गोविन्द सिंह
कार्टून पर हमले भले ही यूरोपीय देशों में होते रहे हों, लेकिन अपने देश में वह पहले ही मरणासन्न हालत में है. साढ़े तीन दशक पहले जब हमने पत्रकारिता में कदम रखा था तब लगभग हर अखबार में कार्टून छपा करते थे, उन पर चर्चा हुआ करती थी, नामी कार्टूनिस्ट हुआ करते थे. हिन्दी अखबार, जिनकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी, वहाँ भी दो-दो कार्टूनिस्ट होते थे.
अस्सी के दशक में नवभारत टाइम्स में दो कार्टूनिस्ट थे. एक दिल्ली में और एक मुंबई में. सैमुएल और कदम. तभी सुधीर तैलंग भी आ गए. इस तरह तीन हो गए. बाद में दिल्ली संस्करण में दो कार्टूनिस्ट हो गए थे, काक और सुधीर तैलंग. यही नहीं लखनऊ से नया संस्करण शुरू हुआ तो वहाँ भी एक कार्टूनिस्ट रखे गए थे, इरफ़ान. बाक़ी अखबारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी.
जनसत्ता शुरू हुआ तो वहाँ भी काक और राजेन्द्र नियुक्त हुए. यानी कार्टूनिस्ट के बिना अखबार की कल्पना नहीं की जा सकती थी. आज कई बड़े अखबार में एक भी कार्टूनिस्ट नहीं है. अन्य अखबारों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. कहीं फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट से काम चलाया जा रहा है तो कहीं पार्ट टाइम कार्टूनिस्ट हैं. कहीं उनसे अतिरिक्त काम लिया जाता है तो कहीं उन्हें रेखांकन और रेखाचित्र बनाने को कहा जाता है. अंग्रेज़ी अखबारों में भी कोई कद्दावर कार्टूनिस्ट नहीं दिखाई पड़ता.
एक ज़माना था, जब इसी देश में शंकर पिल्लई जैसे कार्टूनिस्ट थे, आरके लक्ष्मण थे, अबू अब्राहम, मारियो मिरांडा थे, सुधीर दर थे, कुट्टी थे, रंगा थे. सुधीर तैलंग अब भी हैं, लेकिन शायद किसी बड़े अखबार को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रही. अन्य अखबारों में भी कार्टूनिस्ट हैं, लेकिन अब वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाते जहां शंकर या आरके लक्ष्मण पहुँच पाए थे.
अजीत नैनन, रविशंकर, केशव, सुरेन्द्र, उन्नी, राजेन्द्र धोड़पकर, जगजीत राणा, शेखर गुरेरा, पवन और असीम त्रिवेदी जैसे कार्टूनिस्ट हैं, पर वे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं या कहिए किसी तरह मशाल जलाए हुए हैं. पहले कार्टूनिस्ट का दर्जा भी वरिष्ठ संपादकों के बराबर ही होता था. लक्ष्मण का दर्जा प्रधान सम्पादक के लगभग बराबर था. स्थानीय सम्पादक से ऊपर तो था ही. सम्पादकीय विभाग में वह एक स्वायत्त इकाई थे. शंकर के कार्टूनों से तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू प्रभावित थे.
दो दशक पहले तक अखबारों के पहले पेज पर तीन-चार कॉलम का एक बड़ा कार्टून छपता था, पॉकेट कार्टून होता था और अन्दर भी सम्पादकीय पेज या उसके सामने वाले पेज पर बड़ा कार्टून होता था. आज पॉकेट कार्टून ही नहीं बचा तो बड़े कार्टून की क्या बिसात! सम्पादकीय पेज पर कभी कभार कार्टून दिखता तो है, पर उसे किसी घटना पर स्वतःस्फूर्त बना कार्टून नहीं कहा जा सकता, वह महज लेख को सप्लीमेंट करने वाला स्केच बनकर रह जाता है.
पॉकेट कार्टून की जगह सिंडिकेटेड कार्टून छप रहे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत हास्य होता है, करारा व्यंग्य तो नहीं ही होता. लक्ष्मण के बड़े कार्टून रोज-ब-रोज की घटनाओं पर तीखा प्रहार करते थे, साथ ही पॉकेट कार्टून भी आम आदमी के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारता था. ये कार्टून दिन भर की किसी खबर पर कार्टून के जरिये एक तीखी टिप्पणी किया करते थे.
आर के लक्ष्मण ने एक बार कहा था, ‘परिस्थितियाँ इतनी खराब हैं कि यदि मैं कार्टून न बनाऊँ तो आत्महत्या कर लूं.’ इससे पता चलता है कि कार्टून कितना अपरिहार्य था. इनका महत्व सम्पादकीय के समान होता था. आज यह सब गायब है. पहले पेज पर से बड़े कार्टून को गायब हुए कितने ही साल हो गए हैं. हिन्दू को छोड़कर बहुत कम अखबारों में राजनीतिक कार्टून दीखते हैं.
हालात देखकर वाकई लगता है कि यह दौर कार्टून के लिए ठीक नहीं है. ऐसा क्यों हुआ? इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में आए आर्थिक सुधारों के साथ ही हो गयी थी. अखबार के पन्नों पर से विचार की जगह लगातार सिमटती चली गयी. अखबारों का निगमीकरण शुरू हुआ. अखबार किसी एक पक्ष में खड़े नहीं दिखना चाहते थे. वे किसी से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे. फिर समाज से सहिष्णुता भी धीरे-धीरे कम होने लगी. राजनेता कार्टून को अपने ऊपर हमला मानने लगे. एक समय था, जब नेता इस बात पर खुश होते थे कि उन्हें कार्टून का विषय के तौर पर चुना गया.
लक्ष्मण एक वाकया सुनाते हैं, १९६२ के युद्ध के बाद उन्होंने नेहरू का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून बनाया. उनसे भी ज्यादा मजाक उनके तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन का उड़ाया. कार्टून छापा तो सवेरे ही नेहरू का उन्हें फोन आया. लक्ष्मण डरे हुए थे कि पता नहीं प्रधान मंत्री कार्टून का बुरा ना मान गए हों. लेकिन दूसरी तरफ से आवाज आयी कि उनका कार्टून देखकर मजा आया. क्या लक्ष्मण उस कार्टून को अपने दस्तखत करके उन्हें उपहार में दे सकते हैं?
लक्ष्मण बताते हैं कि वे गदगद हो गए. ऐसे ही सुधीर तैलंग बताते हैं कि एक बार उन्हें डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने फोन किया कि क्यों तैलंग ने छः महीने से उन पर कार्टून नहीं बनाया? क्या वे भारतीय राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं? काक साहब कहा करते थे कि हमारा सबसे पहला हमला अगले की नाक पर होता है. इस हमले को सहने की ताकत धीरे-धीरे हमारे नेताओं और हमारे समाज में कम होती जा रही है.
दरअसल कार्टून अत्यधिक शक्तिशाली होता है. कभी-कभी वह सम्पादकीय से भी ताकतवर होता है. कार्टून चूंकि एक तरह की बौद्धिक लड़ाई है, हमला है, इसलिए उसे झेल पाने की क्षमता भी कम होने लगी. पत्र-स्वामियों को लगा कि क्यों इस तरह का जोखिम लिया जाए. लिहाजा उन्होंने धीरे-धीरे कार्टून को बेदखल करना शुरू किया. उसकी जगह मनोरंजन ने ली. आज कार्टून अखबार से उठकर टीवी के परदे पर पहुँच रहा है तो इसीलिए कि मनोरंजन के रूप में उसकी कीमत बढ़ रही है.