विक्रांत भैरव के उपासक के रूप में पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध डबराल बाबा अष्ट महाभैरव में से एक विक्रांत भैरव के अनन्य उपासक थे। वे भक्तों की समस्या चावल के दाने को देखकर, अपनी मध्यमा उंगली अपने मस्तक से लगाकर विक्रांत भैरव बाबा से बात करके निवारण करते थे। उन्हें बाबा विक्रांत के साक्षात् दर्शन हुए थे।
हिमशिखर खबर ब्यूरो
उज्जैन।
ईश्वर की आराधना के दुनिया में हजारों तरीके हैं। मंदिरों की प्राचीन नगरी उज्जैन में भैरव बाबा के कई मंदिर हैं। भैरव का नाम सुनते ही सबके मन में विकराल और भयाक्रांत कृति का निर्माण होता है, जबकि भैरव शिवजी के ही अवतार हैं। शिवजी के जितने भी अवतार हुए हैं उनमें पाँचवाँ अवतार भैरव को बताया गया है।
देश में कालभैरव के दो प्रसिद्ध मंदिर बताए गए हैं। एक काशी स्थित कालभैरव, दूसरा उज्जैन में। उज्जैन में कालभैरव मंदिर के पास स्थित विक्रांत भैरव प्राचीन चमत्कारी क्षेत्र है। यह चैतन्य मूर्ति है। यहीं ओखलेश्वर श्मशान है, जो धीरे धीरे तीर्थ बन गया। बाबा डबराल, विक्रांत भैरव के अनन्य भक्त रहे हैं। इस भैरव की खोज डबराल बाबा ने ही की थी। समीप ही बाबा डबराल की समाधि भी स्थित है। बाबा डबराल से जुड़े कई चमत्कार जग प्रसिद्ध हैं। कई लोगों ने इसका साक्षात अनुभव किया है। विक्रांत भैरव के उपासक के रूप में प्रसिद्ध बाबा डबराल (गोविन्द प्रसाद कुकरेती) का बुधवार, 31 अगस्त 2016 को निधन हो गया था।
बाबा डबराल (गोविन्द प्रसाद कुकरेती) का जन्म 25 अगस्त 1932 को हुआ था। वे मूलतः पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र के ग्राम कठुड़ी के निवासी थे। बाबा 8 -9 वर्ष की उम्र में ही अपने मामा प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम डबराल के साथ धार और बाद में उज्जैन आए थे।
डबराल बाबा का सांसारिक नाम गोविंद प्रसाद कुकरेती था। डबराल बाबा भारतीय योगियों में भी असामान्य थे जो एक गृहस्थ थे – उन्होंने शादी की, एक परिवार का पालन-पोषण किया। वे विक्रम विश्वविद्यालय के गणित विभाग में कार्यालय अधीक्षक के पद से दिसंबर 1996 में रिटायर हुए। बाबा डबराल ने इतिहास और दर्शन शास्त्र में एम ए किया था। बाबा ने माधव कालेज उज्जैन में लेखा अधिकारी के रूप में कार्य किया था। बाबा ने 1958 से 1996 तक विक्रम विश्वविद्यालय के गणित विभाग में कार्यालय अधीक्षक के पद पर कार्य किया।
युवावस्था से ही बाबा अष्ट महाभैरव में से एक विक्रांत भैरव के अनन्य उपासक रहे। उनके परिवार में पत्नी के अलावा उनके तीन पुत्र तथा दो पुत्रियां हैं।
डबराल बाबा को बाहरी चमक दमक कभी रास नहीं आयी। वे हमेशा अपने आराध्य विक्रांत भैरव बाबा की भक्ति में लीन रहते थे। देश और दुनिया में उनके अनेक भक्त थे। अनेक नेता-अभिनेता और कई बड़े पदों पर आसीन अधिकारी भी उन्हें अपना गुरु मानते थे। वे भक्तों की समस्या चांवल के दाने को देखकर, अपनी मध्यमा उंगली अपने मस्तक से लगाकर विक्रांत भैरव बाबा से बात करके निवारण करते थे। देश विदेश में उनके शिष्यों में अमिताभ बच्चन भी शुमार हैं। बाबा सच्चे, सरल, सौम्य और साहसी तथा अपने सभी भक्तों को सामान दृष्टी से देखते थे। उनके आवास पर जाकर उनके भक्त नित्य दर्शन कर आशीर्वाद लेते थे।
