आज चैत्र नवरात्रि की सप्तमी तिथि है. हर दिन मां दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है और हर मां के रूप का अपना एक खास मतलब है. ऐसा ही कुछ, मां के काली रूप का भी है जिसे सप्तमी के दिन पूजा जाता है. ज्यादातर लोगों को मां काली का नाम सुनते ही मां दुर्गा का एक भयानक और प्रचण्ड रूप दिखता है, लेकिन असल में ये ‘काल’ यानी समय का अंत करने वाली देवी का प्रतीक है. आज के युग में माँ महाकाली की साधना कल्पवृक्ष के समान है क्योकि ये कलयुग में शीघ्र अतिशीघ्र फल प्रदान करने वाली महाविद्याओं में से एक महाविद्या है. जो महाविद्या के इस स्वरुप की साधना करता है उसका मानव योनि में जन्म लेना सार्थक हो जाता है. वैसे तो जब से इस ब्रह्मांड की रचना हुई है तब से लाखों करोडों साधनाओं को हमारे ऋषियों द्वारा आत्मसात किया गया है पर इन सबमें से दस महाविद्याओं, जिन्हें की “मात्रिक शक्ति” की तुलना दी जाती है, की साधना को श्रेष्टतम माना गया है. जबसे इस पृथ्वी का काल आयोजन हुआ है तब से माँ महाकाली की साधना को योगियों और तांत्रिको में सर्वोच्च की संज्ञा दी जाती है. काम कला काली, गुह्य काली, अष्ट काली, दक्षिण काली, सिद्ध काली आदि के कई गोपनीय विधान आज भी अछूते ही रह गए साधकों के समक्ष आने से, जितना लिखा गया है ये कुछ भी नहीं उन रहस्यों की तुलना में जो की अभी तक प्रकाश में नहीं आया है और इसका महत्वपूर्ण कारण है इन विद्याओं के रहस्यों का श्रुति रूप में रहना, अर्थात ये ज्ञान सदैव सदैव से गुरु गम्य ही रहा है,मात्र गुरु ही शिष्य को प्रदान करता रहा है और इसका अंकन या तो ग्रंथों में किया ही नहीं गया या फिर उन ग्रंथों को ही लुप्त कर दिया काल के प्रवाह और हमारी असावधानी और आलस्य ने. किसी भी शक्ति का बाह्य स्वरुप प्रतीक होता है उनकी अन्तः शक्तियों का जो की सम्बंधित साधक को उन शक्तियों का अभय प्रदान करती हैं, अष्ट मुंडों की माला पहने माँ यही तो प्रदर्शित करती है की मैं अपने हाथ में पकड़ी हुयी ज्ञान खडग से सतत साधकों के अष्ट पाशों को छिन्न-भिन्न करती रहती हूँ, उनके हाथ का खप्पर प्रदर्शित करता है ब्रह्मांडीय सम्पदा को स्वयं में समेट लेने की क्रिया का, क्यूंकि खप्पर मानव मुंड से ही तो बनता है और मानव मष्तिष्क या मुंड को तंत्र शास्त्र ब्रह्माण्ड की संज्ञा देता है,अर्थात माँ की साधना करने वाला भला माँ के आशीर्वाद से ब्रह्मांडीय रहस्यों से भला कैसे अपरिचित रह सकता है. अद्भुत है माँ का यह रूप जिसने सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय रहस्यों को ही अपने आप में समेटा हुआ है.
काका हरिओम
कथाएं जहां जिज्ञासा उत्पन्न करती हैं वहीं दर्शन के गूढ़ रहस्यों को भी उजागर करती हैं। यही खासियत उन प्रतीकों की भी है, जिनका प्रयोग भारत के महान ऋषियों ने जगह-जगह किया है।
शक्ति के विभिन्न नाम रूपों के साथ भी ऐसा ही है। नवदुर्गा की कथाएं और दश महाविद्या के विलक्षण रूपों में भी शाक्त परंपरा के रहस्य छिपे हुए हैं।
दुर्गा सप्तशती में कथा आती है कि देवासुर संग्राम में जब रक्तबीज को हराना अर्थात् उसका वध करना असम्भव-सा हो गया तो मां क्रोधित हो उठीं। रक्तबीज के शरीर से निकलने वाली खून की प्रत्येक बूंद उस राक्षस के बराबर शक्तिशाली शरीर के रूप में परिवर्तित हो रही थी। ऐसा ही उसे वर प्राप्त था।
यह देखकर मां ने निश्चय किया कि रक्तबीज को रक्त विहीन कर दिया जाए। उनका रंग काला हो गया। इसके बाद वह लोक में महाकाली के रूप में प्रसिद्ध हो गईं। उन्होंने रक्तबीज को रक्तहीन कर दिया। इस प्रकार रक्तबीज का वध महाकाली ने किया। देवता निर्भय हो गए। कथा काफी विस्तृत है। आइए, इस कथा के संकेत को समझें-
लालसा और वासना का प्रतीक है रक्तबीज। यह कभी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ती है। काला रंग तमोगुण का प्रतीक है। मां ने जब देखा कि लोहे को लोहे से ही काटा जा सकता है, तो वह तमोगुण से युक्त हो गईं। मां को अपनी संतान की रक्षा के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। वह सौम्य से क्रूरतम भी बन जाती है।
महाकाली को दी जाने वाली पशु बलि ने भी लोगों को इससे दूर किया है। क्योंकि बहिर्कर्मकांड करना सरल होता है, इसलिए यह समाज में जल्दी प्रचलित हो जाता है। लेकिन यह वैदिक मान्यता के बिल्कुल विपरीत है।
कलकत्ता के काली मंदिर से आने के बाद वहां दी जाने वाली बलि की महात्मा गांधी ने आलोचना की थी। फिर वह कभी काली मंदिर नहीं गए।
महाकाली की उपासना करने से वासनाओं का नाश हो जाता है।
दशमहाविद्या की साधना में शक्ति को श्री विष्णु के दशावतारों के साथ जोड़ कर देखा गया है। इस दृष्टि से महाकाली श्रीकृष्ण की शक्ति हैं। इसीलिए महाकाली को कृष्णा भी कहा जाता है।
मां आप सबकी रक्षा करें। आपके जीवन से आसुरी वृत्तियां सदा सदा के लिए नष्ट हो जाएं।