सुप्रभातम्: तो इसलिए भगवान विष्‍णु ने धारण किया था घोड़े का सिर

जब कभी भी मनुष्‍यों या फिर देवताओं पर कोई कष्‍ट पड़ा भगवान विष्‍णु ने किसी न किसी रूप में पहुंचकर उनकी रक्षा की है। श्री हरि ने देवताओं और भक्‍तों के कल्‍याण के लिए वामन, मत्‍यस्‍य, कच्‍छप और नरसिंह सहित अन्‍य कई रूप धारण किए हैं। ग्रंथों में ऐसे ही एक और स्‍वरूप की कथा मिलती है, जिसका उद्देश्‍य हयग्रीव नामक दैत्‍य से देवताओं को मुक्ति दिलाना था।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

ऋषिगण बोले– सूतजी! आपने बड़े उन्हें आश्चर्य की बात कही। अरे, जो भगवान् विष्णु दिन सबके कर्ता-धर्ता हैं, उनका भी मस्तक कटकर चल धड़से अलग हो गया। फिर उस धड़ पर घोड़े का देव सिर रखा गया और वे ‘हयग्रीव’ कहलाने लगे। वेद भी जिनकी स्तुति करते हैं, सम्पूर्ण चल देवताओं को आश्रय देना जिनका स्वाभाविक उन्हे गुण है तथा जो समस्त कारणों के भी परम कारण हैं, उन आदिदेव जगत्प्रभु भगवान् श्रीहरि को भी छिन्नमस्तक हो जाना पड़ा- यह दैव की ही करामात है; परंतु महामते! ऐसी घटना कैसे घट गयी- इसे शीघ्र विस्तारपूर्वक कहने की कृपा कीजिये ।

सूतजी कहते हैं-मुनिगणो ! भगवान् विष्णु परम तेजस्वी एवं देवताओं के भी देवता हैं। उनकी लीला बड़ी विचित्र है। तुम सब लोग अत्यन्त सावधान होकर उनकी अद्भुत कथा सुनो। एक समय की बात है – सनातन परम ‘प्रभु भगवान् श्रीहरि को घोर युद्ध करना पड़ा। दस हजार वर्षां तक वे युद्धभूमि में डटे रहे। फिर तो उन्हें थकान-सी हो गयी। तब वे अपने च पुण्यप्रदेश वैकुण्ठ में गये। पद्मासन लगाकर बैठे। धनुष पर डोरी चढ़ी हुई थी, इसी अवस्था में धनुष को भूमि पर टेककर उसी के सहारे वे कुछ झुक-से गये। फिर उसी पर भार देकर अलसाने भी लगे। श्रम के कारण अथवा लीला संयोग से उन्हें घोर निद्रा आ गयी। उसी अवसर पर कुछ दिनों से देवताओंके यहाँ यज्ञ करने की योजना चल रही थी। इन्द्र, ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवता यज्ञ करने में तत्पर होकर भगवान् श्रीहरि से मिलने वैकुण्ठ में गये। देवताओं का कार्य निर्विघ्न चलता रहे- यही उस यज्ञ का उद्देश्य था। वहां उन्हें यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु का दर्शन नहीं मिला। फिर तो ध्यान द्वारा पता लगाकर वे जहाँ भगवान् विराजमान थे, वहाँ पहुँच गये। देखा, परमप्रभु भगवान् श्रीहरि योगनिद्रा के अधीन होकर अचेत-से पड़े हैं। तब वे देवता लोग वहीं ठहर गये। जब भगवान्‌ की निद्रा भङ्ग न हुई, तब वे देवता अत्यन्त चिन्तित हो गये। ऐसी स्थिति में इन्द्र ने प्रधान देवताओं को सम्बोधित करके कहा- ‘अब क्या करना चाहिये? देवताओ ! आप स्वयं विचार करें, भगवान् विष्णु को कैसे जगाया जाय ?’ तब भगवान् शंकर ने कहा- ‘देवताओ ! यद्यपि किसी की निद्रा भङ्ग करना निषिद्ध आचरण है, फिर भी यज्ञ का कार्य सम्पन्न करने के लिये तो इन्हें जगा ही देना चाहिये ।’ तब ब्रह्माजीने वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। सोचा- धनुष पृथ्वी पर है ही, यह कीड़ा उस धनुष की ताँत को काट देगा। तदनन्तर आगे की रस्सी को काटते ही झुका हुआ धनुष ऊपर को तन उठेगा; फिर तो देवाधिदेव श्रीहरि की निद्रा टूट ही जाएगी। तब देवताओं का कार्य सिद्ध होने में कोई संदेह न रहेगा। इस प्रकार मन में विचार करके प्रधान अविनाशी ब्रह्माजी ने वैसा करने के लिये आज्ञा दे दी। तब वह वम्री नामक कीड़ा ब्रह्माजी से कहने लगा-‘अरे! भगवान् नारायण देवताओं के भी आराध्य हैं। भला, उनकी निद्रा मैं कैसे भङ्ग कर सकूँगा। भगवन्! इस धनुष की डोरी को काटनेसे मुझे कौन-सा लाभ है, जिसके कारण ऐसा घृणित कार्य किया जा सके। सभी प्राणी किसी-न-किसी स्वार्थको लेकर ही नीच कर्म में प्रवृत्त होते हैं- यह बिलकुल निश्चित बात इसलिये यदि मेरा कोई निजी काम बनने वाला हो, तभी इसे काटने में मैं तत्पर हो सकूँगा।’

