स्वामी कमलानंद (डा कमल टावरी) 

Uttarakhand

पूर्व केंद्रीय सचिव, भारत सरकार


हमारे देश की संस्कृति के चिंतन का मूल मिट्टी है। हमारे ऋषियों ने उन्हें प्रकृति और उसके समस्त चराचर को मिट्टी की संज्ञा दी है। मनुष्य और समस्त प्राणी जगत मिट्टी से बना है और उसी में विलीन हो जाता है। यह हम प्रत्यक्षरूप में भी देखते हैं। किंतु आज का शिक्षित मानव मिट्टी से अपना नाता तोड़ बैठा है। यह मनुष्य की अज्ञानता और अपने से कट जाने की स्थिति है जिससे हमारी मानव सभ्यता को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इसके कारण पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा गया है। जिस पर आम लोगों को ध्यान देना होगा। पर्यावरण संतुलन गड़बड़ाने से न केवल मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है अपितु पूरे प्राणी समुदाय का जीवन पर्यावरण की परिस्थिति से पूरी तरह जुड़ा हुआ है।

पर्यावरण का सीधा और सूक्ष्म अर्थ यह है कि प्रकृति के जो विभिन्न घटक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, उनकी पारस्परिक अभिन्नता और भावात्मक तथा गुणात्मक संतुलन प्रकृति की आवश्यकता के अनुरूप बनी रहे। हमारे तत्व मीमांसकों ने सृष्टि के सृजन के लिए पांच आधारभूत तत्व गिनाए हैं- पृथ्वी, वायु, जल, तेज और आकाश। प्रकृति ने प्राणियों के सृजन, जीविकोपार्जन एवं जीवंतता के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुरूप व्यवस्था की है। मगर प्राणियों में जिनमें से मुख्य रूप से मनुष्य है, कि अनंत आकांक्षाओं ने इस व्यवस्था को समय-समय पर गड़बड़ाया है। जिस कारण आज पर्यावरण की चिंता पैदा हुई है। पर्यावरण की जो चिंता पैदा हुई है उसका कारण यही गड़बड़ी है।

हम देखते हैं कि जब मनुष्य जंगली अवस्था में था तो वह पूरी तरह जंगलों और जंगली उत्पादों पर निर्भर था। सभ्यता का युग आया तो वह जंगलों पर निर्भर रहता हुआ अपना पृथक अस्तित्व बनाने लगा। उसने खेती की जमीन खोदी, जंगल बर्बाद किए। अपनी भोग लिप्सा के लिए प्राकृतिक स्त्रोतों का तेजी से दोहन किया और आज स्थिति यह है कि उसकी आवश्यकता तो अत्याधिक बढ़ गई है। लेकिन प्रकृति की सामर्थ्य घट कर शून्य की ओर बढ़ रही है। यह स्थिति ही मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो रही है। प्रकृति के अधिकतम दोहन की होड़ ने प्राकृतिक संसाधनों को समाप्ति तक पहुंचा दिया है और मनुष्य के सामने जिंदा रहने की समस्या पैदा हुई है। वास्तव में पर्यावरण की चिंता मनुष्य के सामने जिंदा रहने की संभावनाओं पर प्रश्नचिन्ह के कारण ही उभरी है। आज सारा विश्व ही पर्यावरणीय बिगाड़ से संत्रस्त है। प्राकृतिक संसाधनों के तेजी से विनाश के कारण मनुष्य का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। हिमनद तेजी से पीछे जा रहे हैं, हिम तालाब टूटने से बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है और बुग्यालों में भी मानवीय हस्तक्षेप के कारण भूस्खलन तेजी से बढ़ रहा है। पानी के परंपरागत स्त्रोत सूख रहे हैं, वायु मंडल दूषित हो रहा है, मिट्टी की उर्वरता क्षीण होने से कई प्रकार के विकार पैदा हो रहे हैं। भूस्खलन, भूक्षरण, मिट्टी का कटाव, बाढ़ की घटनाएं बढ़ती जा  रहीी हैं, जिससे लोगों का जीवन दुष्प्रभावित हो रहा है। विकास योजनाओं पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इन सबसे हमारी आर्थिक सामाजिक, और सांस्कृतिक समृद्धि पर प्रश्नचिह्न लग रहा है। मनुष्य ने प्राकृतिक स्त्रोतों के मुख्य रूपों से जंगलों एवं जल के दोहन में अपना ज्ञान, विज्ञान तथा तकनीकि विकास झोंक दिया है। यही कारण है कि जहां विज्ञान मनुष्य के लिए सुख का आधार बना वहीं प्रकृति के अधिकतम दोहन का वाहक बनकर विनाश का सूचक बना हुआ है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में जंगल प्रमुखता से हैं। जंगलों का दोहन न्यूनतम आवश्यकता के लिए हो, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन तथाकथित विकास और मानव कल्याण के नाम पर वनों और नदियों का बहुत तेजी से विनाश हुआ है। हमारे देश में ही वैज्ञानिक ढंग से मिश्रित जंगलों की आवश्यकता है। हमारे उत्तराखण्ड की बात देखें तो यहां घने सघन वन का प्रतिशत कम है। जो कि अत्यंत चिंता की बात हैं। दूसरी ओर विकास के नाम पर जंगल तो नष्ट हो ही रहें हैं, कई इलाके भी अस्थिर हुए हैं। आज भी तथाकथित मानव कल्याण के नाम वाली योजनाओं के कारण वन भूमि सहित अन्य भूमि भी अस्थिर हो रही है।

