हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं? हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं, उसमें से भगवान क्या खाते-पीते हैं? क्या हमारे चढ़ाए हुए भोग के रूप, रंग, स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?
पंडित हर्षमणि बहुगुणा
क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग खाते हैं ? और यदि खाते हैं, तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं हो जाती और यदि नहीं खाते हैं, तो भोग लगाने का क्या लाभ?”
एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु से यह प्रश्न किया। गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे। उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया !
‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
पाठ पूरा होने के बाद गुरु ने शिष्यों से कहा कि वे पुस्तक देखकर श्लोक कंठस्थ कर लें। एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं ? उस शिष्य ने पूरा श्लोक शुद्ध-शुद्ध गुरु को सुना दिया ।
फिर भी गुरु ने सिर ‘नहीं’ में हिलाया, तो शिष्य ने कहा कि “वे चाहें, तो पुस्तक देख लें; श्लोक बिल्कुल शुद्ध है। गुरु ने पुस्तक दिखाते हुए कहा “श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो तुम्हें कैसे याद हो गया ?” शिष्य कुछ नहीं कह पाया।
गुरु ने कहा “पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मन में रहता है। इतना ही नहीं, जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के स्थूल रूप के श्लोक में कोई कमी नहीं आई।
इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के वस्तु में कोई कमी नहीं होती । उसी को हम *प्रसाद* के रूप में स्वीकार करते हैं ।
शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया। वास्तव में जब तक हमें भ्रम रहता है कि क्या हमारे भगवान हैं? तब तक हमको भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ईश्वर श्रद्धा से ही मिल सकते हैं। पर अधिकांश लोग अपने देवी-देवताओं पर ही विश्वास नहीं करते हैं। फिर दूसरों को क्या भरोसा दिलाया जा सकता है।