video: जन्म से मृत्यु तक का साथी है ‘यज्ञ’: पैन्यूली

सी. ए. राजेश्वर पैन्यूली

Uttarakhand

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ”सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से सम्पन्न होता है।”

भारतीय संस्कृति में वेदों के समान ही यज्ञों का महत्व है। हमारे ऋषि दृष्टा थे। वे प्रत्येक विषय में छिपे हुए सर्व प्रकार के तत्वों को भली प्रकार जानते थे। यज्ञ की खोज भी उन्होंने ऐसे गहन वैज्ञानिक अन्वेषण के आधार पर की थी। जिससे इसमें भ्रम और अन्ध विश्वास के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। यज्ञ की उपयोगिता को हमारे पूर्वज प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह स्वीकार करते थे। ऋषि-मुनि ही नहीं, बल्कि आम जनता और राजा-महाराजा सभी अपना अधिकांश समय यज्ञ कर्म में व्यतीत करते थे।

समय बीतने के साथ तमाम उतार-चढ़ावों के बीच हम यज्ञ के महत्व को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग फटाफट यह कह बैठते हैं कि यह सब वाहियाद है। यज्ञ करने से कुछ लाभ नहीं यदि इतनी सामग्री खाई जाए तो शरीर में कुछ गुण करे, कीमती चीजें आग में जला डालना बेवकूफी है। ऐसे लोगों को किसी शास्त्र के प्रमाण देकर या तर्क के आधार पर समझाने से काम नहीं चलेगा।

विज्ञान का सिद्धांत है कि कोई भी पदार्थ समाप्त नहीं होता बल्कि उसका रूप परिवर्तन होता है। अग्नि में जलाने से पौष्टिक सामग्री का नाश नहीं होता वरन् वह सूक्ष्मतर होकर वायु में मिलती है और पुनः श्वास द्वारा शरीर में प्रवेश करके बल वृद्धि करती है। जितना लाभ इस क्रिया से होता है उतना लाभ उन वस्तुओं को खाने से नहीं हो सकता। बादाम को घिसकर खाना साधारण तौर पर पीसकर खाने की अपेक्षा अधिक फायदेमंद होता है। सूखी दवाओं से प्रवाही अधिक गुण कारक समझी जाती हैं। इसका कारण यह है कि किसी वस्तु के जितने अधिक सूक्ष्म परमाणु किए जाएंगे उतनी ही उनकी गुप्त शक्ति उभरेगी। और सूक्ष्म होने के कारण बड़ी सरलतापूर्वक शरीर में प्रवेश कर रक्त आदि में मिल जाता है। यज्ञ द्वारा उन रसायन औषधियों का इसी प्रकार का सूक्ष्मीकरण होता है। उतनी थोड़ी सी सामग्री का सार भाग खाने से एक आदमी को जितनी पुष्टि होती है उससे कई गुनी पुष्टि यज्ञ द्वारा असंख्या आदमियों को हो जाती है।

यज्ञ के महत्व को भूलना आज की हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कहना गलत न होगा। संतोष इतना भर है कि हमने अपनी यज्ञीय परम्परा को अभी पूरी तरह से भूलाया नहीं है और चिह्न पूजा करके काम चला लेते हैं। आज भी यज्ञ इसी रूप में हमारे पैदा होने से लेकर मृत्यु तक का साथी बना हुआ है।

जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने भी सोलह संस्कार होते हैं, सभी में यज्ञ कम या अधिक रूप में अवश्य किया जाता है। पुराने समय में बच्चे के जन्म लेने के बाद उस कमरे में 6 दिन तक अंगीठी आदि के द्वारा अग्नि जलाकर वातावरण को शुद्ध किया जाता था। यह प्रथा आज भी दूर-दराज के गांवों तथा कस्बों में देखने को मिलती है। यह भी एक प्रकार का यज्ञ ही है।

वास्तव में बच्चे को सुस्ंकारित बनाने के लिए ये सभी क्रियाएं की जाती थीं। गर्भ धारण करने के बाद पुंसवन संस्कार में यज्ञ करके उस यज्ञ से बची हुई खीर माता को खिलाई जाती थी। फिर जन्म लेने के बाद नामकरण करते समय भी यज्ञ होता था, बच्चे को अन्न खिलाने के लिए पुनः हवन यज्ञ करके उसका अन्नप्राशन संस्कार किया जाता था। चूड़ाकर्म संस्कार और विद्या आरंभ करने के लिए उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता था।

