स्वामी कमलानंद (डा कमल टावरी)
पूर्व सचिव भारत सरकार
आज के समय ‘कोउ नृप होय हमें का हानी’ ‘इससे क्या फर्क पड़ता है‘ का समय आ गया है।
मेरे ख्याल से-
उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
सुर नर मुनि सब के यह रीति। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।
जैसे कई नीति ज्ञानवर्द्धक सिद्धांत है जो समय की परीक्षा में खरे उतरे हैं। हिन्द स्वराज में जो प्रश्न सभ्य समाज, शोषण व्यवस्था, विकास के मापदंड, मशीनीकरण की सीमा, भारत ने क्या खोया-पाया, प्राचीन मान्यताएं आदि ऐसे विषय हैं जो इस समय की सरकारी-असरकारी तथा असरकारी प्रयासों, प्रश्नों एवं समग्रवादी विकास में संतुलन स्थायित्व, स्वरोजगार जैसे विषयों को लेकर देखना जरूरी है।
कई महान हस्तियों, चिंतकों आदि के साथ चर्चा-परिचर्चा, सारांश ढूंढते समय निम्नलिखित कुछ निचोड़ मेरी समझ में आए। इसे एक समग्रवादी चर्चा के साथ वातावरण सृजन हेतु आप सभी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपसे अनुरोध है कि इसको व्यावहारिकता, सामयिकता के परिप्रेक्ष्य में अपने विचार देने का कष्ट करें।
1. स्वरोजगार, विकेन्द्रित, उद्यमिता, स्वावलंबन, स्वाभिमान आदि शब्द जैसे केवल कागज पर रह गए है। लगता है इनसे विश्वास प्रेम, सार्थकता, विध्वंसात्मक, शोषणात्मक नीतियों के कारण नहीं हो पा रहा है। हालांकि, हमारे आसपास आशावादी, प्रेरणादायी, प्रोत्साहनात्मक, स्वावलंबी आदि कई लोग हैं, जिनके अध्ययन से आशावादी माहौल बनता है। क्या ऐसे लेखक, पत्रकार, नेतृत्वदायक शिक्षक, सरकारी या गैर सरकारी हैं? क्या इनका पूरा सदुपयोग हो रहा है? क्या ये व्यवस्था को सुचारु बनाने में भागीदार हैं? क्या छेटे-छोटे प्रयासों में इनकी Potency Factor न्यूनतम आर्थिक खर्च में बढ़ाई जा सकती है?
2. दूसरा प्रयास प्रासंगिकता परिभाषाओं को नए सिरे से नापना है। कई प्रचलित शब्द अपना मूल रूप खो चुके हैं एवं वर्तमान में शोषण के प्रामाणिक साधन बन गए हैं। विकास, गति, मानव संसाधन, तकनीक, मार्केट, आनंद संतुष्टता, उत्पादकता आदि शब्द पूर्णत: दिशाविहीन शोषण के हथियार हो गए हैं। शोषण या पोषण, जड़ या चेतन, संगणित बनाम अंकगणित, नीति नियति जैसी श्रृंखलाएं स्वाभिमान से जुड़े प्रश्न परावलंबन परिप्रेक्ष्य से ही तौले-देखे जा रहे हैं। ढर्रे की व्यवस्था में सृजनात्मकता बड़ी लाइन बनाने का विश्वास शायद खो चुकी है। अतः परिभाषाएं विकास के समग्रवादी परिप्रेक्ष्य में पुनरावलोकन करना है।