ब्रह्माजी ने कहा– सुनो! हमलोग तुम्हें यज्ञ मे भाग दिया करेंगे। यह निजी लाभ मानकर अब तुम शीघ्र हमारा काम करो अर्थात् भगवान् श्रीहरिको जगा दो। देखो, यज्ञ में हवन करते समय अगल-बगल जो भी हविष्य गिर जायगा, वह तुम्हारा भाग है- यह समझ लो। अच्छा, अब हमारा काम बहुत जल्दी हो जाना चाहिये।

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजीके कहने पर उसी क्षण वम्री ने प्रत्यञ्च्चा को, जो नीचे भूमिपर थी, खा लिया। फिर तो धनुष बन्धन मुक्त हो गया। प्रत्यञ्च्चा कटते ही दूसरी ओर की डोरी भी वैसे ही ढीली पड़ गयी। उस समय बड़े जोर से भयंकर शब्द हुआ, जिससे देवता भयभीत हो उठे। चारों ओर अन्धकार छा गया। सूर्य की प्रभा क्षीण हो गयी। फिर तो सभी देवता घबराकर सोचने लगे- ‘अहो, ऐसे भयंकर समय में पता नहीं क्या होने वाला है।’ ऋषियो ! समस्त देवता यों सोच रहे थे; इतने में पता नहीं, भगवान् विष्णु का मस्तक कुण्डल और देवता मुकुट सहित कहाँ उड़कर चला गया। कुछ समय के बाद जब घोर अन्धकार शान्त हुआ, तब भगवान् शंकर और ब्रह्माजी ने देखा श्रीहरि का श्रीविग्रह बिना मस्तक का पड़ा हुआ है। यह बड़े आश्चर्य की बात सामने आ गयी। भगवान् विष्णु के केवल धड़ को देखकर उन श्रेष्ठ देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। अब वे चिन्ता के उमड़े हुए समुद्र में डूबने-उतराने लगे। अत्यन्त दुःखी होकर उनकी आँखें जल बरसाने लगीं। वे विलाप करने लगे – ‘हा नाथ ! आप तो देवताओं के भी आराध्यदेव एवं सनातन प्रभु हैं। फिर भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओं को निष्प्राण करनेवाली यह कैसी दैवी विचित्र घटना घट गयी है।

