सुप्रभातम् : प्रकृति का हिसाब

Uttarakhand

गोविंद सिंह

गीता के तीसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं:

‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि नित्यं ब्रह्माक्षरसमुद्भवम

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम.

यानी समग्र प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होनेवाला है. कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान. इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित होता है.’

यहाँ सृष्टि के चक्र की ओर भगवान कृष्ण ने इशारा किया है. और बताया है कि इस संसार के चलने के लिए वृष्टि का होना कितना अनिवार्य है. क्योंकि जल से ही संसार चलता है. लेकिन भगवान कहते हैं कि वृष्टि तभी होती है जब मनुष्य यज्ञ करते हैं. यहाँ यज्ञ का मतलब वह नहीं है, जिसे हम आज यज्ञ समझते हैं. यहाँ यज्ञ का मतलब मानव कर्त्तव्य से है. प्रकृति के प्रति मानव कर्त्तव्य. एक और स्थान पर कृष्ण कहते हैं कि संसार में जो भी सृष्टि है, उस सब में भगवान की उपस्थिति है, इसलिए उस सबकी संरक्षा करना मनुष्य का कर्त्तव्य है. यह कर्त्तव्य ही यज्ञ है.

यानी पारिस्थितिकी की रक्षा करना, समस्त जीव-वनस्पतियों की रक्षा करना, मनुष्य का परम कर्त्तव्य है. लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि आप प्रकृति से कुछ लें ही नहीं. अपनी जरूरत के मुताबिक़ प्रकृति से लेना गलत नहीं है. लेकिन प्रकृति का दोहन करना घोर पाप है.

एक अन्य श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि ‘जो पुरुष इस लोक में परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है.’

दरअसल, आज हम यही कर रहे हैं. हम प्रकृति का दोहन ही दोहन कर रहे हैं. परम्परानुसार प्रकृति से अपनी जरूरत के अनुसार लेने की बजाय हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं. मुर्गी के पेट से एक साथ ही सारे के सारे अंडे निकाल लेने का आत्मघाती दर्शन आज हमारा राष्ट्रीय दर्शन बन गया है. हम हर चीज को प्राप्त करना और उसका अधिकतम भोग करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. इसलिए प्रकृति को जमकर लूट रहे हैं.

हमारे पूर्वज इस सत्य को अच्छी तरह से समझते थे. इसलिए वे प्रकृति की गोद में छोटे-छोटे घर बना कर रहते थे. वे प्रकृति से डरते थे. कभी भी प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसूट नहीं करते थे. उनका जीवन कष्टमय जरूर था, लेकिन प्रकृति के रौद्र रूप के बावजूद उन्हें कोई कष्ट नहीं होता था.

हमारी आज की व्यवस्था, हमारा आर्थिक नियोजन, हमारा राष्ट्रीय चरित्र पूरी तरह से भोगवादी हो गए हैं. हम प्रकृति से अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ लेना चाहते हैं, लेकिन बदले में देना कुछ नहीं चाहते. ऐसा कितने दिन चल सकता है. आखिर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी?  प्रकृति भी अपना हिसाब रखना जानती है.

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