आज वैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की एकादशी है। श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में इसे वरुथिनी एकादशी बताया है। उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि जो दस हजार सालों तक तपस्या करता है उतना ही फल इस एकादशी का व्रत करने से मिलता है। धुंधुमार और मान्धाता जैसे कई राजाओं ने इस एकादशी का व्रत किया। जिससे उनको स्वर्ग मिला।
हिमशिखर धर्म डेस्क
श्रीसनकजी कहते है- नारदजी! एकादशी व्रत का, जो तीनों लोकों में विख्यात है, वर्णन करूँगा। यह सब पापों का नाश करने वाला तथा सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है। यह भगवान् विष्णु को विशेष प्रिय है। ब्रह्मन् ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री-जो भी भक्तिपूर्वक इस व्रत का पालन करते हैं, उनको यह मोक्ष देने वाला है। यह मनुष्यों को उनकी समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करता है। विप्रवर ! सब प्रकार से इस व्रत का पालन करना चाहिये; क्योंकि यह भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाला है। मुनीश्वर! मनुष्य यदि मुक्ति की अभिलाषा रखता है तो वह दशमी और द्वादशी को एक समय भोजन करे और एकादशी को सर्वथा निराहार रहे। महापातकों अथवा सब प्रकार के पातकों से युक्त मनुष्य भी यदि एकादशी को निराहार रहे तो वह परम गतिको प्राप्त होता है। एकादशी परम पुण्यमयी तिथि है। यह भगवान् विष्णु को बहुत प्रिय है। संसार-बन्धन का उच्छेद करने की इच्छा वाले ब्राह्मणों को सर्वथा इसका सेवन करना चाहिये। दशमी को प्रातःकाल उठकर दन्तधावनपूर्वक स्नान करे और इन्द्रियों को वशमें रखते हुए विधिपूर्वक भगवान् विष्णु का पूजन करे। रात में भगवान् नारायण का चिन्तन करते हुए उन्हीं के समीप शयन करे। एकादशी को सबेरे उठकर शौच-स्नान के अनन्तर गन्ध, पुष्प आदि सामग्रियों द्वारा भगवान् विष्णु की विधिपूर्वक पूजा करके इस प्रकार कहें-
‘कमलनयन अच्युत! आज एकादशी को निराहार रहकर मैं दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मेरे लिये शरणदाता हों।‘
सुदर्शनचक्रधारी देवदेव भगवान विष्णु के समीप भक्ति भाव से उपरोक्त मंत्र का जाप करें और उन्हें संतुष्ट मन से एकादशी का व्रत उपवास समर्पित करें। व्रती को चाहिए कि नियमपूर्वक रहकर भगवान विष्णु के सामने गाकर, वाद्य यंत्र बजाकर, नृत्य करके और पुराणों को सुनकर रात में जागना चाहिए। फिर द्वादशी के दिन व्रती को प्रात:काल उठकर स्नान करके इंद्रियों को वश में रखते हुए विधि- विधान से भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। विप्रवर! जो एकादशी को भगवान जनार्दन को पंचामृत से स्नान कराता है और द्वादशी को दूध से स्नान कराता है, वह श्री हरि का सारूप्य को प्राप्त करता है।
विप्रवर! इस प्रकार द्वादशी के दिन भगवान् लक्ष्मी-पति से निवेदन करके एकाग्रचित्त हो यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा दे। तत्पश्चात् अपने भाई- बन्धुओं के साथ भगवान् नारायण का चिन्तन करते हुए पञ्चमहायज्ञ (बलिवैश्वदेव) करके स्वयं भी मौनभाव से भोजन करे। जो इस प्रकार संयमपूर्वक पवित्र एकादशी-व्रत का पालन करता है, वह पुनरावृत्तिरहित वैकुण्ठधाम में जाता है। उपवास व्रत में तत्पर तथा धर्मकार्य में संलग्न मनुष्य चाण्डालों और पतितों की ओर कभी न देखे। जो नास्तिक हैं, जिन्होंने मर्यादा भङ्ग की है तथा जो निन्दक और चुगले हैं, ऐसे लोगों से उपवास व्रत करने वाला पुरुष कभी बातचीत न करे। जो यज्ञ के अनधिकारियों से यज्ञ कराने वाला है, उससे भी व्रती पुरुष कभी न बोले। जो कुण्ड का अन्न खाता, देवता और