भारतीय संस्कृति के मूल में बसे हैं संस्कार। बड़ों को प्रणाम करना, नमस्ते करना या उनके पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना। ऐसा करना हमारे घरों में बचपन से सिखाया जाता है। लेकिन कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं, जिनमें हमें प्रणाम करने और चरण स्पर्श करने से बचना चाहिए। आइए, यहां जानते हैं कि कौन-सा होता है वह समय और कौन होते हैं वे लोग…
पंडित हर्षमणि बहुगुणा
१. दूरस्थं जलमध्यस्थं धावन्तं धनगर्वितम् ।
क्रोधवन्तं मदोन्मत्तं नमस्कारोsपि वर्जयेत् ।
दूर स्थित, जलके बीच, दौड़ते हुए, धनोन्मत्त, क्रोधयुक्त, नशे से पागल व्यक्ति को प्रणाम नहीं करना चाहिए ।
२. समित्पुष्पकुशाग्न्यम्बुमृदन्नाक्षतपाणिकः ।
जपं होमं च कुर्वाणो नाभिवाद्यो द्विजो भवेत् ।
अर्थात् पूजा की तैयारी करते हुए तथा पूजादि नित्यकर्म करते समय ब्राह्मण को प्रणाम करने का निषेध है। निवृत्ति के पश्चात् प्रणाम करना चाहिए ।
३. अपने समवर्ण एवं बान्धवों में ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध द्वारा प्रणाम स्वीकार नहीं करना चाहिए, इससे अपनी हानि होती है।
४. स्त्रियों के लिये साष्टाङ्ग प्रणाम वर्जित है। वे बैठकर ही प्रणाम करें ।
जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया ।
शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोsष्टाङ्ग ईरितः।
जानु, पैर, हाथ, वक्ष, शिर, वाणी, दृष्टि और बुद्धि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है।
परन्तु “वसुन्धरा न सहते कामिनीकुचमर्दनम्” सूत्र के अनुसार स्त्री द्वारा साष्टाङ्ग प्रणाम का निषेध है। अतः उसे बैठकर ही, परपुरुष को स्पर्श न करते हुए, प्रणाम करने का आदेश है ।
५. गुरुपत्नी तु युवती नाभिवाद्येह पादयोः ।
कुर्वीत वन्दनं भूम्यामसावहमिति चाब्रुवन् ।
यदि गुरुपत्नी युवावस्था वाली हों तो उनके चरण छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए । ‘मैं अमुक हूँ’ ऐसा कहते हुए उनके सम्मुख पृथ्वी पर प्रणाम करना चाहिए ।
मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूश्चाथ पितृष्वसा ।
सम्पूज्या गुरुपत्नीव समस्ता गुरुभार्यया ।
मौसी, मामी, सास और बुआ ये गुरुपत्नी के समान पूज्य हैं। कूर्मपुराण एवं मनुस्मृति ।
६. श्मशान से लौटते हुए व्यक्ति को प्रणाम करना वर्जित माना गया है। इसका कारण मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक है। श्मशान से लौटते समय व्यक्ति की मनोदशा सामान्य से अलग होती है। उस स्थिति में वह हृदय और मन से व्यथित और अस्थिर भी होता है। काफी हद तक उसका सांसारिक मोह से उस समय भंग हो चुका होता है। ऐसे में वह खुश होकर आशीर्वाद नहीं दे पाता है।
यहाँ कालिदास भी कहते हैं ।‘
प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः। अर्थात् पूज्य का असम्मान कल्याणकारी नहीं होता ।