ब्रह्माजीने कहा-कालभगवान्‌ ने जैसा विधान रच रखा है, वैसा अवश्य ही होता है- यह बिलकुल असंदिग्ध बात है। जैसे बहुत पहले काल की प्रेरणासे भगवान् शंकर ने मेरा ही मस्तक काट दिया था, उसी तरह आज भगवान् विष्णु का भी मस्तक धड़से अलग होकर समुद्र में जा गिरा है। शचीपति देवराज इन्द्रके हजारों भग हो गये। उन्हें दुःखी होकर स्वर्ग से गिर जाना पड़ा और मानसरोवरमें जाकर वे कमलपर रहने लगे। अतएव तुम्हें बिलकुल शोक नहीं करना चाहिये। तुम सभी उन सनातनमयी विद्या- स्वरूपिणी महामाया का चिन्तन करो। वे प्रकृतिमयी भगवती निर्गुणस्वरूपिणी एवं सर्वोपरि विराजमान हैं। अब वे ही हमारा कार्य सिद्ध करेंगी। वे जगत्‌को धारण करती हैं। उनका नाम ‘ब्रह्मविद्या’ भी है। सब प्राणी उन्हीं की संतान हैं। त्रिलोकी में चर और अचर जितने प्राणी हैं, सबमें वे विराजमान हैं।

सूतजी कहते हैं- फिर ब्रह्माजी ने वेदोंको, जो सामने देह धारण करके उपस्थित थे, आज्ञा दी।

ब्रह्माजीने कहा- ब्रह्मविद्यास्वरूपिणी भगवती जगदम्बिका परम आराध्या हैं। उन सनातनी देवी के अङ्गों का साक्षात्कार होना कठिन है। वे भगवती महामाया सम्पूर्ण कर्मों को सिद्ध कर देती हैं। अतः तुम लोग उनकी स्तुति करो। तदनन्तर सुन्दर शरीर धारण करने वाले वेद ब्रह्माजी का कथन सुनकर उन भगवती का, जो ज्ञानगम्या हैं- महामाया नामसे प्रसिद्ध हैं तथा जिन पर सम्पूर्ण जगत् अवलम्बित है, स्तवन करने लगे।

वेद बोले-देवी। आप महामाया है, जगत्‌ की सृष्टि करना आपका स्वभाव है, आप कल्याणमय विग्रह धारण करने वाली एवं प्राकृतिक गुणों से रहित है, अखिल जगत आपका शासन मानता है तथा भगवान् शंकर के आप मनोरथ पूर्ण किया करती है। माता। आपके लिये नमस्कार है। सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देनेके लिये आप पृथ्वीस्वरूपा है। प्राणधारियोंके प्राण भी आप ही है। थी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, धृति और स्मृति- ये सभी आपके नाम हैं। ‘ॐकार में जो अर्द्धमात्रा है, वह आपका रूप है। गायत्रीमें आप प्रणव हैं। जया, विजया, धात्री, लज्जा, कीर्ति, स्पृहा और दया- इन नामोंसे आप असिद्ध हैं। माता! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप त्रिलोकीको उत्पन्न करनेमें बड़ी कुशल हैं। आपका विग्रह दयासे परिपूर्ण है। आप माताओं की भी माता हैं। आप विद्यामयी एवं कल्याणस्वरूपिणी है। आपका सारा प्रयत्न अखिल जगत्‌ के हितार्थ होता है। आप संसारजनित अन्धकार को नष्ट कर देती हैं- सभी देवता जो भूमंडल के स्वामी व आते है, उन्हें भी आपने ही नियुक्त किया है। इसलिये आपके समक्ष उनको कुछ भी प्रधानता न रही। आप चराबर जगत्‌ की जननी जो ठहरी। जगदम्बिके! आपको जब अखिल भूमण्डल को उत्पन्न करनेकी इच्छा होती है, तथ आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि मुख्य देवताओं को प्रकट करती और उनके द्वारा सृष्टि, स्थिति और संहार-कार्य आरम्भ कर देती है। देवी। वस्तुतः तो आपका एक ही रूप है। आप में संसार की लेशमात्र भी सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण संसार में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है, जिसे आपके रूपों को जानने एवं नामों को गिनने की योग्यता प्राप्त हो सकी हो। भला, वापी  के थोड़े जलको तैरकर पार करने में असमर्थ सिद्ध हुआ मानव समुद्र के अथाह जलको कैसे कुशलतापूर्वक पार कर सकता है? भगवती देवताओं में भी कोई ऐसा सिद्ध न हो सका, जो आपकी विभूति को जान सके। आप संसारकी एकमात्र जननी हैं। आप अकेले ही इस मिध्याभूत समस्त जगत्‌की रचना कर डालती है। देवी। इस जगत्‌ के मिथ्यात्वमें श्रुतिवचन ही प्रमाण है। देवी! आश्चर्य तो यह है कि इच्छा रहित होते हुए भी आप अखिल जगत्‌ की उत्पत्ति में कारण हैं। आपका यह अद्भुत चरित्र हमारे मन को मोह में डाल रहा है। जब सारी श्रुतियाँ आपके गुणों एवं प्रभाव को जानने में असमर्थ रहीं, तब हम उन्हें कैसे जान सकते हैं। अधिक क्या कहें, अपने परम प्रभाव को आप स्वयं भी नहीं जानतीं। कल्याणमयी जगद‌म्बिके! भगवान् श्रीविष्णु का मस्तक धड़ से अलग हो गया है- क्या आप इसे नहीं जानती ? अथवा जानकर भी उनके प्रभाव की परीक्षा करना चाहती हैं।

