सुप्रभातम् : यज्ञ हमारी वृहत्तर जीवन शैली का अंग

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प्रो. गोविन्द सिंह

कुछ वर्षों पूर्व की एक घटना याद आती है। मैं अपने शिक्षक प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप सिंह जी के गुड़गांव स्थित घर पर बैठा हुआ था। गुरुजी के भाई भौतिक शास्त्र और धर्मशास्त्र के जाने-माने प्रोफेसर रवि रवीन्द्र भी कनाडा से आए हुए थे। वे वहां भौतिकी के प्रोफेसर थे लेकिन धर्म में दिलचस्पी होने की वजह से विश्वविद्यालय ने उन्हें धर्मशास्त्र का भी प्रोफेसर बना दिया था। वे रूसी मूल के धर्मगुरु गुरजेफ के विश्व भर में अधिकारी विद्वान् माने जाते हैं। उन्हें सुनने के लिए गुरुजी ने मेरे अतिरिक्त कुछ और प्रियजनों को भी बुला रखा था।

इन्हीं लोगों में एक उनके भांजे भी थे, जो दिल्ली में ही जाने-माने डाॅक्टर थे। बातों-बातों में डाॅ साहब ने कहा कि हिन्दू लोग फिजूल के हवन-यज्ञों में पता नहीं क्या-क्या जला देते हैं। घी की बर्बादी करते हैं। लकड़ी जलाकर राख कर देते हैं। जौ-तिल, जड़ी-बूटियां आदि की बर्बादी करते हैं। इस सबसे ऊपर पर्यावरण को दूषित करते हैं। यह सब अंधविश्वास नहीं तो और क्या है?

डाॅ. साहब का कहना था कि विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के जरिये ही भारत का उत्थान संभव है। कुछ देर तक प्रो. रवीन्द्र उन्हें सुनते रहे। फिर बोले, तुम्हारा विज्ञान कितना पुराना है? मानव सभ्यता की हजारों साल की यात्रा में विज्ञान केवल 150 साल पुराना है। मानव जीवन के रहस्यों के पांच प्रतिशत तक भी अभी वह नहीं पहुंच पाया है। जो कुछ दिखाई दे रहा है, उसकी यात्रा बस वहीं तक नहीं है। इसलिए आप हमारी प्राचीन सभ्यता को यूं ही नकार नहीं सकते। प्रो. रवीन्द्र की बातों ने जैसे मेरी आंखें खोल दी थीं।

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सवाल सिर्फ हवन-यज्ञ का नहीं है। संभव है हम आज जो कुछ कर्म-काण्ड कर रहे हों, हमें उसका असली अर्थ मालूम न हो। गीताकार ने जिस तरह से यज्ञमय जीवन जीने को कहा है, उससे तो यही लगता है कि यज्ञ के मायने कहीं गहरे हैं। फिर यज्ञ के भी हमारे यहां अनेक रूप हैं- स्वाध्याय यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, जप यज्ञ, योग यज्ञ, द्रव्य यज्ञ। प्राचीन काल में हमने अश्वमेध यज्ञ और सोम याग जैसे और भी अनेक यज्ञों के बारे में सुना है। लगभग हर पूजा में यज्ञ का विधान है। यज्ञ में आहुति दी जाती है, अवदान किया जाता है, त्याग किया जाता है। क्यों किया जाता है?

यज्ञ याग से बना है, जिसका अर्थ है पूजा। लेकिन यज्ञ यहीं तक सीमित नहीं है। इसमें बलिदान का भी भाव है। साथ ही कर्म से भी वह गहरे जुड़ा है। समग्रता में यही धर्म है। हमारा जीवन निरर्थक नहीं है। हमारे जीवन की कोई भी गति-विधि यूं ही नहीं है। हर कार्य को किसी न किसी मकसद से जोड़ दिया गया है। इसलिए कि हम दिशा-भ्रमित न हों। आज भले ही हम यज्ञ का जो भी अर्थ निकालें, लेकिन अपने मूल रूप में वह मानव जीवन के शोधन से जुड़ा हुआ था। जैसे हम स्नान-ध्यान से स्थूल रूप से शुद्ध होते हैं, उसी तरह यज्ञ के जरिये हम अपना आंतरिक शोधन करते थे।

जो भी कार्य हम कर रहे हैं, वह निःस्वार्थ भाव से करें। उसी में हमारा सुख निहित है। यदि हम यज्ञमय जीवन को स्वीकार नहीं करेंगे तो समाज में हिंसा, लूटपाट, घृणा और अहंकार का विस्तार होगा और अंततः उसकी चपेट में हम भी आयेंगे। अर्थात यज्ञ की पहली शर्त है-कि हम जो भी कार्य कर रहे हों, वह निःस्वार्थ हो। हमारी साधना भी निःस्वार्थ हो। भले ही इसके जरिये हम अपने ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, लेकिन पहले हम उन तक पहुंचने के योग्य तो हों।

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यज्ञ का कोई एक अर्थ नहीं है। उसे केवल हवन-कीर्तन या कर्म-काण्ड नहीं समझा जा सकता। वह हमारी प्राचीन जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा है। उसे यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जैसे हम अपने जीवन के मिथकों को यूं ही नजरअंदाज नहीं कर सकते, वैसे ही यज्ञ के गहरे अर्थों को समझने की आवश्यकता है। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)

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