हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
आजकल भक्ति की लहर श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। धर्मोपदेशकों द्वारा लोगों के बीच यह धारणा पुष्ट की जा रही है कि ज्ञान का मार्ग कठिन है, भक्ति सरल है। इसीलिए धार्मिक जगत विचारों से, स्वाध्याय से, मनन और चिन्तन से दूर जा रहा है। विचारों से दूर जाने में गुरुजनों और भक्तों-दोनों को ही लाभ है। इसमें दोनों की कमियां छिप जाती हैं। यह तो व्यवहार में दिखने में स्पष्ट रूप से आता है कि भावुक प्रकृति के लोग इसमें जल्दी फंस जाते हैं। चारों तरफ इस तरह के किस्सों को आप आसानी से पढ़-सुन सकते हैं, पढ़ते-सुनते हैं। इसमें आत्मप्रदर्शन की संभावना बनी रहती है।
भगवान आदि शंकराचार्य ने जब भक्ति की परिभाषा दी-‘अपने स्वरूप का अनुसंधान ही भक्ति है’, तो उनका आशय ज्ञानपूर्वक भक्ति से था। माना कि इसकी शुरुआत साकार से होती है, लेकिन इसकी अंतिम परिणति साकार के माध्यम सेे निराकार का ज्ञान या साकार में निराकार का सदैव दर्शन है।
भक्ति परंपरा के आचार्यों का कहना है कि ‘पूर्ण समर्पण का नाम भक्ति’ है। भक्ति में भगवान की चाह होती है, भगवान से चाह नहीं हुआ करती है। लेकिन श्रीकृष्ण ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भक्तों का वर्णन करते हुए उन्हें भी ‘सुकृति’ कहते हैं। जो अपनी कामनाओं को पूर्ण करने की याचना भगवान से करते हैं।
श्रीकृष्ण ने गीता के 7वें अध्याय की श्लोक संख्या 16 में अपने भक्तों की चार श्रेणियां बताई हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी।
- आर्त भक्त वह है जो किसी विपत्ति के आने पर उससे मुक्त होने के लिए भगवान का स्मरण करता है।
- जिज्ञासु भक्त धर्मशास्त्रों के स्वाध्याय द्वारा अर्थात् अपनी बुद्धि के बल पर भगवान के दर्शन करना चाहता है। इसमें कौतुहल की प्रधानता होती है।
- अर्थार्थी भगवान को याद करता है अपनी कामना को पूर्ण करने के लिए। इसका कोई न कोई प्रयोजन होता है, जिसे पूरा करने के लिए पूजा, अर्चना, वंदन आदि कर्मों को करता है।
- और ज्ञानी वह है जिसकी निष्ठा डिगती नहीं है। वह भगवान के रूप, स्वरूप, लीलाओं और माहात्म्य को भली प्रकार जानता है। वह भगवान से भगवान को भी नहीं मांगता।
श्रीकृष्ण कहते हैं इनमें से ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है। क्योें? क्योंकि ज्ञानी भक्त भगवान् को चाहता है बस, इसीलिए मैं सिर्फ उसी से प्रेम करता हूं।
ऐसे में मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या भगवान भी संसारी की तरह पक्षपात पूर्ण व्यवहार करता है? नहीं ऐसा नहीं है। भगवान् तो सभी से प्रेम करते हैं, लेकिन ज्ञानी भक्त उस प्रेम का अनुभव उसकी पूर्णता में करता है, वह भगवान की कृपा के आने के प्रत्येक द्वार को खोल कर रखता है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवहार में पक्षपात की गंध है।
भगवान् ज्ञानी को अपनी आत्मा कहता है अर्थात् दोनों अभिन्न हैं। भक्त और भगवान् में कोई अन्तर नहीं है। लेकिन ऐसा भक्त मिलना दुर्लभ है, जो प्राणिमात्र में, संपूर्ण जगत् में भगवान (वासुदेव) को देखता है।
यही है भक्ति का सच्चा स्वरूप-भगवान् से अभेद को प्राप्त करना। ऐसे भक्त का भक्ति स्वभाव हो जाता है। उसे किसी तरह का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं रह जाती है।
यहां एक बात और समझ लेनी चाहिए कि विचारों द्वारा अज्ञान की गांठों को एक-एक करके खोला जा सकता है जबकि आत्मसमर्पण अत्यंत दुष्कर है-यह अनायास होता है। इसीलिए इसे साधन सापेक्ष नहीं स्वीकार किया गया। यह तो वह स्थिति है-जो जलाए न जले और बुझाए न बनेे।