इस समय श्रीहरि मस्तकहीन हो गये हैं- यह बात महान् आश्चर्यजनक एवं साथ ही असीम दुःखप्रद भी सिद्ध हो रही है। अब हम यह नहीं जान सकते कि आप जन्म-मरणके बन्धन को काटनेमें कुशल होते हुए भी श्रीविष्णु के मस्तकको जोड़नेमें विलम्ब क्यों कर रही है? जगदम्बिके ! आपका यह लीला वैभव अब हमारी समझसे बाहर है, अथवा युद्धभूमि में देवताओंसे हार जानेपर दैत्यों ने पावन तीर्थों में जाकर कोई घोर तप किया है और आप उन्हें वर दे चुकी है, जिसके फलस्वरूप भगवान् विष्णु का मस्तक अलक्षित हो गया या अब आप श्रीहरि को मस्तकहीन देखनेका ही आनन्द लूटना चाहती हैं। जगद‌म्बिके ! आप लक्ष्मी पर कुपित तो नहीं हो गयीं? क्योंकि उनको आप भगवान् विष्णु से रहित देखना चाहती हैं। माना, यदि लक्ष्मी ने अपराध ही कर दिया हो, तब भी तो आपको क्षमा कर देना चाहिये; क्योंकि वे भी आपसे ही प्रकट हुई हैं। अतः श्रीहरि को पुनः मस्तक प्रदान करके लक्ष्मीको प्रसन्न करने की कृपा कीजिये। देवी ! ये सुरगण आपको निरन्तर नमस्कार कर रहे हैं। आपके जगत्सृजनमय कार्य की व्यवस्थाके ये प्रधान सदस्य है। आपकी कृपा से इन्हें प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो चुकी है। अब आप अखिल लोकनायक भगवान् विष्णु को प्राणदान करके शोकरूपी समुद्र से इन देवताओंका उद्धार करने की कृपा कीजिये। माता ! पहले तो हम यहीं नहीं जानते कि श्रीहरि का मस्तक चला कहाँ गया है। यह तो बिलकुल निश्चित है कि आपकी कृपा के बिना और कोई उपाय नहीं है। देवी! आप जैसे अमृत पिलाकर देवताओं को जीवित करनेमें निपुण हैं, वैसे ही अब जगत्‌ को भी जीवित रखना आपका कर्तव्य है।

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार जब अङ्गों उपाङ्गॉसहित वेदों ने भगवती जगदम्बिका का स्तवन किया, तब वे गुणातीता मायामयी देवी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। फिर तो देवताओंको लक्ष्य करके आकाशवाणी होने लगी। प्रत्येक वाणी कल्याणमयी थी। सभी शब्दोंमें सुख भरा था। वह वाणी इस प्रकार थीं-

