हिमशिखर धर्म डेस्क
ऊपर वाला भाग्य कैसे लिखता है ये तो वो ही जाने, लेकिन नीचे वालों को अगर अपनी किस्मत लिखना है तो उस स्याही का नाम है ‘पसीने की बूंदें’। यह घोर परिश्रम का युग है। आलस्य एक तरह की आत्महत्या है। लेकिन अपनी मेहनत में एक बात की जागरुकता रखिए और उसको कहते हैं अभ्यास। बहुत मेहनत करें पर खूब अभ्यास के साथ करें। अभ्यास शब्द के पीछे जो क्रिया है वो है निरंतर।
हर काम में एक निरंतरता होना चाहिए। ऐसा न हो कि आज किया, फिर रोक दिया। फिर जब इच्छा हुई तब कर लिया। नदी की तरह निरंतरता होना चाहिए। जैसे हम सांस निरंतर लेते हैं, वैसे ही अभ्यास निरंतर करिए। यदि हमने अभ्यास नहीं किया और जब हम सफलता की यात्रा पर होंगे तो वो बिल्कुल ऐसा होगा जैसे देख तो पीछे रहे हैं और भाग आगे रहे हैं।
परिश्रम से आप दौड़ अच्छी तरह लगा सकेंगे, लेकिन अभ्यास यदि करेंगे तो आप छलांग वक्त पर लगाएंगे। हिरण शेर से तेज दौड़ता है, लेकिन शेर उसका शिकार इसलिए कर लेता है कि वो जानता है छलांग कब लगाना है। तो सफलता के लिए जो छलांग लगाई जाती है उसका नाम अभ्यास और परिश्रम है।
अपने-अपने क्षेत्रों में जो भी व्यक्ति सफल हुए हैं उनकी सफलता में अभ्यास और परिश्रम की महती भूमिका रही है। अभ्यास और परिश्रम के द्वारा मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भी विद्वान बन सकता है। नि:संदेह किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने में अभ्यास और परिश्रम का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गुरु द्रोण ने एकलव्य को धनुर्विद्या देने से इन्कार कर दिया था। उसके उपरांत एकलव्य ने उन्हें चोरी-छिपे देखकर स्वयं धनुष-बाण चलाने का अभ्यास किया और वह धीरे-धीरे धनुविद्या में निपुण होता गया। आज यदि हम बल्ब की रोशनी पा रहे हैं तो उसके पीछे भी अभ्यास की शक्ति ही निहित है। एडिसन ने बार-बार असफल होने के बावजूद अभ्यास करना नहीं छोड़ा और एक दिन उस वस्तु का आविष्कार कर दिया जिसने दुनिया को प्रकाश दिया।
अभ्यास की शक्ति को मानव ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी भी महत्व देते हैं। मधुमक्खियां निरंतर परिश्रम और अभ्यास से फूलों का रस एकत्र करती हैं और अमृत तुल्य शहद बनाती हैं। इसी प्रकार नन्हीं चींटी जब अपने खाने के लिए अनाज एकत्र करती है तब इस प्रकिया में अनेक बार अनाज का टुकड़ा उसके मुंह से छूटता है, किंतु वह निरंतर चलने का अभ्यास करती है और अंतत: गंतव्य तक भार उठाए चलती जाती है। इसी तरह पक्षी अपना घोंसला बनाने के लिए जगह-जगह से तिनका-तिनका एकत्र करते हैं। फिर अत्यंत परिश्रम और अभ्यास से घोंसला बनाने में सफल हो जाते हैं। वास्तव में अभ्यास जीवन की नदी में वह नाव है जो अपने सवार को प्रवाह के बीच से सुरक्षित निकालकर गंतव्य तक पहुंचाती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभ्यास ही आत्म-विकास का सवरेत्तम साधन है।
करत-करत अभ्यास के जङमति होत सुजान।
रसरी आवत जात, सिल पर करत निशान।।
इस दोहे का अर्थ यह है कि जब साधारण रस्सी को बार-बार किसी पत्थर पर रगड़ा जाता है तो पत्थर पर भी निशान पड़ सकता है। निरंतर अभ्यास से कोई मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है। लगातार अभ्यास करने के लिए आलस्य को त्यागना जरूरी है। अज्ञान को दूर करने के लिए पूरी एकाग्रता से मेहनत करनी होगी।
महाभारत में द्रोणाचार्य और एकलव्य की कथा हमें अभ्यास का महत्व बताती है। कथा के अनुसार एकलव्य द्रोणाचार्य से धनुष विद्या सीखना चाहता था, लेकिन द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य बनाने से मना कर दिया था। इसके बाद एकलव्य ने द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा की और धनुष विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया।
लगातार अभ्यास करते रहने से एकलव्य धनुष विद्या में पारंगत हो गया था। एक दिन द्रोणाचार्य पांडवों के साथ उस क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे, जहां एकलव्य अभ्यास करता था। उस समय पांडवों का कुत्ता एकलव्य के सामने भौंकने लगा। इससे एकलव्य की एकाग्रता भंग हो रही थी। तब एकलव्य ने कुत्ते का मुंह बाणों से बंद कर दिया, लेकिन कुत्ते मुंह से खून की एक बूंद भी नहीं निकली थी।
जब कुत्ते को द्रोणाचार्य ने देखा तो वे हैरान रह गए थे। क्योंकि, इतनी कुशलता बाण चलाना किसी महान यौद्धा का ही काम था। वे यौद्धा को ढूंढते हुए एकलव्य के पास तक पहुंच गए। एकलव्य की कुशलता देखकर द्रोणाचार्य ने सोचा कि ये अर्जुन से भी अच्छा धनुर्धर बन सकता है। ये सोच द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया था। ताकि भविष्य में अर्जुन ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाए।