अरविन्द बिजल्वाण
वरिष्ठ वैज्ञानिक, वानिकी महाविघालय, रानीचौरी, टिहरी गढवाल
विश्व वानिकी दिवस का आयोजन प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को किया जाता है। इस वर्ष भी इस महत्वपूर्ण दिवस को विश्वभर में मनाया जा रहा है, इस वर्ष का विषय ‘वन और सतत उत्पादन एवं खपत‘ है। इस दिवस का आयोजन वनों के महत्व के प्रति जागरूकता प्रदान करनें, वनों को समझनें तथा किस प्रकार वन हमारे लिये एवं हम वनों के लिये उत्तरदायी हैं आदि विषयो को समावेशित करता है। साथ ही वर्तमान परिदृश्य में वदलते पर्यावरण के साथ जिसे हम जलवायु परिवर्तन कहतें हैं इस दिवस का महत्व और भी वढ जाता है। यदि हम आंकड़ों पर नजर डालें तो आजादी के बाद हमारे देश की जनसंख्या लगभग चार गुनी बढ़ी है किन्तु जमीन एवं जंगल की उपलब्धता सीमित ही है फिर किस प्रकार से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य एवं लकड़ी की आपूर्ति पूरी की जा सकती है। हमारे देश की वर्तमान वन नीति 1988 के अनुसार हमारे कुल भू-भाग के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वन होने चाहिये जबकि यह सीमा पहाड़ी क्षेत्रों के लिये 66 प्रतिशत है। वर्तमान में भारतवर्ष में जंगल का कुल वनक्षेत्र लगभग 25 प्रतिशत ही है जिसमें जंगल के बाहर उगाये जा रहे पेड़ों का क्षेत्रफल (ट्रीज आउट साइड फारेस्ट-टी.ओ.एफ.) भी सम्मिलित है, अतः इस प्रकार हम अभी भी आवश्यक वनक्षेत्र के मामले में पीछे है। जबकि वन नीति के अनुसार इसे 33 प्रतिशत तक पहुँचाना है।
अतः इस प्रकार वस्तु स्थिति को समझते हुये इस दिशा में कृषि-वानिकी ही ऐसा विकल्प है जिससे हम वनों का क्षेत्रफल वनों से बाहर बढ़ा सकते है एवं अनाज की पूर्ति भी कर सकते हैं। साथ ही वनों पर आधारित निर्भरता को भी कम किया जा सकता है। अर्थात लकड़ी की मांग में हो रही वृधि को वनों के बाहर उगाये जा रहे पेड़ों से प्राप्त लकड़ी से पूरा किया जा सकता है, जिसकोे वर्तमान समय में महत्व दिया जा रहा है। साथ ही इससे प्राकृतिक वनों पर बढ़ रहे दबाव को भी कम किया जा रहा है। अतः समय की मांग के अनुसार वृक्षों (वनों) को अपने खेतों में उगाना (कृषि-वानिकी) ही एक उपयुक्त विकल्प है। साथ ही यह पद्यति वातावरण को संतुलित करने में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। वातावरण में हो रहे कुप्रभावों, प्रदूषणों एवं गर्मी को नियंत्रित करने में वृक्ष धरती के फेफड़ों की तरह कार्य करते है।
कृषि-वानिकी एक ऐसी विधा है जिसमें फसलों के साथ-साथ खेतों में बहुवर्षीय वृक्षों को भी लगाया जाता है, अर्थात फसलों के साथ वृक्षों को लगाने की विधा को कृषि-वानिकी कहते है। वर्तमान समय में खाद्य एवं लकड़ी की बढ़ती मांग के फलस्वरूप कृषि-वानिकी का अत्यन्त महत्व है एवं इसी महत्ता को मध्यनजर रखते हुये भारत वर्ष 2014 में राष्ट्रीय कृषि-वानिकी नीति प्रारम्भ करने वाला विश्व का प्रथम देश बना। यह बात जग जाहिर है कि बढ़ती जनसंख्या की खाद्य की आपूर्ति कराना एक कठिन चुनौती है, किन्तु इससे भी अधिक चुनौती बढ़ती जनसंख्या हेतु लकड़ी उपलब्ध कराना है, क्योंकि विगत कुछ वर्षो में जंगलों से लकड़ी की उपलब्धता काफी कम हो गयी है।