बाबा नित्य नियम से गढ़ कलिका मंदिर जाते थे। लगभग वर्ष 1960 में उन्हें माँ गढ़ कलिका से प्रेरणा मिली की उनके इष्ट भैरव बाबा विक्रांत हैं। विक्रांत भैरव बाबा की खोज शिप्रा के पावन तट पर पूरी हुई। मिटटी से सनी हुई मूर्ति को उन्होंने उसे शिप्रा जल से साफ किया और उसी दिन से बाबा ने उनकी सेवा, पूजा-आराधना आरम्भ कर दी। विक्रांत भैरव बाबा का वर्तमान मंदिर निर्जन स्थान और शमशान में हैं किन्तु डबराल बाबा ने नित्य पूजन-दर्शन का नियम कभी भंग नहीं किया। उनकी साधना 80 वर्ष की उम्र में भी अनवरत चल रही थी।
बाबा डबराल ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद प्रत्येक रविवार, शुक्रवार के आलावा सभी पर्वों, उत्सवों और त्योहारों पर बाबा विक्रांत के दर्शन करने अवश्य जाते थे। स्वयं बाबा विक्रांत भैरव की आरती करते थे और प्रसाद वितरण करते थे।
भैरव बाबा विक्रांत भगवान् शिव का उग्र स्वरूप हैं। भगवान शिव ने जब तांडव नृत्य किया था तभी का यह तामसी स्वरूप उज्जैन में विक्रांत भैरव के रूप में विद्यमान हैं। सभी जानते हैं की भैरव तामसी प्रवति के देवता हैं किन्तु बाबा डबराल ने उनकी सेवा, पूजा और आराधना सात्विक भक्ति में की। बाबा डबराल तंत्र की सात्विक विद्या के अनुयायी रहे। उनके पास बैठने से अद्भुत आलोकिक ऊर्जा का आभास होता था। उनके पास जाने से भय-दर नहीं लगता था बल्कि सहजता, आत्मीयता और प्रसन्नता का अनुभव होता था।
उनके भक्तों ने बताया की वर्ष 1960 में दीवाली की रात बाबा अपनी साईकिल से मंदिर पहुंचे। चूँकि अमावस की रात थी, घुप अँधेरे में कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। बाबा ने मंदिर पहुंचकर नियमानुसार पूजा अर्चना की और दीपक आलोकित किया। लौटते समय मन में विचार आया की जो दीपक मेने जलाया हैं वो कही बुझ ना गया हो। वापस जाकर देखा तो विक्रांत भैरव बाबा के समक्ष अनेकों दीपक रौशनी कर रहे थे। वहीँ उन्हें बाबा विक्रांत के साक्षात् दर्शन हुए थे।
बाबा जीवनभर स्वयं को भैरव उपासक ही कहलाते रहे। देश-दुनिया के लोग उनके पास अपनी समस्याएं लेकर आते थे।उनके निवास पर भक्तों का तांता लगा रहता था। बाबा प्रतिदिन एक बार विक्रांत भैरव मंदिर अवश्य जाते थे।
बाबाजी ने कभी लोकप्रियता की तलाश नहीं की, जो बच्चों के समान रवैये के लिए जाने जाते हैं। वे हमेशा उच्च शरीर के साथ गहरे अवचेतन ध्यान में रहते थे। उनकी सादगी, निस्वार्थता और करुणामय व्यवहार और सभी के लिए समानता देश और विदेश के कई लोगों को आकर्षित करने में कामयाब रही। बाबाजी ने कभी भी आगंतुकों से कुछ नहीं लिया और उनके मंदिर में जो भी दान मिला वह प्रसाद के रूप में भक्त की सेवा करने के लिए वापस चला गया। वह हमेशा आगंतुक की ओर से उनकी समस्याओं के लिए प्रार्थना करते रहे।