स्वामी रामतीर्थ मिशन : साधकों ने सगुण, निर्गुण और पंचदेवोपासना के गूढ़ तत्व को जाना

 

Uttarakhand

देहरादून।

स्वामी रामतीर्थ मिशन की पहल पर आयोजित एक दिवसीय विशेष साधना शिविर में उपासना के विभिन्न पक्षों पर चर्चा की गई। सगुण और निर्गुण उपासना के कौन अधिकारी हैं, इस पर अपने विचार प्रकट करते हुए आचार्य काका हरिओम् जी ने गीता के बारहवें अध्याय का उद्धरण दिया, जिसमें भगवान कहते हैं कि जो अभी देह को ही आत्मा मान रहा है, उसे चाहिए कि वह अभी सगुण साकार की उपासना करे। इस उपासना से उसकी इंद्रियां और मन सहज रूप से संयमित हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप उसमें स्थिरता आती है और स्थिर बुद्धि में ही आत्मा का प्रतिविम्ब दिखाई देता है। यह प्रतीती साधक को ज्ञान का अधिकारी बनाती है। चिंतन की उस स्थिति में, जहां इंद्रियों का कोई कार्य नहीं रह जाता निर्गुण निराकार तत्व का साक्षात्कार होता है। जो उसे उस स्थिति में पहुंचा देता है, जिसे महापुरुषों ने निर्विचार की स्थिति कहा है। वेदांत के ग्रंथ इसे नाम रूप से परे अनाम और अरुप तत्व की अनुभूति का नाम देते हैं। यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी नियम और व्यवस्था उस संख्या को लेकर बनाई जाती है, जो ज्यादा हो। इस दृष्टि से ऐसे साधकों की संख्या बहुत कम है। जो निर्गुण निराकार की उपासना करने के सही पात्र हों। सगुण साकार की उपासना करते-करते साधक सहज रूप में उस स्थिति में प्रवेश कर जाते हैं, जहां निराकार उनकी अनुभूति का विषय बन सके।

स्वामी शिवचंद्र दास जी महाराज ने सनातन धर्म में बताई गई पंचदेवोपासना पर विशेष रूप से प्रकाश डाला। उनका कहना था कि इन देवताओं का संबंध सृष्टि के आधारभूत पंच महाभूतों से है। इनकी उपासना करने से महाभूतों में परिष्कार होता है। अर्थात् साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर तथा कार्य से कारण की ओर यात्रा करता है। इस संदर्भ में स्वामी जी ने ब्रह्म से पंच महाभूतों की उत्पति की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डाला।

उपासना के ही संदर्भ में उन साधनों का भी खुलासा किया गया जिन्हें बाहरी और अंतरग कहा जाता है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए काका जी का कहना था कि सनातन धर्म ने बाहरी साधना को अंतरग साधना का पूरक माना है। जो लोग भी बाहरी साधनों की उपेक्षा करते हैं वे शायद इसके रहस्य को नहीं जानते। यदि वे कबीर, बुद्ध, दादू, बुल्लेशाह की रचनाओं को उद्धृत करके बाहरी साधनों को नकारते हैं तो उन्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि यह महापुरुष सामान्य नहीं विशिष्ट थे और विशेष पुरुषों द्वारा किया गया आचरण सामान्य लोगों द्वारा आचरण में नहीं लाया जा सकता है। वे आचरण उसी के द्वारा करणीय है, जो उस स्थिति में स्थित हो चुका है जिसे साधना की सर्वोच्च अनुभूति कहा जा सकता है। उसका अनुसरण करना जीवन की एक बहुत बड़ी भूल है। एक सामान्य साधक को पहले निचले सीढ़ियों पर पैर रखकर तभी आगे की ओर बढ़ना चाहिए। छलांग लगाना आत्मघात की स्थिति को बढ़ावा देना है। इस दृष्टि से सनातन धर्म में वर्णित वैयक्तिक भिन्नता संपूर्ण रूप से व्यावहारिक और वैज्ञानिक है।

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