जंगलों के विनाश के कारण जो जंगली जानवर प्रकृति के ही अभिन्न अंग हैं, वो बस्तियों की ओर आ रहे हैं। उसके कारण लोगों की खेती और जीविका दुष्प्रभावित हो रही है। जिस कारण जंगली जानवरों और मानवों का तनाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही जंगलों के विनाश के कारण नमी आदि की खेतों में कमी हो रही है। उसका हमारी खेती के उपज पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है। यह पर्वतीय इलाकों में सीधा-सीधा देखा जा सकता है। जंगली जानवर मुख्य रूप से बाघ, भालू और बंदर आदि हैं, वो गांवों में आकर मनुष्यों पर भी आक्रमण करने से नहीं डर रहे हैं। इस प्रकार प्रकृति में जंगलों का-जमीन का, जंगल का, पानी का, जंगल का आदमी का, जंगल और जंगली जीव जंतुओं का ऐसा अटूट संबंध है उसको अलग से देख पाना कठिन है। ये तंत्र ऐसा उलझा हुआ है, यदि जंगल नष्ट होते हैं तो पूरा तंत्र छिन्न भिन्न हो जाता है। इसलिए जंगल बढ़ेंगे तो जंगली जानवरों के खाद्य और परम्परागत आवास भी सुरक्षित रहेंगे साथ ही लोगों के साथ उनका तनाव भी खत्म होगा। इस प्रकार की योजनाएं धरातल पर लानी होंगी। जब इस प्रकार की व्यवस्था की गई जाएगी, जंगल बढ़ाए जाएंगे तो उससे खेती भी सुरक्षित बचेगी और जंगली जानवरों का आक्रमण नहीं होगा। इसलिए जंगलों के बारे में समग्रता से सोचने की आवश्यकता है।

जो प्रकृति के भिन्न भिन्न घटक हैं इनका आपस में सामंजस्य बना रहे ऐसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आज वनों के विनाश तथा पर्यावरण के बिगाड़ की समस्या किसी क्षेत्र या देश तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि विश्वव्यापी बन गई है। उसका समाधान आम आदमी की भागीदारी से ही संभव लगता है। पर्यावरण और वनों के विकास की बात अब समय की बात बन गई है। आम लोगों के द्वारा धरती को वानस्पतिक आवरण से भर देने का। इस शस्यश्यामला धरती को हराभरा बनाने और उसकी हरियाली कायम रखने के कार्यों में पूरी निष्ठा और शक्ति से लोगों को जुट जाना चाहिए। तभी प्रकृति का जो क्षरण हो रहा है जिसके साथ हमारा अस्तित्व जुड़ा हुआ है वह सुरक्षित रह सकता है।

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