नव नाग स्तोत्र: नाग पंचमी पर इस तरह करें नाग देवता का पूजन

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

Uttarakhand

सावन महीने के शुक्ल पक्ष की पांचवी तिथि को नाग पंचमी पर्व मनाया जाता है। इस बार ये आज 9 अगस्त को है। आज के दिन नाग देवता के पूजन की परंपरा है। भविष्य पुराण सहित अन्य पुराणों में भी इसका महत्व बताया गया है। नाग पंचमी से जुड़ी एक कथा के मुताबिक माना जाता है कि इस दिन महिलाएं सांप को भाई मानकर पूजा करती हैं और भाई से अपने परिवार वालों की रक्षा का आशीर्वाद मांगती हैं।

भगवान शिव का सेवक वासुकी

शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। तभी तो उनके आभूषण हैं नाग। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। यह शोध का विषय है कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तो निश्‍चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे।

हमारे उत्तराखण्ड में शालिवाहन नाग वंशीय राजा का शासन था और उन्हीं के नाम से शालवाहनीय शक सम्वत चलता है जो भारत की मान्यताओं का प्रतीक भी है।

नाग वंशावली में शेषनाग नागों का  प्रथम राजा

नाग वंशावलियों में ‘शेषनाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।

उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनंत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।

क्या है काल सर्प दोष

विविध धर्म ग्रंथों एवं शास्त्रों में सर्प दोष का वर्णन मिलता है। वर्तमान में प्राचीन एवं नवीन दैवज्ञों के मध्य काल सर्प योग के विषय में मन्त्रणा प्रारम्भ हो रखी है। प्राचीन ग्रन्थ मानसागरी, बृहज्जातक और बृहत्पारासर होरा शास्त्र का अवलोकन करने से भी यह सिद्ध हो जाता है कि इन ग्रंथों में सर्प योग व काल सर्प योग का उल्लेख किया गया है। इस पर संक्षिप्त रूप से परिचय कराया जा रहा है।

काल सर्प योग का निर्माण किसी न किसी पूर्व जन्म कृत दोष, शापित कुण्डली या पितृदोष के कारण बनता है । जब राहु की वक्र गति से सभी ग्रह प्रभावित होते हैं तब उदित गोलार्ध काल सर्प योग होता है और जब राहु की गति से कोई ग्रह तत्काल प्रभावित नहीं होता तब अनुदित गोलार्ध काल सर्प योग बनता है। अर्थात् जब राहु जिसे सर्प का मुख माना जाता है से केतु तक सभी सातों ग्रह आ जाते हैं तो उदित, व जब केतु ग्रह जिसे सर्प का पूंछ माना जाता है से राहु तक सभी सातों ग्रह आ जाते हैं तो अनुदित काल सर्प योग होता है। खैर काल सर्प योग का निर्धारण अत्यन्त सावधानी से किया जाना चाहिए, केवल राहु – केतु के बीच ग्रहों का होना ही काल सर्प योग का होना पर्याप्त नहीं है।

काल सर्प योग मुख्य रूप से बारह प्रकार का होता है, यथा- अनन्त, कुलिक, वासुकी, शंखपाल, पद्म, महापद्म, तक्षक, कर्कोटक, शंखनाद या शंखचूड़, पातक, विषाक्त या विषधर, और शेषनाग कालसर्प योग। कालसर्प योग से प्रभावित जातकों को प्राय: स्वप्न में सर्प दिखाई देना, परिश्रम के बाद भी आशातीत सफलता प्राप्त नहीं होती, मानसिक तनाव से ग्रस्त, अकारण लोगों से द्वेष, गुप्त शत्रु सक्रिय, पारिवारिक जीवन कलह पूर्ण, विवाह में विलम्ब या वैवाहिक जीवन में तनाव आदि सामान्य लक्षण हैं। राहु की महादशा में अधिक कष्टकारी। अतः काल सर्प योग की शान्ति करवानी चाहिए। और नव नाग स्तोत्र के नौ पाठ प्रति दिन करने चाहिए।

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् ।
शंङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम् ।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषतः ।।

शिवपंचाक्षर मन्त्र और शिव पंचाक्षर स्त्रोत का नियमित जप पाठ करने से भी काल सर्प योग का शमन होता है। एक विशेष बात ध्यान रखने की है कि इस पूजन या जप में केवल इत्र या कपूर का प्रयोग किया जाना चाहिए। अगरवत्ती या दीप का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। वैसे काल सर्प योग नाहक बदनाम है, ऐसे जातक बहुत उन्नति करते हैं। काल सर्प योग वाले व्यक्ति राजयोग भोगने वाले भी होते हैं। शिव कृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है ।

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