हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
आज गोवर्द्धनमठ पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द महाभाग का प्राकट्योत्सव संसारभर में राष्ट्रोत्कर्ष दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय गोवर्द्धनमठ पुरीपीठ की पावन शंकराचार्य परंपरा के 145वें और श्री मन्नारायण से प्रारंभ गुरुपरंपरा में श्रीमन्नारायण के बाद 155वें स्थान पर प्रतिष्ठित हैं।
विदित हो कि वैदिक सनातन की पुनर्स्थापना के लिए, जब चारों ओर चार्वाक्, जैन और बुद्ध मतावलंबियों ने अपने वर्चस्व से समूचे आर्यावर्त को दूषित किया हुआ था, तब ईसापूर्व 507 वर्ष में केरल के कालटी नामक ग्राम में पिता श्रीशिवगुरु और माता सती आर्याम्बा के यहां श्रीमन्नारायण की गुरु परंपरा में 10वें स्थान पर इस भूतल पर भगवान मार्ग (शिव) ने शंकर रूप से अवतार ग्रहण किया था। शंकर ने संन्यास पथ पर अग्रसरित होने के लिए उस समय के महान योगी तत्त्वज्ञ अद्वैत निष्ठापरायण श्री गोविन्द भगवत्पाद से युधिष्ठिर शक 2640 फाल्गुन शुक्ल द्वितीय को संन्यास की दीक्षा ग्रहण की।
आद्य शंकर ने विष्णुसहस्रनाम, एकादशोपनिषद, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगद्गीता जैसे ग्रंथों पर जहां भाष्य रचना की, वहीं छोटे ग्रंथों-विवेक चूड़ामणि, अपरोक्षानुभूति जैसे लघु वेदान्त साहित्य की रचना भी की, जिसमें उन्होंने उपनिषद प्रतिपादित मूल सिद्धांतों का अपनी विशेष शैली में प्रतिपादन किया। चर्पटपंजरिका, सौंदर्य लहरी जैसी काव्यमयी रचनाओं से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे महान दार्शनिक होने के साथ ही सगुण-साकार के रूप-स्वरूप को व्याख्यायित करने में भी अनुपम और अद्वितीय थे। ये रचनाएं हृदय और मस्तिष्क दोनों का परिष्कार कर आत्मतत्त्व का अनुसंधान करने में पूरी तरह से सक्षम हैं।
इस प्रकार कलियुग में भगवत्पाद श्रीशिवावतार शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्र ग्रंथों की रचना कर विधर्मियों, पन्थानुयायियों एवं मीमांसकों को शास्त्रार्थ में पराजित कर अद्वैतमत का घोष किया। इतना ही नहीं उन्होंने नारद कुंड से अर्चाविग्रह श्रीबदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्री जगन्नाथादि दारु ब्रह्म को प्रकट और प्रस्थापित किया। परकाया प्रवेश से इस बात की सिद्धि होती है कि वे योग के किस सर्वोच्च शिखर पर स्थित थे।
भगवत्पाद श्री शंकराचार्य ने सुधन्वा सार्वभौम को राज सिंहासन समर्पित कर चतुराम्नाय चतुष्पीठों की स्थापना की तथा अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और अध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया। (इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु पाठक स्वस्ति प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों का अध्ययन करें। विशेषकर ‘चतुराम्नाय-चतुष्पीठ’ और ‘श्रीशिवावतार भगवत्पाद आदिशंकराचार्य’ इन दो पुस्तकों का)।
संक्षेप में यहां इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि श्रीशंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्व के मूल्यांकन से यह निस्संदेह रूप से कहा जा सकता है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधन का कार्य आपके द्वारा सर्वतोभावेन किया गया था और भारतीय संस्कृति के विस्तार में इनके अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है, हमें भुलाना भी नहीं चाहिए।
