भगवान शिव को “पंचानन” (पांच मुख वाले) कहा जाता है क्योंकि उनके पांच मुखों का प्रतीकात्मक और आध्यात्मिक महत्व है। यह पंचमुख भगवान शिव के पांच अलग-अलग रूपों और उनके ब्रह्मांडीय कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रत्येक मुख एक दिशा और विशेष गुणों को दर्शाता है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
भगवान शिव को पंचमुखी, दशभुजा वाला माना जाता है भवराज पुष्पदंत महिम्न में कहा है कि- हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही संपूर्ण संसार और चर-अचर का निर्माण हुआ है। भगवान शिव के हर एक मुख का पूजन अलग-अलग तत्व के रूप में किया जाता है। जैसे भगवान शिव के पश्चिम मुख का पूजन पृथ्वी तत्व के रूप में, उत्तर मुख का पूजन जल तत्व के रूप में, दक्षिण मुख का तेजस तत्व के रूप में और पूर्व मुख का पूजन वायु तत्व के रूप में किया जाता है। भगवान शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है। इन पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है।
भगवान शिव के पांच मुखों का पंच तत्व यानी भूमि, जल, अग्नि, वायु व आकाश से भी संबंध है। शिव पुराण में भगवान शिव ने बताया कि उनके पांचों कार्यो में से सृष्टि का भूमि, स्थिति का जल, संहार का अग्नि, तिरोभाव का वायु और अनुग्रह का आकाश से संबंध है। इस तरह इन पांच तत्वों का संबंध में भगवान शिव के पांच मुखों से है। इस तरह पंच तत्वों सहित पूरे ब्रह्मंड की रचना, पालन व संहार में भगवान शिव के हाथों में माना गया है।
सदाशिव या ईशान मुख (पूर्व)
यह मुख ज्ञान और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। यह शिव के ब्रह्म स्वरूप (सृष्टि के निर्माणकर्ता) को दर्शाता है। यह पंच तत्त्वों में आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
तत्पुरुष मुख (उत्तर)
यह मुख ध्यान और आत्मज्ञान का प्रतीक है। यह शिव के योग स्वरूप को दर्शाता है, जो ध्यान में स्थित है। यह वायु तत्व से जुड़ा हुआ है।
अघोरा मुख (दक्षिण)
यह मुख पुनर्जन्म और पुनरुत्थान का प्रतीक है। यह शिव के विनाशकारी और पुनर्जीवित करने वाले स्वरूप को दर्शाता है। यह अग्नि तत्व से संबंधित है।
वामदेव मुख (पश्चिम)
यह मुख सुरक्षा, पोषण, और सौंदर्य का प्रतीक है। यह शिव के पालनकर्ता और दयालु स्वरूप को दर्शाता है। यह जल तत्व से जुड़ा हुआ है।
सद्योजात मुख (पश्चिम)
यह मुख सृष्टि और रचनात्मकता का प्रतीक है। यह शिव के सृजन कर्ता स्वरूप को दर्शाता है। यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है।
भगवान शिव के ये पांच मुख ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं के पांच मुख्य कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं: सृष्टिः निर्माण। पालनः संरक्षण। संहारः विनाश। तिरोभावः माया या छलावरण। अनुग्रहः मुक्ति या कृपा।
भगवान शिव के पांच मुख—सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से वे ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहलाने लगे । भगवान शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में है।
▪️ भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात है । यह बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं ।
▪️ उत्तर दिशा का मुख वामदेव है । वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला ।
▪️ दक्षिण मुख अघोर है। अघोर का अर्थ है कि निन्दित कर्म करने वाला। निन्दित कर्म करने वाला भी भगवान शिव की कृपा से निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता है।
▪️ भगवान शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष है। तत्पुरुष का अर्थ है अपने आत्मा में स्थित रहना।
▪️ ऊर्ध्व मुख का नाम ईशान है। ईशान का अर्थ है स्वामी।
भगवान शंकर के पांच मुखों में ऊर्ध्व मुख ईशान दुग्ध जैसे रंग का, पूर्व मुख तत्पुरुष पीत वर्ण का, दक्षिण मुख अघोर नील वर्ण का, पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का और उत्तर मुख वामदेव कृष्ण वर्ण का है ।
शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं—सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह—मेरे ये पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं ।
भगवान शिव की पांच विशिष्ट मूर्तियां (मुख) विभिन्न कल्पों में लिए गए उनके अवतार हैं
जगत के कल्याण की कामना से भगवान सदाशिव के विभिन्न कल्पों में अनेक अवतार हुए जिनमें उनके सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान अवतार प्रमुख हैं । ये ही भगवान शिव की पांच विशिष्ट मूर्तियां (मुख) हैं । अपने पांच मुख रूपी विशिष्ट मूर्तियों का रहस्य बताते हुए भगवान शिव माता अन्नपूर्णा से कहते हैं—‘ब्रह्मा मेरे अनुपम भक्त हैं । उनकी भक्ति के कारण मैं प्रत्येक कल्प में दर्शन देकर उनकी समस्या का समाधान किया करता हूँ ।’
▪️ श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में ब्रह्मा सृष्टि रचना के ज्ञान के लिए परब्रह्म का ध्यान कर रहे थे । तब भगवान शंकर ने उन्हें अपने पहले अवतार ‘सद्योजात रूप’ में दर्शन दिए । इसमें वे एक श्वेत और लोहित वर्ण वाले शिखाधारी कुमार के रूप में प्रकट हुए और ‘सद्योजात मन्त्र’ देकर ब्रह्माजी को सृष्टि रचना के योग्य बनाया।
▪️ रक्त नामक बीसवें कल्प में रक्तवर्ण ब्रह्मा पुत्र की कामना से परमेश्वर का ध्यान कर रहे थे। उसी समय उनसे एक पुत्र प्रकट हुआ जिसने लाल रंग के वस्त्र-आभूषण धारण किये। यह भगवान शंकर का ‘वामदेव रूप’ था और दूसरा अवतार था जो ब्रह्माजी के जीव-सुलभ अज्ञान को हटाने के लिए तथा सृष्टि रचना की शक्ति देने के लिए था।
▪️ भगवान शिव का ‘तत्पुरुष’ नामक तीसरा अवतार पीतवासा नाम के इक्कीसवें कल्प में हुआ।