देवताओ ! अब तुम्हें चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है। शान्तचित्त होकर अपने स्थान पर विराजमान हो जाओ। वेदों ने भली- भाँति मेरी स्तुति की है। अतः मेरी प्रसन्नता मे किंचित् भी संदेह नहीं रहा। जो पुरुष मर्त्यलोक में मेरे इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ता है अथवा पढ़ेगा, उसे सभी अभीष्ट वस्तुएँ सुलभ हो जायेंगी ! अथवा जो श्रद्धालु मानव तीनों काल में सदा इसका श्रवण करता है, उसके सभी शोक शान्त हो जाते हैं और वह सुखी हो जाता है। मेरा यह वेदप्रणीत स्तोत्र निश्चय ही वेदतुल्य है। अब तुमलोग श्रीहरि के छिन्नमस्तक होने का कारण सुनो। इस जगत्में कोई भी कार्य अकारण कैसे होगा। एक समयकी बात है, भगवान् श्रीविष्णु लक्ष्मी के साथ एकान्तमें विराजमान थे। लक्ष्मी के मनोहर मुख को देखकर उन्हें हँसी आ गयी। लक्ष्मी ने समझा ‘हो-न-हो भगवान् विष्णु की दृष्टि में मेरा मुख कुरूप सिद्ध हो चुका है, अतएव मुझे देखकर इन्हें हंसी आ गयी; क्योंकि बिना कारण उनका यो हंसना बिलकुल असम्भव है।’ फिर तो महालक्ष्मी को क्रोध आ गया। सात्त्विक स्वभाव स वाली होने पर भी वे तमोगुण से आविष्ट हो गयीं ।

श्रीमहालक्ष्मी के शरीर में भयंकर तामसी शक्ति का जो प्रवेश हुआ, उसका भी भावी परिणाम वस्तुतः देवताओं का कार्य सिद्ध करना था। वेर अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। तब झट उनके मुख से निकल गया- ‘तुम्हारा यह मस्तक गिर जाय’। इसी से इस समय इनका सिर क्षीर समुद्रमें लहरा रहा है। देवताओ ! इसमें कुछ कारण दूसरा भी है-वह यही कि तुमलोगों का एक महान् कार्य सिद्ध होने वाला है, यह बिलकुल निश्चित बात है। हयग्रीव नामक एक दैत्य हो चुका है। उसकी विशाल भुजाएँ हैं और वह बड़ी ख्याति पा चुका है। सरस्वती नदी के तटपर जाकर उसने महान् तप किया। वह मेरे एकाक्षरमन्त्र मायाबीज का जप करता रहा। बिना कुछ खाये ही जप करता था। उसकी इन्द्रियाँ वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। सम्पूर्ण भूषणोंसे भूषित जो मेरी तामसी शक्ति है, उसी शक्ति की उसने आराधना की। वह दैत्य एक हजार वर्षतक ऐसा कठिन तप करता रहा। तब मैं ही तामसी शक्तिके रूपमें सजकर उसके पास गयी और जैसे रूप का वह ध्यान कर रहा था, ठीक उसी रूपमें मैंने उसे दर्शन दिये। मैं सिंहपर बैठी थी। सर्वाङ्ग दया से ओतप्रोत थे। मैंने कहा- ‘महाभाग ! वर माँगो ! सुव्रत ! तुम्हें जो इच्छा हो, उसे देनेको मैं तैयार हूँ।’ मुझ देवी की बात सुनकर वह दानव प्रेम से विभोर में उठा। उसने तुरंत मेरी प्रदक्षिणा की और चरणों में मस्तक झुकाया। मेरे इस रूप को देखकर उसके नेत्र प्रेम से पुलकित हो उठे और आनन्द के आँसुओं स् भर गये। फिर तो वह मेरी -स्तुति करने लगा ।

हयग्रीव बोला- कल्याणमयी देवी ! आपकाे आपको नमस्कार है। आप महामाया है। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। भक्तों पर कृपा करने में आप बड़ी कुशल हैं। मनोरथ पूर्ण करना और मुक्ति देना आपका मनोरञ्जन है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और  आकाश तथा इनके गुण गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द- इन सबका कारण आप ही हैं। महेश्वरी ! नासिका, त्वचा, जिह्वा, नेत्र और कान आदि इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त जितनी कर्मेन्द्रियाँ हैं, वे सब आपसे ही उत्पन्न हुई हैं।