इसी पावन परंपरा के अंतर्गत 142वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी महाराज को भगवती विमला सिद्ध थीं। भारत में शक्तिपात की शिक्षा का पुनः सूत्रपात इन्हीं से प्रारम्भ हुआ था। इस पीठ के 143वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य श्री भारती कृष्ण तीर्थ जी ने विश्वविख्यात ‘वैदिक गणित’ की संरचना की तथा 144वें शंकराचार्य श्रीनिरंजनदेव तीर्थ जी ने सन् 1967 में 72 दिनों तक गोवंशरक्षार्थ अनशन किया। उन्होंने सती, संस्कृत और संस्कृति आदि सर्वहितप्रद सनातन मान बिंदुओं की रक्षा के लिए अद्भुत प्रयत्न और संघर्ष किया।
आज इस पीठ को सुशोभित करने वाले 145वें श्री मज्जगद्गुरु शंकराचार्य अनंतश्री विभूषित स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाभाग का 78वां जन्मोत्सव है। वह भी भगवत्पाद भगवान आद्य शंकराचार्य महाप्रभृति की पावन परंपरा का निर्वाह करते हुए सनातन वैदिक धर्म के मापदण्डों को आधार बनाकर तथाकथित आधुनिक विचारों के मालिन्य को परिष्कृत व शुद्ध करने में अनवरत रूप से संलग्न हंै।
आपका जन्म बिहार राज्य के मिथिलाचंल स्थित तत्कालीन दरभंगा (वर्तमान में मधुबनी) जिला के हरिपुर बकसीटोल नामक ग्राम में आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र पाम संवत् 2000 तदनुसार 30 जून 1943 ई. को श्रोत्रिय कुलभूषण दरभंगा नरेश के राजपण्डित श्रीलालवंशी झा जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गीतादेवी जी के पुत्र के रूप में हुआ था।
बालक नीलांबर में बाल्यकाल से ही विलक्षणताएं थीं। स्वप्न में उनके मन में यह भाव उत्पन्न होता था कि मैं मरने वाला नहीं’। मात्र ढाई वर्ष की आयु में ही इन्हें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए थे।
बालक नीलांबर शुरू से ही कबड्डी, कुश्ती, तैराकी तथा फुटबाल आदि खेलों में पूरी तरह से निष्णात थे। लेकिन एकाएक संग्रहणी की चपेट में आ गए। निराश होकर वह अपनेे पिता की समाधि पर गए। वहां मिट्टी का एक कण उन्होंने अपने मुख में डाला तथा प्रार्थना की कि या तो शरीर स्वस्थ हो जाए या यह शव हो जाए। तभी एक दिव्य चमत्कार हुआ। किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें उठाया और पृथ्वी से ऊपर उठाकर नभोमण्डल में ले जाकर स्थित कर दिया। वहां पद्मासन लगाए वृत्ताकार में बैठे, श्वेत वस्त्र और पगड़ी धारण किए पितरों के उन्होंने दर्शन किए। सभी ने मानो एक स्वर में कहा कि ‘घर लौट जाओ और निर्भय विचरण करो।’ इसके बाद संग्रहणी रोग सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई। वहीं आप सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े।
यह घटना उस समय की है जब आप दसवीं कक्षा के विज्ञान के छात्र थे। जिस भवन में आपका निवास था, उसके पास ही दशहरे के शुभ अवसर पर रामलीला का आयोजन किया गया था। दृश्य चल रहा था श्रीराम का तपोवन गमन। भवन की छत्त पर टहलते हुए मंचन के संवाद कानों में पड़े। प्रबल भाव उठा कि जब भगवान् राम को वनवास हुआ तो मेरे यहां बने रहने का भला औचित्य क्या है। वैराग्य ने काशी चलने की ओर प्रेरित कर दिया। काशी की ओर चल दिए।
नैमिषारण्य पहुंचे। वहां परमपूज्य दण्डी स्वामी श्रीनारदानन्दजी महाराज के दर्शनों का संयोग बना। वहां आपका नाम नीलांबर से हो गया धु्रव चैतन्य। कालान्तर में आप सर्वभूत हृदय धर्मसम्राट करपात्रीजी महाभाग के संपर्क में आए। उनके द्वारा चलाए जा रहे गोरक्षा अभियान में आपने सक्रिय भूमिका निभाई। 7 नवम्बर, 1966 में दिल्ली में आयोजित विशाल गोरक्षा सम्मेलन में आप शामिल हुए। 9 नवंबर को आपको तिहाड़ जेल में डाल दिया गया, जहां 52 दिनों तक आप बंदी के रूप में रहे।
