पुण्यतिथि पर विशेष : कोरोना संकट काल में वृक्ष मानव का आक्सीजन बैंक दे रहा ‘प्राणवायु’

 

Uttarakhand

पर्यावरण, ईश्वर द्वारा प्रदत एक अमूल्य उपहार है। आज कोरोना संकट काल में मानव को पेड़-पौधों की अहमियत का पता चल गया है। प्रकृति पर आने वाले संकटों को भांपते हुए हरियाली को बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले निष्काम कर्मयोगी वृक्षमानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी की आज पुण्य तिथि है। इस लेख में हम प्रकृति प्रेमी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विश्वेश्वर दत्त सकलानी के जीवन के सुनहरे पन्नों को पलटकर उनके कार्यों को याद कर उन्हें नमन करते हैं-


हिमशिखर पर्यावरण डेस्क

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।। (गीता)
यानी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं ‘‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं। कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

समस्त संसार कर्म का ही परिणाम
संसार की कोई भी वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन निष्क्रिय नहीं रह सकती। क्योंकि प्रकृति उसको कर्म में बांधे रखती है। कर्म के कारण ही कोई कोई राजा तो कोई रंक और कोई अपराधी या न्यायाधीश बनता है। यद्यपि प्रकृति में पेड़-पौधे, नदी-नाले, पहाड़ आदि जड़ पदार्थ निष्क्रिय से लगते हैं, लेकिन सभी कर्मशील हैं। नदी-नाले अपना जल बहाकर संसार को जीवन प्रदान करते हैं, बीजों से निकला अंकुर वृक्ष बनकर संसार को छाया, फल आदि प्रदान करता है। पर्वत अपने घने बादलों से टकरा कर पृथ्वी को वर्षा का जल प्रदान करते हैं। जब जड़ पदार्थ भी इतने क्रियाशील हैं तो हाथ-पैर धारी मनुष्य की तो बात ही क्या है? मनुष्य जो कुछ करता है, उसी के आधार पर फल भी भोगता है।

कर्मयोगी वृक्षमानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी
इस धरा पर मानव कर्म करने में स्वतंत्र है। आज का मनुष्य रोजमर्रा की निजी जिंदगी में उलझा हुआ है। लेकिन बहुत कम लोग होते हैं, जो अपने जीवन में स्वार्थ से रहित होकर मानव जाति के कल्याण के लिए अपना कर्म करते हैं। ऐसे देहधारी लोग ही इस संसार में मानव के रूप में जन्म लेकर महामानव बन जाते हैं। ठीक इसी तरह कर्मयोगी वृक्षमानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने भी निष्काम भाव से प्रकृति को सजाने और संवारने में अपने जीवन की आहुति दे दी। वृक्षमानव के अंतर को टटोलें तो पता चलता है कि उनका शरीर और आत्मा सदैव पेड़-पौधों में बसती थी। उन्होंने जीवन के अंतिम समय तक शरीर को तिल-तिल जलाकर पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाए रखी। वृक्ष मानव की तपस्या से टिहरी के पुजार गांव में खड़ा हुआ लाखों वृक्ष का प्राकृतिक आक्सीजन बैंक कोरोना संकट काल में लोगों को प्राणवायु देने का भी काम कर रहा है।

धरती मेरी किताब, पेड़-पौधे मेरे शब्द
‘‘तीन किलो की कुदाल मेरी कलम है, धरती मेरी किताब है, पेड़-पौधे मेरे शब्द हैं, मैंने इस धरती पर हरित इतिहास लिखा है।’’ ये शब्द वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी के हैं। धरती के बंजर सीने पर लाखों वृक्ष उगाने वाले वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने हजारों एकड़ पर विशाल जंगल खड़ा कर दिया था। उन्होंने करीब बारह सौ हेक्टेयर में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाए। इनमें बांज, बुरांश, काफल और देवदार के पेड़ शामिल हैं। उनके इस कार्य के लिए वर्ष 1986 में इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरुस्कार से भी नवाजा गया। वृक्ष मानव कहा करते थे कि ये पेड़ ही मेरे भगवान हैं, यही मेरी संतानें हैं।

वृक्षमानव का जीवन परिचय
विश्वेश्वर दत्त सकलानी का जन्म 2 जून 1922 को पुजार गांव में हुआ था। वृक्ष मानव को वृक्ष लगाकर प्रकृति को संवारने का कर्मभाव अपने पूर्वजों की विरासत से मिला था। यही कारण है वे आठ वर्ष की खेलने-कूदने की उम्र से ही पेड़ लगाने लगे थे। फिर क्या था, उम्र बढ़ने के साथ-साथ ही बंजर जमीन पर पेड़-पौधे लगाने की श्रृंखला भी बढ़ती चली गई। विश्वेश्वर दत्त सकलानी और उनके बड़े भाई नागेंद्र सकलानी ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कई बार वे जेल भी गए। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नागेंद्र सकलानी शहीद हो गए। 1956 में उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया। इन घटनाओं ने उनका वृक्षों से और अधिक लगाव बढ़ा दिया। इसके बाद उनके जीवन का एक ही उद्देश्य बन गया, वृक्षारोपण। 18 जनवरी 2019 को वृक्षमानव इस शरीर को छोड़कर अनंत की यात्रा पर निकल गए। लेकिन उनके अविस्मरणीय कार्य सदैव पर्यावरण संरक्षण के पथ पर आगे बढ़ने का संबल प्रदान करते रहेंगे।

पेड़ों के लिए दे दी ‘आंखों रोशनी’
वृक्ष मानव ने पेड़ों के लिए सिर्फ अपना जीवन ही नहीं दिया, अपनी आंखों की रोशनी भी दे दी। वर्ष 1999 में उन्हें आई हैमरेज हो गया। उनका उपचार हुआ। चिकित्सकों का कहना था कि शारीरिक श्रम के कारण उनकी आंखों की नसें फट गई हैं। डाक्टरों ने उनहें शारीरिक श्रम न करने की सख्त हिदायत दी। लेकिन आंखों की रोशनी गंवाने के बाद भी वृक्ष मानव ने पेड़ लगाना नहीं छोड़ा। वह फिर भी कुदाल लेकर जंगल की ओर चले जाते और बीज बोते। सच्चे कर्मयोगी होने के कारण वृक्षमानव प्रचार-प्रसार से हमेशा कोसों दूर रहे हैं। लेकिन अब उनके चले जाने पर वृक्षमानव को पदम श्री अवार्ड दिए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है।

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