इस प्रकार कहा जाता सकता है कि मानव का संपूर्ण जीवन यज्ञमय होता था। आज भी ये संस्कार आधुनिक रूप से किए जाते हैं। अन्तर केवल इतना है कि आज ये यज्ञ आधे-अधूरे रूप में दिखावा बनकर रह गए हैं।

मनुष्य की मृत्यु के बाद भी जब उसके शव को चिता में रखा जाता है तो उस चिता को भी वेदी के ढंग से सजाया जाता है। यह भी एक यज्ञ ही है। शव को चिता में रखने के लिए प्रथम मुखाहुति दी जाती है। सात आहुतियां घी की और सत्तर आहुतियां विशेष दी जाती हैं। यह अत्त्येष्टि यज्ञ है और फिर इसके बाद श्राद्ध के द्वारा उसके कर्मों को पूर्ण किया जाता है। यह भी यज्ञ है जिसमें तर्पण और हवन के द्वारा उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है।

ऐसे ही कथा-कीर्तनों, व्रत उपवास और पर्व त्योहारों में यज्ञ किसीन किसी रूप् में अवश्य जुड़ा है। यह बात दूसरी है कि लोग यज्ञ के सही विधान और महत्व को भूल गए हैं। रंगों का पर्व होली भी यज्ञ का ही त्योहार है। आज लोगों ने इसे खाली लकड़ी जलाने तक सीमित कर दिया है।

साधना अनुष्ठान हवन के बिना पूरे नहीं माने जाते हैं। जप का दशांश हवन किया जाना आवश्यक माना जाता है। तीर्थ स्थलों का रूा से गहरा सम्बन्ध रहा है। काशी-वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर भगवान श्रीराम द्वारा अश्वमेध स्तर के यज्ञ संपन्न करवाए गए थे। इसी के प्रभाव से इसे प्रमुख तीर्थ होने का गौरव हासिल है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहे हैं ‘प्रजापिता ने यज्ञ को मनुष्य के जुड़वां भाई की तरह पैदा किया और ऐसी व्यवस्था की कि दोनों एक दूसरे का पोषण करते हुए फलें-फूलें और यह सच है कि मनुष्य के विकास एवं प्रगति की कहानी यज्ञ भावना से जुड़ी हुई है। मानव समाज का विकास, सभी आपसी सहयोग, सहकार और त्याग की यज्ञ भावना पर निर्भर है। ग्रह-नक्षत्र भी केवल आपसी आकर्षण में ही बंधे हुए नहीं हैं, बल्कि उनके बीच महत्वपूर्ण आदान प्रदान चल रहा है। यही बात परमाणु और जीवाणु के अदृश्य सूक्ष्म जगत पर भी लागू होती है।

सारी सृष्टि इसी भावना पर चल रही है कि अपनी महायात्रा पर आगे भी बढ़ रही है। उपनिषदों में ठीक ही कहा गया है कि यज्ञ इस सृष्टि की धूरी है। बिना धुरी के गाड़ी के एक कदम आगे बढ़ने की बात नहीं सोची जा सकती। ऐसे ही बिना यज्ञ रूपी धुरी के जीवन, समाज व सृष्टि रूपी गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती है।

आज के समय में बढ़ते प्रदूषण के कारण जल, मिट्टी और सारी प्रकृति पर कई खतरे मंडराने लगे हैं। मिट्टी अपनी उर्वरा शक्ति खो रही है। ऐसे में विश्वभर में बढ़ते प्रदूषण को रोकने में यज्ञ की भूमिका अहम हो जाती है। जिन्हें यज्ञ के महत्व पर अविश्वास हो, वे परीक्षा के तौर पर कुछ दिन नियमित रूप से यज्ञ कर देखें। एक मास तक नियमित हवन कर्म कर आस-पास होने वाले परिवर्तनों को खुद-ब-खुद ही देख सकते हैं।

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