बैशाख कृष्ण एकादशी, गुरुवार पाम संवत् 2031, तदनुसार 18 अप्रैल, 1974 को हरिद्वार में धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज (सर्वभूत हृदय स्वामी हरिहरानन्द जी महाराज) के कर-कमलों से आपको संन्यास की पावन दीक्षा दी गई। अब आपका नाम-संन्यास परंपरा के अनुसार हो गया स्वामी निश्चलानंद सरस्वती। आप इसी नाम से समूचे विश्व में जाने जाते हैं।
इसके बाद आपकी बहुमुखी प्रतिभा और गरिमामय व्यक्तित्व के कारण पुरी मठ के तत्कालीन श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी निरंजन देव तीर्थ जी महाराज ने माघ शुक्ल षष्ठी तदनुसार 9 फरवरी, 1992 को अपने कर कमलों से आपको पुरी पीठ के 145वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। इस महिमामय पद पर प्रतिष्ठित होने के बावजूद पद के उपभोक्ता न होकर उसकी गरिमा और मर्यादा का आपने पूरी तरह से निर्वाह किया, अभी भी कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें कई बार अपने जीवन की बाजी भी लगानी पड़ी, लेकिन उन्होंने कभी किसी बात की परवाह नहीं की-श्रीनारायण ने उनके जीवन को तब भी पूर्णरूप से सुरक्षित रखा, जब उन्हें उनके विरोधियों ने सीसा पीसकर पिला दिया। भगवान् जानते हैं कि किसे किस कार्य के लिए निमित्त बनाना है।
इस प्रकार श्री करपात्रीजी महाराज के कृपा पात्र शिष्य एवं पुरीमठ के पूर्वाचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज द्वारा श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर अभिषिक्त स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी महाराज ने विश्व कल्याण एवं राष्ट्रप्रेम की भावना से भावित होकर व्यासपीठ एवं पूर्ण शासन तंत्र का शोधन करने तथा कालान्तर से विकृत एवं विलुप्त हो चुके ज्ञान-विज्ञान को परिमार्जित करने एवं पूर्ण शुद्धता के साथ पुनः उद्भाषित करने को अपना लक्ष्य बनाया।
अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए महाराज श्री ने पीठ परिषद के अन्तर्गत ‘आदित्य वाहिनी’, ‘आनंदवाहिनी’, ‘हिन्दू राष्ट्र संघ’ ‘राष्ट्रत्कर्ष अभियान’, ‘सनातन सन्त समिति’ जैसी संस्थाओं की स्थापना की। इन सभी का उद्देश्य है देश अखंडता को बनाए रखते हुए हिन्दुत्व के आदर्श और अस्तित्व की सुरक्षा। इसके अन्तर्गत अन्यों के हित की उपेक्षा नहीं की गई है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के आदर्श का पालन इसमें समाहित है।
महाराज श्री की उपलब्धियों में से यहां कुछ को यहां विशेष रूप से उदधृत किया जा रहा है ताकि उनकी दूर दृष्टि और परंपरा के प्रति अनन्य निष्ठा को आंकना संभव हो पाए-
- भव्य राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त हुआ-बिना उसी स्थल पर मस्जिद का निर्माण हुए
- रामसेतु को टूटने से रोकना
- नेपाल को हिन्दु राष्ट्र के रूप में पुनः स्थापित करना
- विश्व में व्याप्त आर्थिक विपन्नता और अराजकता के निवारण का मार्ग सुझाया
- दलाई लामा द्वारा चलाए जाने वाले धर्म परिवर्तन कार्यक्रम पर रोक
महाराज श्री विज्ञान के पक्षधर हैं, लेकिन उनका मानना है कि वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक तीनों धरातल पर जो सही सिद्ध हो वही अनुकरणीय है। विकास के आधुनिक विचारों को वह मूल से नकारते हैं, क्योकि इससे लोगों का हित नहीं हुआ है, उसके विपरीत पूरी मानवता विनाश के कगार पर आ खड़ी हुई है। प्रकृति को विकृत करने का परिणाम अब किसी से छिपा नहीं है। अपने इन्हीं शास्त्र सम्मत विचारों को जन सामान्य और बुद्धिजीवियों तक पहुंचाने के लिए महाराज श्री अनवरत प्रयास में रहते हैं। वर्ष 2016 में 365 दिनों में आपका प्रवास काल 248 दिन रहा।