ब्राह्मणसे विरोध रखता, पराये अन्नके लिये लालायित रहता और परायी स्त्रियों में आसक्त होता है, ऐसे मनुष्य का व्रती पुरुष वाणीमात्र से भी आदर न करे। जो इस प्रकार के दोषोंसे रहित, शुद्ध, जितेन्द्रिय तथा सबके हित में तत्पर है, वह उपवासपरायण होकर परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। गङ्गा के समान कोई तीर्थ नहीं है माता के समान कोई गुरु नहीं है। भगवान् विष्णुके समान कोई देवता नहीं है और उपवास से बढ़कर कोई तप नहीं है। क्षमा के समान कोई माता नहीं है कीर्ति के समान कोई धन नहीं है। ज्ञान के समान कोई लाभ नहीं है। धर्म के समान कोई पिता नहीं है। विवेक के समान कोई बन्धु नहीं है और एकादशी से बढ़कर कोई व्रत नहीं है।
इस विषय में लोग भद्रशील और गालवमुनि के पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल की बात है, नर्मदा के तट पर गालव नाम से प्रसिद्ध एक सत्यपरायण मुनि कर रहते थे वे शस (मनोनिग्रह) और दम (इन्द्रियसंयम) से सम्पन्न तथा तपस्या की निधि थे। सिद्ध, गन्धव, यक्ष और विद्याधर आदि देवयोनि के लोग भी वहाँ विहार को करते थे वह स्थान कंद, मूल, फलों से परिपूर्ण था। वहाँ मुनियों का बहुत बड़ा समुदाय निवास करता था। विप्रवर गालव वहाँ चिरकाल से निवास करते थे। उनका एक पुत्र हुआ जो भद्रशील नाम से विख्यात हुआ। वह बालक अपने मन और इन्द्रियों को वशमें रखता था। उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण था। वह महान् भाग्य-शाली ऋषिकुमार निरन्तर भगवान् नारायण के भजन-चिन्तन में ही लगा रहता था। महामति भद्रशील बालोचित कीड़ा के समय भी मिट्टी से भगवान् विष्णु की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करता और अपने साथियों को समझाता कि ‘मनुष्यों को सदा भगवान् विष्णु की आराधना करनी चाहिये और विद्वानों को एकादशी-व्रत का भी पालन करना चाहिये।” मुनीश्वर ! भद्रशील द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर उसके साथी शिशु भी मिट्टी से भगवान्की प्रतिमा बनाकर एकत्र या अलग-अलग बैठ जाते और प्रसन्नतापूर्वक उसकी पूजा करते थे। इस तरह वे परम सौभाग्यशाली बालक भगवान् विष्णु के भजन में तत्पर हो गये। भद्रशील भगवान् विष्णु को नमस्कार करके यही प्रार्थना करता था कि ‘सम्पूर्ण जगत् का कल्याण हो।’ खेल के समय वह दो घड़ी या एक घड़ी भी ध्यानस्थ हो एकादशी व्रत का संकल्प करके भगवान् विष्णु को समर्पित करता था। अपने पुत्र को इस प्रकार उत्तम चरित्र से युक्त देखकर तपोनिधि गालव मुनि बड़े विस्मित हुए और उसे हृदय से लगाकर पूछने लगे।
‘गालव बोले- उत्तम व्रत का पालन करने वाले महाभाग भद्रशील! तुम अपने कल्याणमय शील स्वभाव के कारण सचमुच भद्रशील हो। तुम्हारा जो मङ्गलमय चरित्र है, वह योगियों के लिये भी दुर्लभ है। तुम सदा भगवान की पूजा में तत्पर सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न तथा एकादशी-व्रत के पालनमें लगे रहने वाले हो। शास्त्र निषिद्ध कर्मों से तुम सदा दूर रहते हो। तुम पर सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता तुममें ममता नहीं दिखायी देती और तुम शान्तभाव से भगवान् के ध्यान में मग्न रहते हो। बेटा ! अभी तुम बहुत छोटे हो तो भी तुम्हारी बुद्धि ऐसी किस प्रकार हुई; क्योंकि महापुरुषों की सेवाके बिना भगवान्की भक्ति प्रायः दुर्लभ होती है। इस जीव की बुद्धि स्वभावतः अज्ञानयुक्त सकाम कमों में लगती है । तुम्हारी सब क्रिया अलौकिक कैसे हो रही है? सत्सङ्ग होने पर भी पूर्व पुण्य की अधिकता से ही मनुष्यों में भगवद्भक्ति का उदय होता है। अतः तुम्हारी अद्भुत स्थिति देखकर मैं बड़े विस्मय में पड़ा हूँ और प्रसन्नतापूर्वक इसका कारण पूछता हूँ । अतः तुम्हें यह बताना चाहिये।
