- दून लाइब्रेरी में स्थापित होगा पेटशाली का संग्रहालय
प्रदीप बहुगुणा
देहरादून। उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव इन्दु कुमार पांडे ने कहा कि लोक स्थानीय परंपरा का अहम अंग है। हम अपनी परंपराओं और लोक संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं। इन्हें जिंदा रखने के लिए स्थानीय से लेकर प्रदेश स्तर तक काम किए जाने की जरूरत है।
पांडे दून पुस्तकालय व शोध केंद्र की ओर से सोमवार को दून प्रेस क्लब में लोक संस्कृतिविद् जुगल किशोर पेटशाली की पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। दून पुस्तकालय एवम् शोध केंद्र के सलाहकार प्रो. बीके जोशी ने कहा कि पेटशाली का संग्रहालय दून लाइब्रेरी के प्रथम तल में स्थापित होगा। इससे ज्यादा से ज्यादा लो ग इसका फायदा उठा सकेंगे।
दून पुस्तकालय व शोध केंद्र की ओर से जुगल किशोर पेटशाली की कुमाऊं की लोकगाथाओं पर आधारित पुस्तक ‘मेरे नाटक‘ तथा चार अन्य पुस्तकों ‘जी रया जागि रया‘,‘विभूति योग‘,‘गंगनाथ-गीतावली‘ और ‘हे राम‘ के लोकार्पण के मौके पर पर पुस्तकों पर चर्चा भी की गयी। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे इन्दु कुमार पांडे ने जुगल किशोर पेटशाली जी द्वारा लोक साहित्य पर किये गये कार्य को अद्भुत बताते हुए उसे लोक संस्कृति के क्षेत्र में मील का पत्थर बताया। उन्होनें कहा कि उनका लिखित साहित्य अध्येताओं के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा।
कार्यक्रम की शुरुआत में दून पुस्तकालय व शोध केंद्र के सलाहकार प्रो. बी.के.जोशी ने अतिथियों और सभागार में उपस्थित लोगों का स्वागत किया और कहा कि इस संस्थान की ओर से पाठकों और साहित्य प्रेमियों के मध्य पुस्तकालयी संस्कृति को बढ़ाने की दृष्टि से पुस्तक लोकार्पण और अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों को समय-समय पर किये जाते रहते हैं। जुगल किशोर पेटशाली ने अपने उद्बोधन में वर्तमान समय में लोक संस्कृति में स्थापित मूल्यों की गिरावट पर चिंता जाहिर की। उन्होंने समाज और सरकार से इस दिशा मेें समुचित ध्यान देनकर इसे फिर से समृद्ध करने की बात पर जोर दिया। लोक साहित्य और पुस्तकालीय संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु इस प्रकार के आयोजन के लिए उन्होंने दून पुस्तकालय एवम् शोध केंद्र को साधुवाद दिया।
मुख्य वक्ता लोक संस्कृतिकर्मी नवीन बिष्ट ने पेटशाली द्वारा उत्तराखण्ड की लोकगाथाओं और संस्कृति पर किये गये कामों का विश्लेषण करते हुए उन्हें पहाड़ की माटी से उपजा लोककर्मी बताया। बिष्ट ने कहा कि पेटशाली लोक साहित्य जगत के एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी लेखनी सतत तौर पर हमारी लोक संपदा को संजोने का काम कर रही है। श्री पेटशाली पौराणिक व लोक संस्कृति के ऐसे अनछुए तत्थों को सामने लाने का बीड़ा उठाते हैं जिससे प्रायः समाज अनभिज्ञ सा रहता है। उनका यही अन्दाज उन्हें जुगल किशोर बना देता है। लोक के क्षेत्र में दिया गया उनका योगदान सच में अद्भुत है।
