतिहास का जो श्रवण या पाठ करेगा, वह सब पापों से मुक्त हो जायगा।
युधिष्ठिर ने कहा–‘पितामह ! आप बुद्धि, विद्या, सदाचार, शील और सब प्रकार के गुणों से सम्पन्न हैं। आपकी अवस्था भी सबसे बड़ी है। संसार में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिससे सब प्रकार के प्रश्न पूछे जा सकें; अतः यह बताने की कृपा कीजिये कि क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र किस उपाय से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है ? कौन-सी तपस्या, किस कर्म का अनुष्ठान अथवा किस शास्त्र के अध्ययन से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो सकती है ?’
भीष्मजी ने कहा–‘बेटा ! ब्राह्मणत्व प्राप्त करना कठिन है।’ युधिष्ठिर ने पूछा–‘दादाजी! आप तो कहते हैं कि ब्राह्मणत्व की प्राप्ति कठिन है, किन्तु मैंने (आप ही से) सुना है कि पूर्वकाल में राजा वीतहव्य ने भी ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था; अतः आप बताइये, किस वरदान अथवा तपस्या से राजा को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई ?’
भीष्मजी ने कहा–‘युधिष्ठिर ! महायशस्वी राजर्षि वीतहव्य ने जिस प्रकार दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था, उसका वृत्तान्त सुनो। पूर्वकाल में धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करने वाले महात्मा मनु के एक धर्मात्मा पुत्र हुआ, जिसका नाम था शर्याति। शर्याति के वंश में राजा वत्स हुआ, उसके हैहय और तालजंघ नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों ही राजा थे। हैहय (का ही दूसरा नाम वीतहव्य था, उस) के दस स्त्रियाँ थीं, उनके गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो युद्ध से पीछे न हटने वाले और शूरवीर थे। उन दिनों काशी में हर्यश्व नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज्य करते थे, जो दिवोदास के पितामह थे।
वीतहव्य के पुत्रों ने हर्यश्व के राज्य पर चढ़ाई की और उन्हें गंगा-यमुना के बीच (प्रयाग के निकट) युद्ध में मार डाला। तदनन्तर हर्यश्व के पुत्र सुदेव का, जो देवता के समान तेजस्वी और दूसरे धर्म के समान धर्मात्मा था, काशी के राज्य पर अभिषेक किया गया; किन्तु वीतहव्य के पुत्रों ने आकर उसे भी संग्राम में मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद सुदेव का पुत्र दिवोदास काशी का राजा बनाया गया, उस महातेजस्वीने जब मन को वश में रखने वाले वीतहव्य के पुत्रों का पराक्रम सुना तो इन्द्र की आज्ञा से वाराणसी नाम की नगरी बसायी। इसका घेरा गंगाजी के उत्तर तट से लेकर गोमती के दक्षिण किनारे तक फैला हुआ था। इसके भीतर बसी हुई वाराणसी नगरी इन्द्र की अमरावती के समान शोभा पा रही थी। उसमें निवास करते हुए राजा दिवोदास पर भी है। हयवंशी राजाओं ने धावा किया। तब महाबली और तेजस्वी राजा दिवोदास ने पुरी से बाहर निकलकर शत्रुओं के साथ लोहा लिया। दोनों ओर की सेनाओं में एक हजार दिन (दो वर्ष नौ महीने दस दिन) तक देवासुर संग्राम के समान भयंकर युद्ध होता रहा।
इसमें राजा दिवोदास के बहुत-से वाहन और सिपाही काम आये, उनका खजाना खाली हो गया और वे बड़ी बहुत दयनीय अवस्था में पड़ गये। अन्त में अपनी राजधानी छोड़कर वे भाग चले और (प्रयाग) भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर दोनों हाथ जोड़े उनके शरणापन्न हो गये। बृहस्पतिनन्दन भरद्वाजजी बड़े शीलवान् और दिवोदास के पुरोहित थे।
राजा को उपस्थित देखकर उन्होंने पूछा–‘महाराज ! तुम्हें यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी ? अपना सारा समाचार बतलाओ। तुम्हारा जो भी प्रिय कार्य होगा, उसे मैं निःसन्देह पूर्ण करूँगा।’ राजा ने कहा–‘भगवन् ! वीतहव्य के पुत्रों ने मेरे वंश का नाश कर डाला, मैं अकेला ही भागकर आपकी शरण में आया हूँ।’ यह सुनकर महाभाग भरद्वाज मुनि ने कहा–‘सुदेवनन्दन ! तुम डरो मत। मैं एक यज्ञ करूँगा, उससे तुम्हें ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी, जिसकी सहायता से तुम हजारों वीतहव्य के पुत्रों को मार डालोगे।’
