नंदी को भक्ति और शक्ति के प्रतीक माना गया है। कहा जाता है कि जो भी भगवान भोले से मिलना चाहता है नंदी पहले उसकी भक्ति की परीक्षा लेते हैं। भगवान शिव के प्रति नंदी की भक्ति और समर्पण की वजह से ही कलियुग में भी भगवान शिव के साथ नंदी की पूजा की जाती है। मंदिर में जहां भी भगवान शिव की मूर्ति स्थापित की जाती है, उनके सामने नंदी महाराज सदैव विराजमान रहते हैं।
पं. उदय शंकर भट्ट
वृषो हि भगवान धर्मो – – – – – – – – – – –
धर्म का आधिभौतिक स्वरूप वृषभ है। पौराणिक आख्यानों में यत्र-तत्र यही कथाएं मिलती हैं कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म की वृद्धि हुई तब-तब उससे मुक्ति पाने के लिए पृथ्वी देवी ने गौ का स्वरूप धारण कर देवताओं से तथा परब्रह्म परमात्मा से प्रार्थना की।
इस गौरूपी पृथ्वी पर बढ़ते हुए अधर्म को नष्ट करके धर्म की स्थापना करने के लिए ही युग-युग में भगवान स्वयं अवतरित होते हैं तथा संतों व महापुरुषों के आचरण से पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करते हैं। यह धर्म गौ का वत्स (बछड़ा) विकसित और बलवान होता है। ठीक उसी प्रकार पृथ्वी रूपी गौ के सत्व का सेवन करने से धर्म भी वृद्धि को प्राप्त होता है। वृषभ रूपी धर्म के चार चरण हैं, सत्य, तप, दया और दान। इन चतुष्पादों पर ही धर्म टिका है। वृषभ रूपी धर्म के प्रथम पाद सत्य से पृथ्वी पर सात्विक अन्नादि का उत्पादन (स्वधर्म रूपी सत्य व्यवहार) होता है।
वृषभ का द्वितीय पाद है तप अर्थात परिश्रम। स्वधर्म कर्म के अनुरूप कर्मेन्द्रिय शक्ति का नियोजन तप है, जो धर्म की प्रतिष्ठा है। दया, धर्म का तृतीय पाद है। किसी भी प्राणी को कष्ट न देकर अन्नादि पदार्थों का उपार्जन करना चाहिए। यही धर्म परिश्रम अर्थात तप से अहिंसापूर्वक प्राप्त अन्नादि का स्वयं के लिए ही उपभोग न करके परहितार्थ वितरण करना ही धर्म रूपी वृषभ का दान संज्ञक चतुर्थ पाद है। दान अर्थात् देश, काल, पात्र को आवश्यकतानुसार पदार्थों का वितरण कर देना।
इस प्रकार सत्य, तप, दया और दान। इन चारों से ही धर्म की प्रतिष्ठा है। बैलों द्वारा खेती करके अन्न उपजाने की जो ऋषि परंपरा है वह वास्तव में परम धर्म का स्वरूप ही है। वृषभा साक्षात प्रजापति है। धर्म प्राण भारतवर्ष में धर्म का निवास वृषभ में है। अतः वृषभ की रक्षा में ही धर्म की रक्षा निहित है।
पिता के समान प्रजा को उत्पन्न करके उनके लिए दुग्ध, घृत एवं अन्नादि का उपार्जन करके संपूर्ण प्रजाओं का यज्ञी हविष्य से देवताओं का एवं अपने पवित्र शरीर से तीनों लोकों का आप्यायन करने वाला होने से वृषभ को पिता कहा गया है।
गोर्ममाता वृषभः पिता में। दिवं शर्म जगती प्रतिष्ठा।। महा0 अनुशासन पर्व
महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म जी ने वृषभ को स्वर्ग की प्रतिष्ठा बताया है। धर्मरूपी वृषभ की सेवा (पालन) करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। गोमाता विश्व की प्रतिष्ठा है। विश्व की धात्री है। उसके सेवन से इस लोक और परलोक में भी सुख&समृद्धि प्राप्त होती है। संस्कृत में गो गाय रूप से पृथ्वी का आधिदैविक स्वरूप है। अर्थात गाय तथा बैल दोनों के लिए गौ शब्द का प्रयोग किया जाता है।
भगवान शंकर का वाहन भी वृषभ है। साथ ही शंकर जी से ध्वज पर भी वृषभ ही विराजमान है। तात्विक दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण अर्थ है। भगवान सदाशिव साक्षात परब्रह्म परमात्मा है। वे ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कर्ता हैं। वे परम कल्याण स्वरूप और शुभफलों के प्रदाता हैं। वे वृषभ पर प्रतिष्ठित हैं। अर्थात् समस्त कल्याणों की अवधि, धर्म में ही प्रतिष्ठित है।
शिव का वाहक अर्थात शुभ, सत्य, मंगल को लाने वाला, वहन करने वाला धर्म ही है। वृषभध्वज भगवान शंकर धर्म की ध्वजा को धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म के वाहक प्रचारक शिव हैं और शिव के वाहक धर्म हैं। धर्म और ईश्वर ओत-प्रोत हैं। धर्म के बिना शिव नहीं और शिव के बिना धर्म नहीं।
शिवालयों में शिवलिंग की ओर मुख करके नंदी की प्रतिमा विराजमान रहती है। शिव की ओर उन्मुख होकर बैठे धर्म रूपी वृषभ को नमस्कार करके, धर्म को अपने अंदर धारण करके ही शिव के दर्शन किए जाते हैं। यही रहस्य है।