डॉ. योगेश धस्माना ने पेटशाली को पर्वतीय लोक के अद्भुत चितेरे की संज्ञा प्रदान की और कहा कि अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही पेटशाली जी ने जिन विपरीत परिस्थितियों में रहकर लोक साहित्य की साधना के साथ रंगमंच के क्षेत्र में जो काम किया है वह अभूतपूर्व है। उन्होंने दूरदर्शन की ओर से प्रस्तुत राजुला मालूशाही धारावाहिक व अन्य महत्वपूर्ण नाटकों के लिए पटकथा लिखी है । इसके साथ ही बहुत से नाटकों का उन्होंने निर्देशन भी किया है। अल्मोड़ा शहर के निकट अपने प्रयासों से लोक संग्रहालय की स्थापित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
साहित्यकार मुकेश नौटियाल ने कहा कि लोक साहित्य,संगीत और कला के क्षेत्र में जिन लोगों ने चुपचाप गंभीर काम कर नए मानक स्थापित किए उन्हीं में एक प्रमुख नाम जुगल किशोर पेटशाली का है। अल्मोड़ा के निकट अपने संग्रहालय में रहकर उन्होंने लोक साहित्य पर कई किताबें लिखी हैं। वर्तमान में लोक-गीतों और लोक-संगीत के नाम परोसी जा रही सतही प्रस्तुतियांे बीच पेटशाली जैसे गंभीर अध्येताओं द्वारा किया गया कार्य एक नई उम्मीद जगाता है। उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के मूल स्वरूप के हासिए पर चले जाने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए नैाटियाल ने कहा कि राज्य बने बाइस साल हो गए लेकिन अभी तक हम पहाड़ी संगीत के शास्त्रीय स्वरूप को स्थापित नहीं कर पाए। ढोल-दमाऊं के परम्परागत सुर भी लोक से गायब होने लगे हैं इसके लिए भी काम करना नितांत जरूरी है।
कार्यक्रम का संचालन संस्थान के प्रोग्राम एसोसिएट, चन्द्रशेखर तिवारी ने किया। लोकार्पण कार्यक्रम में देहरादून के अनेक गणमान्य लोग, साहित्यकार, बुद्धजीवी, पत्रकार, साहित्य प्रेमी तथा पुस्तकालय के सदस्यगण व युवा पाठक उपस्थित रहे।
पेटशाली ने राजशाही के दौर में घटित महत्वपूर्ण सामाजिक प्रसंगो को पुस्तक में पिरोया
कुमाऊं की लोकगाथाओं पर आधारित पुस्तक ‘मेरे नाटक‘ में सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी और लेखक श्री जुगल किशोर पेटशाली जी ने चार नाटक शामिल किये हैं। ये नाटक आज से तीन सौ से लेकर पाँच सौ साल पूर्व के सामाजिक-ऐतिहासिक घटनाक्रमों को रंगमंच पर जीवंत कर सकने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेखक ने उत्तराखण्ड में वर्षों पूर्व की राजशाही व्यवस्था के दौर में घटित महत्वपूर्ण सामाजिक प्रसंगों को इन नाटकों में उद्घाटित करने का अभीष्ट प्रयास किया है।नाटककार का प्रमुख उद्देश्य तत्कालीन राज-व्यवस्था में मौजूद सामंतवाद, निरंकुशता व राजनैतिक विद्रुपता से उपजे भ्रष्टाचार, अन्याय और बेगार की यथार्थता तथा उसके खिलाफ उठे सामाजिक प्रतिकार के स्वरों को नाटक के जरिये मुखरित करने का रहा है। कमोवेश इसी तरह की स्थितियों को आज भी हमारे समाज में देश, काल और परिस्थिति के मामूली अंतर के साथ देखा जा सकता है।
राजुला-मालूशाही में व्यापारी सुनपति की बेटी राजुला और राजकुमार मालूशाई की प्रेम गाथा
