पृथ्वी दिवस पर विशेष: पर्यावरण संरक्षण एवं सतत कृषि 

डा. अरविन्द बिजल्वाण

Uttarakhand

वैज्ञानिक, वानिकी महाविद्यालय, रानीचौरी, टिहरी गढवाल, उत्तराखण्ड


अर्थ डे या पृथ्वी दिवस का आयोजन प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल को किया जाता है। पृथ्वी एक ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन है एवं जीवन यापन के लिये हवा, पानी, उचित तापमान, शुद्व भोजन, शुद्व मिट्टी एवं शुद्व पर्यावरण की नितान्त आवश्यकता है किन्तु मानवीय गतिविधियों से पृथ्वी का पर्यावरण निरन्तर बदल रहा है एवं पृथ्वी पर संकट सा आ रहा है।

इन्हीं सब बातो को याद करनें एवं अपने अस्थित्व को बचाने के लिये पृथ्वी दिवस का आयोजन किया जाता है। वर्तमान परिदृश्य में वदलते पर्यावरण के साथ जिसे हम जलवायु परिवर्तन भी कहतें हैं पृथ्वी दिवस का महत्व और भी वढ जाता है। पिछले कुछ दशकों से अचानक एवं असामायिक आंधी-तूफान, बारिश एवं ओलावृष्टि होना एक सामान्य बात सी हो गयी है। जनसामान्य के लिये यह आंधी-तूफान, असामायिक बारिश एवं ओलावृष्टि खासा महत्व नहीं रखती किन्तु किसानों की महीनों की मेहनत चंन्द मिनटों में बरबाद हो जाती है। साथ ही जंगलो में निरन्तर हो रही भीषण वनाग्नि एवं अन्य प्राकृतिक प्रकोप भी चिन्ता का कारण बने हुये हैै।

Dr. Arvind Bijalwan

इस तरह के असामायिक परिवर्तन क्यों हो रहे हैं, इस पर प्रत्येक व्यक्ति को चिन्तन करनें व कुछ हद तक समझ्ानें की जरूरत है या कह सकते है कि मानव का प्रकृति के प्रति व्यवहार एवं मानवीय गतिविधियों के द्वारा इस तरह का विकास प्रकृति को रास नही आ रहा है। कृषि पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, जिसे हम सामान्य भाषा मे जलवायु परिवर्त कह रहे है। अब प्रश्न सामने आता है कि विकास एवं पर्यावरण संरक्षण में साथ-साथ सामंजस्य कैसे बनाया जा सकता है, क्या विकास आवश्यक है या पर्यावरण संरक्षण, या दोनो, यह एक यक्ष प्रश्न है। किसान इस देश का अन्नदाता है एवं एवं अन्नदाता की प्रकृति की मार झेल रहा है।

ध्यान दे कि जहां 1950 में कृषि का सकल घरेलू उत्पादन में 51 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी वही हिस्सेदारी आज निरन्तर घट रही है। किंतु देखा जाए तो जिस गति से सकल घरेलू उत्पादन में कृषि की सहभागिता घटी है उस गति से जीविकोपार्जन व रोजगार प्रदान करने में कृषि की भूमिका नही घटी उदाहरण स्वरूप जहां जीविकोपार्जन व रोजगार प्रदान करने में कृषि की सहभागिता 1950 में लगभग 80 प्रतिशत थी वहां वह आज भी लगभग 55 सें 60 प्रतिशत के करीब है।