कृषि-वानिकी का महत्वपूर्ण रोल विभिन्न प्रकार की पारिस्थितिकी सेवाओं ‘इकाेसिस्टम सर्विसेज‘ को प्रदान करनें मे भी है जो कि अदृश्य है किन्तु अति महत्वपूर्ण है जैसे जल एवं मृदा का संरक्षण, तापमान नियंत्रण, प्रदूषण नियंत्रण, वातावरण को स्वच्छ करनें, सूक्ष्म एवं महत्वपूर्ण जीवाणुओं को संरक्षण देनें, वर्षा निर्धारित करनें, फसलो को प्राकृतिक प्रकोप से बचानें, परागण में सहायता प्रदान करनें आदि। कृषि-वानिकी का एक महत्वपूर्ण रोल कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन या जमा करनें में भी है। ज्ञात हो कि पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी का कारण हम ग्लोबल वार्मिंग कहते है, जिसमें कुछ ग्रीन हाउस गैसे मुख्य भूमिका निभाती है, जैसे – कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैस इत्यादि। ध्यान देने वाली बात है कि अधिकतर ग्रीन हाउस गैसों में ‘‘कार्बन’’ मुख्य तत्व है जो कि इन ग्रीन हाउस गैसो को बनाने एवं इनकी मात्रा पर्यावरण में बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाता है, अतः पौधे (पेड़) इस ‘‘कार्बन’’ तत्व को शोख लेते है जिससे वातावरण में कार्बन की मात्रा संतुलित हो जाती है तथा ग्रीन हाउस गैसो की मात्रा भी नही बढ़ पाती, इस विधा को ‘‘कार्बन सिक्वेसट्रेशन’’ कहते है।
कहने का तात्पर्य यह है कि विभिन्न प्रकार की मानवीय गतिविधियों जैसे बढ़ता मशीनीकरण, बढ़ते वाहन, बढ़ते थर्मल पावर, कोयले की खदाने आदि-आदि द्वारा जो कार्बन पृथ्वी में निष्चित मात्रा से अधिक उत्सर्जित हो रहा है वृक्ष उस कार्बन को अपने भोजन के रूप में समाहित कर संरक्षित कर रहे है एवं पर्यावरण में कार्बन की मा़त्रा कम कर पर्यावरण को स्वच्छ कर रहे है। कृषि-वानिकी में यह निश्चित नही है कि कृषि के साथ जंगली वृक्ष ही लगाये जाये, कृषि-वानिकी में कृषि के साथ फलदार वृक्षों को भी भरपूर मात्रा में लगाया जाता है जैसे कि पर्वतीय क्षेत्रों में फसलों के साथ सेब, आडू, खुमानी, प्लम, अखरोट, बादाम आदि एवं मैदानी क्षेत्रों मे आम, अमरूद, आवंला, चीकू, संन्तरा इत्यादि। इसके अलावा कृषि-वानिकी में कुछ वानिकी पेड़ आधारित प्रचलित संमिश्रण भी है जैसे कृषि के साथ पोपलर, नीम, घमार, कदम्ब, खेजरी, भीमल, खड़ीक, बेडू, बकैन, के पेड़ इत्यादि।
कृषि-वानिकी एक स्थापित पारम्परिक एवं अत्यन्त ही महत्वपू प्रणालि है जिसके द्वारा पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ फसलों एवं बहुवर्षीय पौधों को उगाकर खाद्य एवं लकड़ी की आपूर्ति विभिन्न प्रकार से पूरी की जा रही है। साथ ही कृषि-वानिकी एक टिकाऊ एवं सतत विकास वाली पद्यति है जिसमें फसल को अधिक गर्मी, अधिक सर्दी (पाला इत्यादि) व हवा के अत्यधिक कुप्रभाव (हवा के झोको) से बचाया जाता है। बहुवर्षीय वृक्षों से खेतो में भूक्षरण को भी कम किया जाता है तथा जल को संगृहित एवं सरक्षित किया जाता है। कृषि-वानिकी भूमि की उर्वरा शक्ति को प्राकृतिक तौर पर बनाये रखती है (जैविक विधा से) जिससे मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म एवं अतिउपयोगी जीवाणुओं का संरक्षण एवं संवर्धन प्राकृतिक तौर पर किया जाता है। साथ ही कृषि-वानिकी एक प्राकृतिक व परम्परागत पद्यति है जिसमें मिश्रित ढंग से पेड़ों को फसलों के साथ उगाकर अत्यन्त लाभ एवं विकट पर्यावरणीय एवं बेमौसमी प्रभाव से भी बचाया जाता है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के मध्यनजर कृषि-वानिकी एक टिकाऊ व कारगर पद्यति है। अतः विश्व वानिकी दिवस के अवसर पर यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि जनसामान्य जानें कि कृषि-वानिकी सतत उत्पादन एवं पर्यावरण संरक्षण हेतु एक उपयुक्त विधा है एवं वर्तमान समय की आवश्यकता है।