3. स्वरोजगार, उद्यमिता, पर्यावरणपूरकता, ऐसी हो कि ग्रामीण नियोजन व्यवस्था के लिए व्यावहारिक बन सके। आज के कंप्यूटर के युग में स्वरोजगारी अनुदान के बिना भी प्रगतिशील नेतृत्व गतिशील हो रहा है। ऐसे प्रयासों में नीतियों का बहुत बड़ा स्थान है। भारत जैसे देश में विविधताएं, विषमताएं तथा समस्याएं गंभीर हैं। इनके उत्तर भी स्थान, काल, स्तर को ध्यान में रखकर ही निकलेंगे। अतः विकेंद्रित रोजगार, नियोजन के लिए ‘अ-सरकारी असरकारी नियोजन’ व्यवस्था की कहानी श्री झुमरलालजी टावरी जो कि छत्तीसगढ़ के गांधी के नाम से प्रसिद्ध गोभक्त हैं, ने कई वर्षों पूर्व कही हैं। गांव का केंद्र बिंदु बनाकर ग्रामीण नियोजन अब समय की प्रमुख आवश्यकता है। इसलिए सलाहकार सेवा Rural Business Hub India प्रमुख कार्यक्रम है। इसमें स्थानीय प्रतिभाओं को जोड़कर स्थानीय संसाधनों और बाजार के साथ तालमेल बैठाना, विकास का मूलमंत्र है। Global Vision & Local Action (ग्वाला) का मूल आधार ही ‘स्व श्रृंखला’ है। इस पर हिन्द स्वराज ने अपरोक्ष ढंग से अपेक्षा की थी कि गांव की आर्थिक स्थिति मजबूत करें। यह वर्तमान में संभव है। ऐसा नेतृत्व नीचे से यदि नहीं आ रहा है तो प्रयास करना होगा कि यह कैसे आ सकता है?
4. ‘संघे शक्ति कलियुगे’ के सिद्धांत से ग्राम स्तर को सभी शक्तियां यदि ‘उंगलियों की मुट्ठी’ बनने का ‘शुभ लाभ’ के साथ प्रयास करे, तो विकास की चुनौतियां प्रभावी ढंग से निपटना संभव है। इसके लिए नवयुवकों के साथ खाली पड़े संसाधनों को जोड़कर कई प्रयास चल रहे हैं। इन नीतियों का शुभ लाभ, नेतृत्व का सहयोग यदि मिल जाए तो विकास को गति मिलेगी। इस पर स्थानीय नेतृत्व को जोड़कर संचार तकनीक के साथ किए जा रहे प्रयास प्रशासन में चेतना ला रहे हैं। उनका प्रचार प्रसार Rural Buisness Hub तथा आचार्यकुलम् जैसे प्रयास कर सकते हैं।
5. अपेक्षाएं वर्तमान में बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं और उस पर कार्यक्षमता, कार्य संस्कृक्ति, त्याग, भावना, सहनशीलता, समग्र चिंतन, सीखने की प्रवृत्तियों का ह्रास हो रहा है। ऐसी स्थिति में विकल्प को तलाशना है, क्या ऐसे अपवाद हैं? ये कैसे फैलेंगे और प्रभावी बनेंगे, जिससे विकल्प दौड़ता बने।
समाज, परिवार, शासनतंत्र व्यवस्था आदि हर क्षेत्र में बर्बादी हो रही है। लेखा महानिरीक्षक तथा राज्य सरकार केवल व्यवस्था की कमियां ढूंढते हैं। अच्छे काम, बर्बादी के क्षेत्र, खाली पड़े संसाधनों से उन्हें कोई मतलब नहीं है। क्या समाज स्तर पर सोशल ऑडिट के लिए सेवार्निवृत पशनर्स ने मिलकर मंच बनाया है। ऐसे समय में प्रयास हो रहे हैं, लेकिन उनकी क्या उत्पादकता बढ़ सकती है? समाज संस्थाओं तथा प्रयासों को समझ, सही प्रशिक्षण तथा Tum Key Consultancy देकर बढाई जा सकती है। खाली पड़े संसाधनों से क्या Public Private Partnership, Politician, Peoples, Panchayat, Political से नए उत्पादक शुभ लाभ पर बनाए जा रहे हैं।
क्रमशः जारी…