यह सत्य के प्रति अनन्य निष्ठा का ही परिणाम है कि वह वहां जाने में भी जरा नहीं हिचकते जहां जाने के लिए समाजसेवियों और राजनेताओं को विशेष मन बनाना पड़ता है। भारत-नेपाल, भूटान सीमा पर ग्रामीण तथा आदिवासी क्षेत्रों में जाकर महाराज श्री ने हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाया, क्योंकि इन क्षेत्रों में सुनियोजित तरीके से धर्मान्तरण किया जा रहा है, जो राष्ट्र की सुरक्षा को लेकर महत्वपूर्ण कार्य था। देश के सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए आप रजौरी गए, जहां बिग्रेडियर रैंक के पदाधिकारियों को आपने संबोधित किया।
जब भारत-पाक सीमा पर सर्जिकल स्ट्राइक की जा रही थी, तब बटाला में धर्मसभा को आपने संबोधित किया। गोधराकाण्ड के बाद आप उस जलती टे्रन को देखने भी गए, जिसमें कार सेवकों को बेदर्दी से आग के हवाले कर दिया गया था। विदित हो कि प्रशासन द्वारा वहां जाने की सलाह नहीं दी जा रही थी। समय-समय पर कुछ विशेष स्थानों पर महाराजश्री के जो प्रवचन हुए उनमें से कुछ विशेष हैं-
- डी.आर.डी.ओ ओडिशा
- इसरो
- इंडियन इन्स्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट
- नेशनल थर्मल काॅर्पोरेशन
- चार्टर्ड एसोसिएशन ऑफ़् इंडिया-वेस्टर्न रीजन
- महाराणा प्रताप कृषि विद्यालय, उदयपुर-राजस्थान
- एम. जी. एम. मेडिकल काॅलेज, जमशेदपुर
- इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टैक्नोलाॅजी, बनारस
- इलाहाबाद हाईकोर्ट बार काउंसिल
- भाभा एटोमिक रिसर्च सेन्टर, मुंबई
- पूसा एग्रीकल्चर इन्स्टीट्यूट, दिल्ली
गोवर्द्धनपीठ के अन्तर्गत महाराजश्री की देखरेख में वैसे तो कई सेवा और प्रबोध प्रकल्प चल रहे हैं, ताकि लोगों के जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष हो, लेकिन यह आयोजन अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं-
प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा की संध्या में पुरी समुद्र तट पर आयोजित जनसभा में पूज्यपाद राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं के समाधान के लिए विशेष उद्बोधन देते हैं। इसी तरह का कार्यक्रम मकर संक्रांति की संध्या में गंगा सागर में भी महाराज श्री की उपस्थिति में संपन्न होता है। भविष्य में योजना है कि इसी की तरह धारा कन्याकुमारी और रामेश्वरम् में भी प्रवाहित हो।
गोवर्द्धनपीठ के द्वारा यूट्यूब के माध्यम से सामान्यजन को अपनी संस्कृति के सच्चे स्वरूप की जानकारी हो रही है। महाराज श्री के द्वारा दिए उत्तर व्यवहार, विज्ञान और अध्यात्म-इन तीनों कसौटियों पर खरे होते हैं। पीठ से प्रकाशित होने वाली 116 पुस्तकें उस परंपरागत गौरव की साक्षी हैं, जिनके कारण विश्वगुरु के रूप में आज भी सम्पूर्ण जगत् की दृष्टि हमारी ओर टिकी हुई है।
महाराजश्री के रूप हमें एक ऐसी महान विभूति उपलब्ध हैं-जो ज्ञान-विज्ञान को उसके सही संदर्भ में देखती है, धर्म के अनुशासन को सर्वोपरि प्रतिष्ठित करती है, निर्भय होकर सत्य को प्रकट करने में झिझकती नहीं, जिसकी दृष्टि में सर्वब्रह्ममय भले ही है, लेकिन व्यवहार के सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता।
आज हम राष्ट्रोत्कर्ष दिवस के रूप में महाराज श्री का प्राकट्योत्सव मना रहे हैं। शंकराचार्य परंपरा के परमपोषक आचार्य प्रवर के श्रीचरणों में कोटिशः नमन!