राजुला-मालूशाही गीत-नाटिका में जहां भोट प्रदेश के शौका व्यापारी सुनपति की बेटी राजुला तथा बैराठ के राजा दुलाशाई के पुत्र मालूशाई के बीच उपजे उद्दात प्रेम की शानदार झलक मिलती है तो वहीं दूसरी ओर बाला गोरिया गीत-नाटिका में गढ़ी चम्पावत के राजा हालराई की सात रानियों की ओर से रानी कालिंगा को दी गई षड़यंत्रकारी यातनाओं की मार्मिक व्यथा-कथा मिलती है। अजुवा-बफौल नाटक में बफौलीकोट के बाईस भाई बफौलों की अदम्य वीरता और उनके नगाड़े की गर्जन भेदी प्रतिध्वनि राजा भारती चंद और उसकी डोटियाली रानी को अंदर तक बैचेन कर देती है। नौ-लखा दीवान नाटक में राजा दीपचंद का दीवान सकराम पांडे स्थानीय ग्रामीणों के बीच एक अत्याचारी पुरुष तथा कल्याण सिंह का चरित्र एक देवतुल्य पुरुष के तौर पर उभर कर आया है। कुमाउनी बोली-भाषा की ठसक और परम्परागत लोक धुनों ने हिंदी में रचे गीत-नाटकों को विशिष्ट बना दिया है। निश्चित तौर पर पहाड़ी लोक संगीत की सौंधी महक इन नाट्य कथानकों व संवादों में सहजता से महसूस की जा सकती है।
‘जी रया जागि रया‘ पेटशाली जी की कुमाउनी कविताओं का संग्रह है। इस संकलन में पहाड़ के परिवेश से जुड़ी कई महत्वपूर्ण रचनाएं शामिल हैं। इनकी ‘विभूति योग‘ पुस्तिका में श्रीमद् भागवत, गीता के दशम अध्याय का हिन्दी व कुमांउनी में भावानुवाद दिया गया है।‘गंगनाथ-गीतावली‘ जो साठ के दशक में अल्मोड़ा के वैद्य पं. पीताम्बर पाण्डे जी ने लिखी थी उसकी भूमिका लेखन और संपादन श्री पेटशाली जी ने किया है। वहीं ‘हे राम‘ में उन्होनें श्री राम के चरित्र को अभिनव तरीके से सुंदर काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।
श्री जुगल किशोर पेटशाली जी की अन्य प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं-1.राजुला मालूशाही(महाकाव्य), 2.जय बाला गोरिया, 3.कुमाऊं के संस्कार गीत, 4.बखत (कुमाउनी कविता संग्रह), 5.उत्तरांचल के लोक वाद्य, 6.कुमाउनी लोकगीत, 7.पिंगला भृतहरि(महाकाव्य), 8.कुमाऊं के लोकगाथाएं, 9.गोरी प्यारो लागो तेरो झनकारो (कुमाउनी होली गीत संग्रह), तथा 10.भ्रमर गीत,(सम्पादित)। आज जिन नई पुस्तकों का आज लोकार्पण हुआ है उनके नाम हैं- 11.कुमाऊं की लोकगाथाओं पर आधारित ‘मेरे नाटक‘,12..‘जी रया जागि रया‘,(कुमाउनी कविता संग्रह), 13.‘गंगनाथ-गीतावली‘,(सम्पादित) 14.‘विभूति योग‘ और 15.‘हे राम‘(काव्य संग्रह)। इसके अलावा उनके 40 से अधिक आलेख व कविताएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। साथ ही कई वार्ताएं आकाशवाणी व दूरदर्शन के माध्यम से भी प्रसारित हो चुकी हैं। पेटशाली जी के कई नाटकों की अनेक स्थानों पर सफल रंगमंचीय प्रस्तुतियां हो चुकी हैं। इसमें से राजुला-मालूशाई पर दूरदर्शन पूर्व में एक धारावाहिक बनाकर प्रसारित भी कर चुका है।श्री जुगल किशोर पेटशाली जी को जय शंकर प्रसाद पुरस्कार, सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार, (उ.प्र. हिन्दी संस्थान) तथा उत्तराखण्ड सरकार की ओर से दिए गये वरिष्ठ संस्कृति कर्मी पुरस्कार, व कुमाऊं गौरव पुरस्कार से भी सम्मानित हो चुके हैं।