यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आपको प्रकट करता हूं।
जब समस्त भारत बौद्ध धर्म के विभ्रांत-साधनों और चार्वाक के भोगवाद से बुरी तरह झुलस रहा था। जप, तप, दान, सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता, परंपरा, संस्कार, आस्तिकता और सनातन मूल्यों का लगभग लोप हो चुका था। तब ऐसे समय में सूरज की सम्पूर्ण तेजस्विता के साथ आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य का अवतरण हुआ।
जिस आध्यात्मिक युग का सूत्रपात भगवान श्रीकृष्ण के काल में हुआ उसी की पूर्णता भगवत्पाद आदि गुरु शंकराचार्य के युग में हुई। यह अनायास नहीं रहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने सांस्कृतिक वातावरण के द्वारा जिस सृजन को प्रारम्भ किया, वही भगवत्पाद शंकराचार्य के युग में जाकर संन्यास तत्व की प्रतिस्थापना द्वारा पूर्णत्व को प्राप्त हुआ।
आध्यात्मिकता और भौतिकता, संन्यास और गृहस्थ-ये दो ऐसी स्थितियां हैं, जिन पर विशद व्याख्याएं दी जाती रही हैं। किन्तु आज तक व्यक्ति के मन में यह स्पष्ट नहीं है कि उचित क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने इस विसंगति और द्वन्द्व को समझा और एक दीर्घकालीन क्रमबद्ध उपाय की नींव डाली। आकण्ठ विलासिता में डूबे समाज को अध्यात्म का उपदेश, अध्यात्म की उच्चता, ग्राह्य हो ही नहीं सकती थी। आकण्ठ श्रृंगारिकता में डूबे समाज को ध्यान का सुख बताना ठीक वैसा ही था जैसा कि बिहारी ने ‘गंवई ग्राहक’ को इत्र बेचने पर वर्णित किया है। जो इत्र लेता है और उसे चख कर फेंक देता है कि यह तो कड़वा है। आकण्ठ भौतिकता में डूबे समाज को ध्यान का महत्व किसी भी प्रकार से समझाया नहीं जा सकता और न वह निर्विचार मन तक पहुंच पाता। भोग के द्वारा व्यक्ति तृप्त हो ही नहीं सकता। तृप्ति तो अपने अन्दर उतरने पर ही प्राप्त होती है।
भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा आरम्भ हुआ युग परिवर्तन का युग बौद्ध काल पहुंचा। बौद्धों ने जगत और ब्रह्म के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने वेद और यज्ञ दोनों का खंडन करना आरंभ कर दिया। जब तक समाज इससे उबरता, संवरता, तब तक नयी विसंगति प्रारंभ हो गयी। जो वज्रायन के विकृत रूप से फूटी। जहां भोग और पंचमकारों का खुलकर सेवन किया गया। इस संप्रदाय का मत था-‘न स्वर्ग है न मुक्ति है, ब्रह्म है न परलोक-न पुनर्जन्म। जो है सब इसी जन्म में है। संसार में न तो कहीं ईश्वर है न कोई आत्मा।
भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य के व्यक्तित्व व कृतित्व ने इसी विसंगति को दूर करने का अथक प्रयास किया। शंकर ने वैदिक धर्म के प्रचार और प्रसार के उद्देश्य से संन्यास आश्रम का पुनरुद्धर किया। अद्वैत सिद्धांत के समर्थन में बड़े-बड़े विशाल ग्रन्थों की रचना करना तथा कुमारी अन्तरीप से लेकर हिमालय के हिम धवल शिखरों तक के वैदिक धर्म विरोधी शास्त्रार्थ महारथियों को परास्त करना कोई साधारण बात न थी।
यदि 32 वर्ष की अवस्था में विश्व का महान तार्किक ब्रह्मलीन न हो जाता तो चीन, जापान तथा लंका आदि देशों में बौद्ध धर्म के स्थान पर सनातन धर्म की दुंदुभी बजती हुई सुनाई देती।
फिर से वही विलासिता, भौतिक कामनाओं का बोलबाला होने लगा है। जीवन के खालीपन को भरने के लिए भोग-विलास और जीवन की असुरक्षा को समाप्त करने के लिए खूब धन एकत्रित किया जा रहा है। वहीं आत्मा का उद्धार करने के बजाए मानव लक्ष्य भ्रष्ट हो गया है।
ज्ञान की महत्ता तुरंत नहीं दिखाई देती लेकिन यही आगे बढ़कर आने वाली पीढ़ी के लिए आधार बनता है। जिस आदि गुरु शंकराचार्य ने आठ वर्ष की उम्र में ही संन्यास ले लिया हो, समस्त वेदों का अध्ययन कर लिया, जिसने सनातन धर्म में नए प्राणों का संचार किया हो, हम उनकी मूल भावना को भूलाने लगे हैं, यह कहां की समझदारी है। आज सचमुच आद्य शंकराचार्य को समझने की जरूरत है।