हिमशिखर धर्म डेस्क
वीर शैवमत के प्रारंभिक पंच मठों में केदारनाथ का प्रथम स्थान है। इसके प्रथम महंत एकोरामाराध्य कहे जाते हैं। उत्तराखण्ड स्थित केदारनाथ भारत के द्वाद्वश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहां स्थित केदारेश्वर मठ अत्यंत प्राचीन माना जाता है।
महापथ नाम के तुषारश्रृंग के नीचे स्थित केदारनाथ महापुण्य स्थान माना जाता रहा है। केदारनाथ के प्रभाव के कारण उत्तराखण्ड को केदारखंड भी कहा जाता था। स्कंद पुराण के अनुसार, महादेव को अतिप्रिय इस पुण्य स्थल की धूलि का स्पर्श भी महापुण्यदायी है। महापाप करने वाला भी केदारनाथ दर्शन से पाप रहित हो जाता है। प्राचीन काल में महापथ या भृगुपंथ में भैरव झंप स्थान से देव के प्रसाद की लालसा व रुद्रलोक पाने की प्रत्याशा में कूदकर आत्महत्या करते थे। प्राण त्याग करने की इस परम्परा पर अंग्रेजी शासन काल में रोक लगाई गई।
‘केदार’ के बारे में काशीखंड में लिखा गया है कि केदार दर्शन का निश्चय करने वाले के अजन्म सिंचित पाप उसी समय विनिष्ट हो जाते हैं। घर से निकलने पर दो जन्म के अर्जित पाप, मध्य मार्ग में पहुंचने पर तीन जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। केदार पर्वत दर्शन व यहां का जल ग्रहण करने से ही जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं।
‘केदार’ का एक अर्थ जल निवारण के निमित्त चारों पाश्र्व को सेतुबन्ध युक्त श्रेष्ठ, चारों ओर से घिरा हुआ खेत या उपजाऊ भूमि भी है। (केशिरसी दारोस्यं केन जलेन वा दारोस्य) संस्कृत साहित्य में दलदली भूमि जिसमें महीन घास उगती है, जिसके नीचे जल होता है, जो शैवाल या बुग्याल भी कहा जाता है। मान्यता है कि केदार घाटी में निवास करने वाले किरात जाति के इष्ट देव के कारण किरात मंडल भी यहां था।
किरात बाद में केक्षर नाम से प्रचलित हुआ। ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसे केदार नामक राजा की तप स्थली कहा गया है, जहां शिव ने दर्शन देकर इस स्थल को केदार के नाथ (स्वामी) को वर दिया था। समुद्र मंथन से हिमालय की जिस भूमि पर जल की बौछारें पड़ी वह भूमि दलदल हो गई, जो केदार भूमि कहलायी।
इससे अलग स्कंद पुराण के नागर शुंड में ‘केदार’ नाम पड़ने की अलग कथा है। केदार शब्द केदारयामि से निकला है। जिसका अर्थ है किनको विदीर्ण कर डालूं? कथा प्रसंग अनुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर के प्रारंभ में हिरण्याक्ष दैत्य था। अपने पराक्रम से उसने देवराज इंद्र को स्वर्ग से निकालकर समस्त त्रिलोक पर अधिकार कर लिया। इंद्र सहित सभी देवगणों ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे महिष रूप में शिव पृथ्वी को भेदते निकले और बोले, देवराज! शीघ्र कहो, मैं इस रूप में संपूर्ण दैत्यों में से किन-किन को जल से विदीर्ण कर डालूं। इस पर इंद्र ने हिरण्याक्ष, सुबाहु, त्रिश्रृंगण व लोहिताक्ष दैत्यों के वध की प्रार्थना की।
महिषरूपी शिव ने अपने सींगों से हिरण्याक्ष सहित पांच प्रधान दैत्यों को मारकर यमलोक पहुंचा दिया। इंद्र की प्रार्थना पर शिव लोक कल्याण के लिए महिष रूप में विराजमान हो गए। भगवान शिव ने यहां सुन्दर कुंड प्रगट किया और उसे पितरों को तारने वाला बताया। बाद में यहां वशिष्ठ, उपमन्यु व भगवान श्रीकृष्ण आराधना हेतु पहुंचे।
द्वापर युग में जब कुल भ्राताओं, गुरु हत्या और ब्रह्म हत्या की पाप मुक्ति हेतु जब पांडव आए तो महिष रूपी शिव उन्हें दर्शन न देने की इच्छा से पुनः पृथ्वी के गर्भ में जाने लगे किन्तु महाबली भीम ने उनका पृष्ठ भाग पकड़ लिया। इंद्र के वरदान के कारण शिव, केदार को छोड़ न सके। यहां केदार शिला के रूप में भगवान शिव के स्वयंभू स्वरूप का पूजन होता है।