मुनिश्रेष्ठ ! पिता के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर पूर्व-जन्म का स्मरण रखने वाला पुण्यात्मा भद्रशील बहुत प्रसन्न हुआ उसके मुख पर हास्य की छटा छा गयी। उसने अपने अनुभव में आयी हुई सब बातें पिताको ठीक-ठीक कह सुनायीं।
भद्रशील बोला- पिताजी! सुनिये पूर्वजन्म में मैंने जो कुछ अनुभव किया है, वह जातिस्मर होनेके कारण अब भी जानता हूँ। मुनिश्रेष्ठ! मैं पूर्वजन्म में चन्द्रवंशी राजा था। मेरा नाम धर्मकीर्ति था और महर्षि दत्तात्रेय ने मुझे शिक्षा दी थी। मैंने नौ हजार वर्षों तक सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन किया। पहले मैंने पुण्यकर्म भी बहुत-से किये थे, परंतु पीछे पाखण्डियों से बाधित होकर मैंने वैदिकमार्ग को त्याग दिया। पाखण्डियों की कूट युक्ति का अवलम्बन करके मैंने भी सब यज्ञों का विध्वंस किया। मुझे अधर्म में तत्पर देख मेरे देश की प्रजा भी सदैव पाप-कर्म करने लगी। उसमें से छठा अंश और मुझे मिलने लगा। इस प्रकार मैं सदा पापाचारपरायण हो दुर्व्यसनों में आसक्त रहने लगा।
एक दिन शिकार खेलने की रुचि से मैं एक वन गया और भूख-प्यास से पीड़ित हो थका-मादा नर्मदा के तट पर आया। सूर्य की तीखी धूप से संतप्त होनेके कारण मैंने नर्मदाजीके जल में स्नान किया। सेना किधर गयी, यह मैंने नहीं देखा अकेला ही वहाँ भूख से बहुत कष्ट पा रहा था। संध्याके समय नर्मदा तट के निवासी, जो एकादशी- व्रत करने वाले थे, वहाँ एकत्र हुए। उन सबको मैंने देखा उन्हीं लोगों के साथ निराहार रहकर बिना सेना के ही मैं अकेला रात में वहाँ जागरण करता रहा। और हे तात ! जागरण समाप्त होने पर मेरी वहीं मृत्यु हो गयी। तब बड़ी- बड़ी दाढ़ों से भय उत्पन्न करने वाले यमराज के दूतों ने मुझे बाँध लिया और अनेक प्रकार के क्लेश से भरे हुए मार्ग द्वारा यमराज के निकट पहुँचाया। वहाँ जाकर मैंने यमराज को देखा, जो सबके प्रति समान बर्ताव करने वाले हैं। तब यमराज ने चित्रगुप्त को बुलाकर कहा- ‘विद्वान्! इसको दण्ड विधान कैसे करना है, बताओ।’ साधुशिरोमणे! धर्मराज के ऐसा कहने पर चित्रगुप्त ने देर तक विचार किया; फिर इस प्रकार कहा- ‘धर्मराज ! यद्यपि यह सदा पाप में लगा रहा है, यह ठीक है, तथापि एक बात सुनिये। एकादशी को उपवास करने वाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। नर्मदा के रमणीय तट पर एकादशी के दिन यह निराहार रहा है। वहाँ जागरण और उपवास करके यह सर्वथा निष्पाप हो गया है। इसने जो कोई भी बहुत-से पाप किये थे, वे सब उपवास के प्रभाव से नष्ट हो चुके हैं।’ बुद्धिमान् चित्रगुप्त के ऐसा कहने पर धर्मराज मेरे सामने काँपने लगे । उन्होंने भूमि पर दण्ड की भाँति पड़कर मुझे साष्टाङ्ग प्रणाम किया और भक्तिभावसे मेरी पूजा की। तदनन्तर धर्मराज ने अपने सब दूतोंको बुलाकर इस प्रकार कहा।
धर्मराज बोले- ‘दूतो मेरी बात सुनो। मैं तुम्हारे हित की बड़ी उत्तम बात बतलाता हूँ धर्ममार्ग में लगे हुए मनुष्यों को मेरे पास न लाया करो। जो भगवान् विष्णु के पूजनमें तत्पर, संयमी, कृतज्ञ, एकादशी व्रतपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं और जो ‘हे नारायण ! हेअच्युत ! हे हरे ! न मुझे शरण दीजिये’ इस प्रकार शान्तभाव से निरन्तर कहते रहते हैं, ऐसे लोगों को तुम तुरंत छोड़ देना मेरे दूतो! जो सम्पूर्ण लोकों के हितैषी तथा परम शान्तभाव से रहने वाले हैं और जो नारायण ! अच्युत ! जनार्दन ! कृष्ण ! विष्णो ! कमलाकान्त! ब्रह्माजी के पिता! शिव ! शंकर ! इत्यादि नामों का नित्य कीर्तन किया करते हैं, उन्हें दूर से ही त्याग दिया करो। उन पर मेरा शासन