जहां तक वैज्ञानिक कृषि का प्रश्न है, तो भारतवर्ष मे वैज्ञानिक तरीके से खेती करने पर विभिन्न प्रकार के शोध बीसवीं सदी के शुरूआत से ही प्रारंभ हो गये थे नतीजतन आज हमारे देष में लगभग 70 से अधिक कृषि विश्वविद्यालय है। साथ ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जैसी विशाल संस्था है जिसके अंतर्गत कृषि के विभिन्न पहलुओं पर काम करने वाले 100 से अधिक सुदृढ़ संस्थान देश के विभिन्न भू-भागों में स्थापित है। यह एक स्थापित तथ्य है कि कृषि विश्वविद्यालयों एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व संबंधित संस्थानों ने देश की पारंपरिक कृषि को वैज्ञानिक रूप देने, उत्पादकता तथा लाभ सृजित करने एवं देश में अन्न का पर्याप्त भण्डार निर्धारित करने में अभूतपूर्व भूमिका निभायी है किन्तु पर्यावरणीय कृषि की दृष्टि से आज भी बहुत कुछ समझ्ाने व करने की जरूरत है।

भारत एक सीमांत किसानों (मार्जिनल फामर्स) का देश है यहां जलवायु परिवर्तन से लड़ने एवं सामनजस्य स्थापित करनें के लिये किसानों के परम्परागत तौर तरीकों एवं खेती करने के स्थायी एवं सतत तरीके सीखने व जानने जरूरी है। मसलन कृषि विविधता का छोटे किसान की आजीविका में क्या महत्व है तथा यह किस तरह किसान को सतत् उपज दे सकती है। कृषि विविधता मात्र जैवविविधता बढ़ाने में कारगर नहीं होती है बल्कि एकल फसल (मोनोक्रापिन) इत्यादि जहां कभी विभिन्न प्राकृतिक प्रकोपो से पूर्णरूपेण नष्ट हो जाते है वहां कृषि विविधता युक्त खेत में नुकसान काफी कम होता है, फलस्वरूप सीमांत किसान के फसल में अत्याधिक नुकसान होने के अवसर कम हो जाते है। वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन को देखते हुए जलवायुवर्धी (क्लाइमेट स्मार्ट) कृषि तकनीकी सीखने की जरूरत है जैसा कि नीदरलैण्ड, इजराइल, अमेरिका जैसे देशों में किया जा रहा है।

परम्परागत मोटे अनाज (मिलेट जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी इत्यादि) को सूखे प्रभावित क्षेत्रों या विपरीत मौसम वाले क्षेत्रों में बढ़ावा देना न्यायसंगत कदम होगा क्योंकि यह विपरीत जलवायु में भी स्थायी बने रहने की क्षमता रखते है। जिन भौगोलिक क्षेत्रों में मिट्टी कम उपजाऊ एवं पानी की कमी एवं भूक्षण की समस्या है वहां कृषि-वानिकी पद्धति को बढ़ावा दिया जा सकता है साथ ही कृषि-वानिकी से एक साथ खाद्य पदाथर्, लकड़ी, चारा, फाइबर, फल एवं जलाऊ लड़की आदि प्राप्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त पेड़ कृषि फसलों को अत्याधिक हवा की गति से बचाने, पाले से बचाने एवं सूक्ष्य जलवायु (माइक्रो क्लाइमेट) नियंत्रण करने में अत्याधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।

कृषि मौसम विज्ञान को अधिक सुदृढ़ एवं संभवतः त्रुटिमुक्त बनाने की आवश्यकता है साथ ही मौसम संबंधित सूक्ष्म, लघु व दीर्घ भविष्यवाणी में अधिक शोध कर किसानों के स्तर तक लाने की अत्याधिक जरूरत है ताकि समय रहते किसानों को मौसम की जानकारी मिल सके व किसान फसल खराब होने से पहले कुछ निराकरण हेतु वक्त प्राप्त कर सके। जलवायु परिवर्तन एवं वर्तमान प्रतिकूल पर्यावर्णीय परिदृष्य के मद्देनजर प्राकृतिक कृषि/नेचुरल फार्मिंग एक सराहनीय पहल है। अतः पृथ्वी दिवस के अवसर पर यह ध्यान रखना ज्यादा प्रासंगिक होगा कि किसान है तो हम है अन्यथा बिना किसानों के किसी का कोई अस्तित्व नही है क्योंकि ऊर्जा अन्न से ही मिलती है एवं जिन्दा रहने के लिये ऊर्जा आवयश्क है।

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