भगवान केदारनाथ की उत्पति का शिव पुराण कोटि रुद्र संहिता में भी वर्णन है। जिसके अनुसार भगवान नर नारायण हिमालय के बदरीकाश्रम देवादिदेव शिव की तपश्चर्या में लीन हो गए। उन्होंने शिव का पार्थिव लिंग बनाकर षोडशोपचार विधि से पूजन किया। भगवान शिव लिंग में प्रतिष्ठित हो गए और प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। नर नारायण ने उन्हें ज्योतिर्लिंग के रूप में केदार क्षेत्र में सदा वास करने की प्रार्थना की। यही केदारेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। इस ज्योतिर्लिंग का दर्शन व स्पर्श समस्त पापों से मुक्ति देने वाला कहा गया है।
भगवान शिव कहते हैं कि यह तीर्थ उतना ही पुराना है जितना मैं हूं। सृष्टि के सर्गकाल में जब मैंने ब्रह्मामूर्ति धारण की तो मेरी स्थिति तब भी इसी स्थान पर थी। मैं इस क्षेत्र का कभी त्याग नहीं करता। यह स्थान देवताओं के लिए दुर्लभ है। यथा-
पुरातने यथाहं वै तथा स्थानमिंद किल।
यदा सृष्टि क्रिया याचं मया वै ब्रह्मामूर्तिना।।
स्थिमत्रैव सततं देनावामपि दुलर्भम।
तदादिकमिदं स्थानं देवानामपि दुर्लभम।। (केदारखंड, अध्याय 41/5)
भगवान शिव के द्वार पाल श्रृंगी-भृंगी सदैव यहां विद्यमान रहते हैं। भगवान महादेव का यह क्षेत्र अति गोपनीय है। शिव पुराण, कूर्म पुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, केदारखंड आदि प्राचीन ग्रंथों में केदारनाथ के अनादि काल का तीर्थस्थल होने का प्रमाण है। संभवतया इसीलिए बदरीनाथ से पूर्व केदारनाथ यात्रा का विधान पूर्व काल से ही चला आ रहा है।
पांडव कथा से यह सिद्ध होता है कि यहां भगवान शिव के साक्षात दर्शन होते थे। लेकिन कलियुग में पापाचार के प्रभाव से महादेव के दर्शन मनुष्य के लिए दुर्लभ हो गए। भगवान के दर्शन विग्रह रूप में होने से भी आस्था श्रद्धा में कोई कमी भक्तों में नहीं दिखाई देती है।
भगवान शंकर मृत्यु के देवता, महाकाल, महाप्रलयंकारी के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित हैं। हिमालय क्षेत्र में केदारनाथ ही एक मात्र ज्योतिर्लिंग है। शरीर व मन से मानव मोक्ष की कामना से केदार यात्रा युगों से करता आ रहा है। सृष्टि निर्माण के समय ही इन पावन धर्म स्थलों पर प्राकृतिक आपदाओं के प्रहार होते रहे हैं।
हिमखंडों के टूटने, जलाशयों के उजड़ने, नदियों में बाढ़ की स्थितियां यहां बनती रही हैं। प्रकृति के तांडव रूप को मनुष्य जाति ने अनेक बार देखा मगर उसकी आस्था और प्रबल होती गई। ज्योतिर्लिंग को कलुषित करने वाले मनवीय आचरण के दंड स्वरूप आई आपदाएं भगवान रुद्र के रौद्र रूप को ही दर्शाती हैं।
संत, महात्मा, विद्वान साधक सभी मानते हैं कि भगवान के नित्य वास के पुण्य स्थल मनुष्य के शुद्धिकरण व मोक्ष प्राप्ति के लिए हैं। लेकिन मनुष्य अपनी लालसा में उसके महत्व को कम करने की चेष्टा कर रहा है। कुछ सालों पूर्व केदारनाथ में आई आपदा और उससे उपजी त्रासदी इसका ही संकेत है कि यदि मनुष्य अपने पापाचार पर अंकुश नही लगाता तो स्वयं परम शक्ति इस कार्य को करती है। परिणामस्वरूप निर्दोष जीवों को भी मनुष्य जाति के भ्रष्ट कार्य कलापों का प्रकोप झेलना पड़ता है।
आपके पोस्ट के माध्यम से केदारनाथ मंदिर के रहस्य को जानकर बहुत अच्छा लगा । ऐसे ही पोस्ट लिखते रहें और हम सभी को भगवान की भक्ती दर्शन कराते रहें । धन्यवाद