नहीं चलता। मेरे सेवकों ! जो अपना सम्पूर्ण कर्म भगवान् विष्णु को समर्पित कर देते हैं, उन्हीं के भजन में लगे रहते हैं, अपने वर्णाश्रमोचित आचार के मार्ग में स्थित हैं, गुरुजनों की सेवा किया करते हैं, सत्पात्र को दान देते, दीनों की रक्षा करते और निरन्तर भगवन्नाम के जप-कीर्तनमें संलग्न रहते हैं, उनको भी त्याग देना। दूतगण! जो पाखण्डियों के सङ्गसे रहित, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखने वाले, सत्सङ्ग के लोभी, अतिथि सत्कार के प्रेमी, भगवान् शिव और विष्णु में समता रखनेवाले तथा लोगों के उपकार में तत्पर हों, उन्हें त्याग देना मेरे दूतो! जो लोग भगवान्की कथारूप अमृतके सेवन से वञ्चित हैं, भगवान् विष्णुके चिन्तन में मन लगाये रखने वाले साधु- महात्माओं से जो दूर रहते हैं, उन पापियोंको ही मेरे घर पर लाया करो। मेरे किङ्करो! जो माता और पिता को डाँटने-वाले, लोगों से द्वेष रखने वाले, हितैषी जनों का भी अहित करने वाले, देवता की सम्पत्ति के लोभी, दूसरे लोगों का नाश करने वाले तथा सदैव दूसरों के अपराध में ही तत्पर रहने वाले हैं, उनको यहाँ पकड़कर लाओ। मेरे दूतो ! जो एकादशी व्रत से विमुख, क्रूर स्वभाववाले, लोगों को कलङ्क लगाने वाले, परनिन्दा में तत्पर, ग्रामका विनाश करने वाले, श्रेष्ठ पुरुषों से वैर रखने वाले तथा ब्राह्मण के धन का लोभ करने वाले हैं, उनको यहाँ ले आओ। जो भगवान् विष्णु की भक्ति से मुँह मोड़ चुके हैं, शरणागतपालक भगवान् नारायण को प्रणाम नहीं करते हैं तथा जो मूर्ख मनुष्य कभी भगवान् विष्णु के मन्दिरमें नहीं जाते हैं, उन अतिशय पाप में रत रहने वाले दुष्ट लोगों को ही तुम बलपूर्वक पकड़कर यहाँ ले आओ।
इस प्रकार जब मैंने यमराज की कही हुई बातें सुनी तो पश्चात्ताप से दग्ध होकर अपने किये हुए उस निन्दित कर्म को स्मरण किया। पापकर्म के लिये पश्चात्ताप और श्रेष्ठ श्रवण करने से मेरे सब पाप वहीं नष्ट हो गये। उसके उस पुण्यकर्म के प्रभाव से इन्द्रलोक में गया। वहॉपर सब प्रकार के भोगों से सम्पन्न रहा। सम्पूर्ण देवता नमस्कार करते थे। बहुत काल तक स्वर्ग में रहकर फि वहाँ से मैं भूलोक में आया। यहाँ भी आप जैसे विष्णु-भक्ताें के कुल में मेरा जन्म हुआ। मुनीश्वर ! जातिस्मर होने के कारण मैं यह सब बातें जानता हूँ। इसलिये मैं बालकों के भगवान् विष्णु के पूजनकी चेष्टा करता हूँ। पूर्वजन्म के एकादशी व्रत का ऐसा माहात्म्य है, यह बात मैं नहीं जान सका था। इस समय पूर्वजन्म की बातोंकी स्मृति के प्रभाव से मैंने एकादशी व्रत को जान लिया है। पहले विवश होकर हैं, भी जो व्रत किया गया था, उसका यह फल मिला है। प्रभो ! फिर जो भक्तिपूर्वक एकादशी व्रत करते हैं, उनको क्या नहीं मिल सकता। अतः विप्रेन्द्र ! मैं शुभ एकादशी- व्रतका पालन तथा प्रतिदिन भगवान् विष्णु की पूजा करूँगा। भगवान् के परम धामको पाने की आकाङ्क्षा ही इसमें हेतु है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक एकादशी व्रत करते हैं, उन्हें निश्चय ही परमानन्ददायक वैकुण्ठधाम प्राप्त होता है।’ अपने पुत्रका ऐसा वचन सुनकर गालव मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें बड़ा संतोष प्राप्त हुआ उनका हृदय अत्यन्त हर्ष से भर गया । वे बोले ‘वत्स ! मेरा जन्म सफल हो गया । मेरा कुल भी पवित्र हो गया; क्योंकि तुम्हारे जैसा विष्णुभक्त पुरुष मेरे घर में पैदा हुआ है।’ इस प्रकार पुत्र के उत्तम कर्म से मन-ही-मन संतुष्ट होकर महर्षि गालव ने उसे भगवान्की पूजा का विधान ठीक-ठीक समझाया। मुनिश्रेष्ठ नारद ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने ये सब बातें कुछ विस्तार के साथ तुम्हें बता दी हैं।