यह कहकर भरद्वाज मुनि ने राजा के लिये पुत्रेष्टि नामक यज्ञ किया। उसके प्रभाव से दिवोदास के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो संसार में प्रतर्दन के नाम से प्रसिद्ध था। वह पैदा होते ही इतना बढ़ गया कि तुरन्त तेरह वर्ष की अवस्था का सा दिखायी देने लगा।
उसी समय उसने अपने मुख से सम्पूर्ण वेद और धनुर्वेद का गान किया। भरद्वाज मुनि ने उसे योगशक्ति से सम्पन्न कर दिया और उसके शरीर में सम्पूर्ण जगत् का तेज भर दिया। तदनन्तर, राजकुमार प्रतर्दन ने अपने शरीर पर कवच और धनुष धारण किया, उस समय देवर्षिगण उसका यश गाने लगे। वह ढाल और तलवार बाँधकर अपना धनुष टंकारता बढ़ा। उसे देखकर राजा दिवोदास को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने प्रतर्दन को युवराज बनाकर अपने को कृतकृत्य समझा। इसके बाद दिवोदास ने शत्रुदमन प्रतर्दन को वीतहव्य के पुत्रों का वध करने के हुआ आगे लिये भेजा। पिता की आज्ञा पाकर वह शत्रुविजयी वीर हैहय नगरी की ओर चला और रथ पर बैठे-ही-बैठे गंगा के पार होकर तुरन्त ही वहाँ पहुँच गया।
उसके रथ की घोर घरघराहट सुनकर विचित्र ढंग से युद्ध करने वाले हैहय राजकुमार कवच से सुसज्जित होकर नगराकार विशाल रथों पर बैठे हुए पुरी से बाहर निकले और बाणों की वर्षा करते हुए प्रतर्दन पर चढ़ आये। तब उस तेजस्वी राजकुमार ने अपने अस्त्रों की वर्षासे शत्रुओं के अस्त्रों को रोक दिया और वज्र एवं अग्नि के समान प्रज्वलित बाणों तथा भल्लों से उनके मस्तक काट डाले।
हैहयवीर खून से लथपथ होकर सैकड़ों और हजारों की संख्या में धराशायी हो गये। उस समय वे जड़ से कटे हुए पुष्पित पलास के वृक्षों के समान दिखायी दे रहे थे। पुत्रोंके मारे जाने पर राजा वीतहव्य नगर छोड़कर भाग गये और भृगुजी के आश्रम पर जाकर उन्होंने महर्षि की शरण ली। भृगुजी ने राजा को अभयदान दे दिया। इतने ही में उनके पीछे लगा हुआ राजकुमार प्रतर्दन भी वहाँ आ पहुँचा और आश्रम में जाकर बोला–‘इस आश्रम पर महात्मा भृगु के शिष्य कौन-कौन हैं ? वे लोग उनके पास जाकर मेरे आगमन की सूचना दें, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ।’ महामुनि भृगु को जब प्रतर्दन के आगमन का समाचार मिला तो उन्होंने आश्रम से बाहर आकर उसका विधिवत् सत्कार किया और पूछा–‘राजेन्द्र ! बताओ मुझसे क्या काम है ?’
राजकुमार ने उनसे अपने आने का कारण बतलाते हुए कहा–‘ब्रह्मन् ! राजा वीतहव्य को यहाँ से निकाल दीजिये, इनके पुत्रों ने मेरे समस्त कुल का विध्वंस किया है, काशी का सारा प्रान्त उजाड़ डाला है और वहाँ की रत्न-राशि भी लूट ली है। इन्हें अपने पराक्रम का बड़ा घमण्ड था; किन्तु इनके सौ पुत्रों को मैंने मौत के घाट उतार दिया। अब इनका भी वध करके मैं पिता के ऋण से उऋण हो जाऊँगा।’ यह सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महर्षि भृगु ने दया से द्रवित होकर कहा–‘यहाँ तो कोई भी क्षत्रिय नहीं है, ये सब के सब ब्राह्मण ही हैं।’
सत्यवादी भृगु का यह यथार्थ वचन सुनकर प्रतर्दन ने उनके चरणों में प्रणाम किया और अत्यन्त प्रसन्न होकर धीरे से कहा–‘भगवन् ! यदि ऐसी बात है तो भी मैं कृतार्थ हो गया; क्योंकि मेरे पराक्रम से इस राजा को अपनी जाति त्याग देनी पड़ी। अब आप मुझे जाने की आज्ञा दें और मेरे कल्याण का चिन्तन करें।’
भृगुजी ने प्रतर्दन को जाने की आज्ञा दे दी और वह जैसे आया था वैसे ही लौट गया। इस प्रकार भृगुजी के वचनमात्र से राजा वीतहव्य ब्रह्मर्षि हो गये। क्षत्रिय होकर भी भृगु की कृपा से उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो गयी।