भगवती ने कहा- तुमने बड़ी अद्भुत तपस्या का की है। मैं तुम्हारी भक्ति से भलीभाँति प्रसन्न हूँ। ता तुम अपना अभिलषित वर माँगो । तुम्हें जो भी इच्छा हो, मैं देनेको तैयार हूँ।

हयग्रीव बोला- माता ! जिस किसी प्रकार भी मुझे मृत्यु का मुख न देखना पड़े, एक वैसा ही वर देने की कृपा कीजिये। मैं अमर योगी बन जाऊँ। देवता और दानव कोई भी मुझे जीत न सके।

देवीने कहा– देखो, जन्मे हुए की मृत्यु और पर मरे हुए का जन्म होना बिलकुल निश्चित है। मैंने भला, ऐसी सिद्ध मर्यादा जगत्‌में कैसे व्यर्थ की तुम्हें जा सकती है। राक्षसराज ! मृत्युके विषय में तो ऐसी ही बात पक्की मान लेनी चाहिये ।

अत: मनमें सोच-विचारकर जो इच्छा हो, वर माँगो ।

हयग्रीव बोला- अच्छा तो, हयग्रीव के हाथ ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। बस, अब मेरे मन की यही अभिलाषा है। इसे पूर्ण करने की कृपा करें।

देवी ने कहा- महाभाग ! अब तुम घर – जाओ और आनन्दपूर्वक राज्य करो। यह बिलकुल निश्चित है, हयग्रीव के सिवा दूसरा कोई तुम्हें नहीं मार सकेगा।

इस प्रकार उस दानव को वर देकर देवी अन्तर्धान हो गयीं और वह दैत्य भी असीम आनन्द का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वही पापी इन दिनों मुनियों और वेदों को अनेक प्रकार से सता रहा है। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं है, जो उस दुष्ट को मार सके। अतएव इस घोड़े का सुन्दर सिर उतारकर श्रीविष्णु के धड़ से जोड़ दिया जायगा। यह कार्य ब्रह्माजी के हाथ सम्पन्न होगा। तदनन्तर वे ही भगवान् हयग्रीव देवताओं के हित साधनके लिये उस दुष्ट एवं निर्दयी दानव के प्राण हरेंगे।

सूतजी कहते हैं-देवताओं से यों कहकर वह आकाशवाणी शान्त हो गयी। फिर तो देवता आनन्द से विह्वल हो उठे। उन्होंने दिव्य शिल्पी ब्रह्माजीसे कहा-

देवता बोले- भगवन् ! श्रीविष्णु के मस्तकहीन शरीर पर सिर जोड़ना रूप महत्कार्य सम्पन्न करने की कृपा करें। तभी भगवान् हयग्रीव बनकर इस दानवराज का संहार करेंगे।

सूतजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्माजी ने उसी क्षण सुरगण के सामने ही तलवार से घोड़ेका मस्तक उतार लिया। साथ ही तुरंत उसे भगवान्‌ के शरीर पर जोड़ने की व्यवस्था सम्पन्न कर दी। फिर तो भगवती जगदम्बिका के कृपाप्रसाद से उसी क्षण भगवान् विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया।

वह दानव बड़ा ही अभिमानी था। देवताओं से उसकी घोर शत्रुता थी। अवतार लेने के पश्चात् कितने समय तक भगवान् उसके साथ युद्धभूमि में डटे रहे। तब कहीं उसकी मृत्यु हुई। मर्त्यलोक में रहने वाले जो पुरुष यह पुण्यमयी कथा सुनते हैं, वे सम्पूर्ण दुःखों से मुक्त हो जाते हैं- यह बिलकुल निश्चित बात है। भगवती महामाया का चरित्र परम पवित्र एवं पापों का संहार करने वाला है। उसे जो पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें सम्पत्तियाँ सुलभ हो जाती है।

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